एक
जो जमीन से नहीं थे जुड़े
वो ही जमीनों को ले उड़े।
दो
षड़यंत्र-अष्व की ठोकर से मेरी प्रतिमा हो गयी नष्ट
मेरे भीतर सुकरात, बुद्ध, ईसा, गांधी
इसलिये सहज सह लिया कष्ट।
तीन
सर्द रात के पिछवाड़े में
जलता रहा सूरज का अलाव
और मैं उतरता चला गया सपनों के सागर में।
चार
हलका होने के लिये
बहुत बांटा गया दुनिया में दर्द को
मगर अलहदा है मेरा तजरूबा इस सबसे।
पाॅंच
जेठ की उस दुपहर तो
फट ही गया था आसमान का ज्वालामुखी
वह तो कवच था पसीने का
जो मैं चलता ही गया जानिबेमंजिल।
जिसके कंठ से पृथ्वी के सारे वृक्ष एक साथ कविता पाठ करते थे : मिगुएल
हर्नान्देज़
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मिगुएल हर्नान्देज़ ऐसा कवि नहीं था , जैसा हम अक्सर अपने आसपास के कवियों के
बारे में जानते-सुनते हैं. उसका जीवन और उसकी कवितायेँ , दोनों के भीतर
संवेदना, अनु...
9 वर्ष पहले
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