आदिवासी साहित्य की अवधारणा
हरिराम मीणा
जब हम समाज के किसी वर्ग को केन्द्र में रखकर उससे संबंधित साहित्य की बात करते हैं तो प्रथमदृष्ट्या यह सैद्धांतिक प्रष्न खड़ा होने की संभावना बनती है कि साहित्य साहित्य होता है उसका घटकीय वर्गीकरण करना गलत होगा। इस दृष्टि से नारीवादी साहित्य, दलित या आदिवासी चेतना का साहित्य या इससे आगे अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों के साहित्य की आवाज को यह कहकर नकारने की चेष्टा की जाती है कि इस कदर का बंटवारा साहित्यिक विखंडनवाद के सिवा कुछ नहीं। जब मुंषी प्रेमचंद साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं तो इसका अर्थ है कि साहित्य समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति का नाम है। विषेष रूप से भारतीय परिप्रेक्ष्य में, सवाल यह उठता है कि क्या साहित्य की परंपरा में जो कुछ अब तक सृजित किया जाता रहा है और वह भी लिपिबद्ध स्तर पर (चाहे बात हिन्दी, अंग्रेजी या संविधान में अनुसूचीबद्ध अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की हो) उसमें समग्र राष्ट्र-समाज की अभिव्यक्ति किस हद तक हुई है अर्थात् क्या समाज की सभी श्रेणियों को पर्याप्त और आधिकारिक स्थान दिया जाता रहा है? इस सवाल का जवाब कहीं न कहीं नकारात्मक रूप ग्रहण करता है। इसलिए स्त्री, दलित, आदिवासी व अन्य घटकों में साहित्यिक चेतना या आंदोलन की पक्षधरता सामने आती है।
उक्त पृष्ठभूमि में जब सीधे आदिवासी साहित्य की अवधारणा को समझने का प्रयास किया जाता है तो साहित्यिक परंपरा में स्थान की पर्याप्तता और आधिकारिता की बात उठती है। आखिर आदिवासी साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समांतर या पृथकत्व के स्तर पर किस तरह देखा और समझा जाए? आदिवासी साहित्य को समझने से पहले हमें आदिवासी समाज को समझना होगा कि वह तथाकथित मुख्यधारा के समाज से अलग क्या विषिष्टताएं रखता है? यहां यह बात भली भांति स्वीकार करनी चाहिए कि विष्व की समस्त मानवता आरंभिक अवस्था में आदिमशैली का जीवन जिया करती थी। धीरे-धीरे विकास की यात्रा के साथ अधिकांष जन-समूह आदिम अवस्था से आगे निकलते चले गए। जो मानव समुदाय अभी भी आदिम जीवनषैली की कुछ विषिष्टताएं संजोए हुए हैं वे मिलकर आदिवासी समाज के रूप में हमारे सामने दिखाई देते हैं। इन विषिष्टताओं में सबसे प्रमुख हैं प्रकृति की गोद में जीवन यापन, मानवेतर प्राणी जगत के साथ सहअस्तित्व की भावना, सामूहिकता का महत्व तथा निजी सम्पŸिा की अवधारणा का विकसित नहीं होना या उसका शैषवकाल में होना आदि। यहां आदिवासी समाज शेष समाज से पृथक होता है और यह पृथकत्व सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिकता के स्तर पर स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है। आदिवासी समाज के इस स्वरूप को साहित्य में कितना तथा कैसा स्थान दिया गया है, इस निकष पर ही आदिवासी साहित्य को परखा जा सकता है।
आदिवासी समाज को अब तक जिस नजरिए से देखा गया है उसमें एक नजरिए ने उस समाज को जंगली-बर्बर मानव समुदाय के रूप में देखा है। यह नजरिया हमें भारतीय वर्चस्ववादी मिथकों व इतिहास से लेकर उपनिवेषवाद के दौर से गुजरते हुए वर्तमान भद्रवादी मानसिकता तक में दिखायी देता है। यही वजह है कि हम आदिवासी समाज को मिथकैतिहास में राक्षस, असुर व दानव के रूप में चित्रित होता हुआ पाते हैं, ब्रिटिषकाल में ‘एक्सक्लूडेड‘ समुदायों के रूप में पहचाने जाने के लिए विवष किए जाते हैं और वर्तमानकाल में वनवासी या गिरिजन के रूप में परिभाषित करते हैं। यही नहीं, प्रत्युत् विकास विरोधी नक्सलियों के साथ जोड़ कर भी देखने की गलतफहमी कर देते हैं। दूसरा दृष्टिकोण आता है रोमांटिक अंदाज का। इस नजरिए से हम आदिवासी समाज को गणतंत्र दिवस की झांकियों या अन्य आयोजनों में होने वाली कौतुक-प्रस्तुतियों, ड्राइंगरूम सजावट, फिल्मों में आइटम दृश्यों के रूप में देखते हुए अंततः यह सामान्यीकृत प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भूल कर बैठते हैं कि ‘समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासी मस्ती से नाचता-गाता रहता है,’ यह ना समझते हुए कि आदिवासी की यह मस्ती उसका नैसर्गिक स्वभाव है न कि भौतिक दषा। बहरहाल, यह दोनों ही दृष्टिकोण आदिवासी समाज को समझने या समझाने में सफल नहीं होते।
जब हम साहित्य में आदिवासी अथवा आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो आदिवासी समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति उपरोक्त दोनों ही दृष्टिकोणों से प्रभावित नजर आती है। मुख्यधारा के लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति स्पेस के स्तर पर बहुत कम और आधिकारिता के स्तर पर सतही नजर आती है। जिन साहित्यिक रचनाओं में आदिवासी जीवन की गहन अनुभूति है वहां आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति साहित्य में हुई है और जहां अनुभव की गहनता नहीं या कम रही वहां यह अभिव्यक्ति सतही अथवा भ्रांति पैदा करने वाली दिखती है।
आदिवासी समाज की साहित्यिक अभिव्यक्ति को परखने के लिए विषयवस्तु के स्तर पर जो विषिष्टताएं पहचानी जानी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रकृति तत्वों में जंगल, पहाड़, नदी-नाले, वन्य जीवों में पशु-पक्षी-सरीसृप, मानवीय जीवन के आदिम सरोकार यथा सामूहिकता, कृषिकर्म के साथ आखेट व वनोत्पाद पर निर्भरता, अपने में खुलापन लेकिन बाहरी लोगों से झिझक, नैसर्गिक भोलापन, समृद्ध संस्कृति के विभिन्न उपांग आदि शामिल हांेगी। वहां महानगरीय दृष्य, स्वार्थ लोलुपता, गलघोंटू स्पर्धा, पूंजी, बाजार-तकनीक-विज्ञापन, मीडिया का नटी खेल, राजनीतिक-प्रषासनिक षड्यंत्र, मध्यवर्गीय मानसिकता के परिवर्तनकामी बौद्धिक बांझ विमर्ष व नारेबाजी, ग्लोबलाइजेषन के तिलिस्मी सब्जबाग वगैरहा-वगैरहा नहीं दिखाई देंगे।
अंग्रेजी व संविधान की आठवीं सूची में शामिल भाषाओं में रचे गए लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी जीवन की अभिव्यक्ति के दायरे में रहकर जब इस विषय पर चर्चा की जाती है तो यह प्रतीत होता है कि आदिवासी साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। स्त्री मुक्ति व दलित चेतना के साहित्य की तुलना में यह बात काफी सीमा तक सही हो सकती है, लेकिन आदिवासी साहित्य को समझने के लिए हमें इस दायरे से बाहर निकलकर मौखिक परंपरा के साहित्य की जांच-पड़ताल करनी होगी। आज किसी भी भाषा में जो लिपिबद्ध साहित्य मौजूद है उस सबका आधार साहित्य की मौखिक परंपरा रही है जिसे हम प्रायः लोक की साहित्यिक परंपरा के नाम से चिन्हित करते रहे हैं।
मौखिक साहित्य के बारे में निम्न बिन्दुओं पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए।
1. हिन्दी, अंग्रेजी, अन्य प्रान्तीय भाषाओं की बजाय आदिवासी भाषाओं में यह साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
2. आदिवासी बोलियों को आदिवासी भाषा के रूप में जब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा तब तक आदिवासी साहित्य को उचित स्थान नहीं मिल सकेगा।
3. इस साहित्य की विषयवस्तु में प्रकृति, मनुष्य एवं मानवेतर प्राणी जगत से संबंधित जीवन की समग्रता षामिल है।
4. आदिवासी साहित्य संविधान की पाँचवी एवं छठी सूची में सम्मलित आदिवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, प्रस्तुत इसमें घूमंतू एवं अन्य कबीले भी शामिल माने जाने चाहिए।
5. प्रायः आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य के वृहद् दायरे में ही माना जाता है। आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज का हिस्सा नहीं रहा जबकि दलित जातियां मुख्य समाज का हिस्सा रही हैं जहां उनका स्थान निम्न स्तर का रहा है। ऐसे सामाजिक परिपे्रक्ष्य में आदिवासी साहित्य को पृथक से देखा जाना चाहिए।
6. इस साहित्य में स्त्री का स्थान किसी भी स्तर पर पुरूष से कम नहीं पाया जाता है। बाहरी तत्वों द्वारा आदिवासी स्त्रियों काष्षोषण पृथक विषय होता है।
7. आदिवासी मौखिक साहित्य में आदिवासी मिथक, किवदन्तियां व लोकोक्तियां पाई जाती हैं जिनके मूल यथार्थ को समझने के लिये अतीत एवं गहराई में जाना पड़ता है। इस संदर्भ में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी आदिवासी मिथकों को देखा जा सकता है।
8. यह साहित्य प्रमुख रूप से करीब 100 आदिवासी भाषाओं में उपलब्ध है जिनमें भीली, गांेडी, मिजो, गारो, सन्थाली, किन्नोरी, गढ़वाली, बारली, खासी, बन्जारी प्रमुख हैं।
लोक साहित्य की मौखिक परंपरा का मौलिक स्वरूप अभी भी आदिवासी वाचिक परंपरा के साहित्य में देखा जा सकता है जो लोकगीतों के विभिन्न रूपों, गल्प, कथावाचन, किंवदंतियां, पहेलियां, नाटक की विभिन्न विधाओं यथा लीला, स्वांग, बहुरूपिया कला आदि के रूप में उपलब्ध मिलता है।
आदिवासी लिपिबद्ध साहित्य का इतिहास पुराना नहीं है। यह अभी षैषव अवस्था में है जिसे गत करीब दो दषकों में देखा जा सकता है। इससे जुड़े प्रमुख मुद्दे निम्न प्रकार हैं -
1. हिंदी में व्यवस्थित लिपिबद्ध साहित्य का संकलन ’युद्धरत आम आदमी’ के आदिवासी विषेषांकों में वर्ष 2002 में प्रथम बार किया गया।
2. इसके बाद अन्य पत्रिकाओं ने सहयोग दिया जिनमें दस्तक, अकार, कथाक्रम, इस्पातिका, सबलोग आदि प्रमुख हैं।
3. गत करीब 25 वर्ष से निकल रही त्रैमासिक पत्रिका ’अरावली उद्घोष’ केवल आदिवासियों को समर्पित रही है जिसका आरम्भ उदयपुर, राजस्थान से स्वर्गीय श्री वी0पी0 वर्मा पथिक ने किया।
4. इस साहित्य की दृष्टि से आदिवासी साहित्य सम्मेलनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। दो राष्ट्रीय सम्मेलन अब तक दिल्ली एवं राची में हो चुके हैं।
5. इसी क्रम में अखिल भारतीय आदिवासी लेखक मंच की स्थापना के महत्व को देखा जा सकता है।
6. इस साहित्य में परम्परागत विषयवस्तुओं से पृथक नये विषयों का समावेष हो रहा है जिसकी वजह आदिवासी क्षेत्रों पर बाहरी दबाव, विकास बनाम विस्थापन, वैष्वीकरण, राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के तथाकथित प्रयास एवं आधुनिकरण आदि शामिल हैं।
7. चैतरफा दबावों के चलते साहित्य की सहज, सरल व स्वाभाविक विषय-वस्तु के स्थान पर दबाव, अन्तर्विरोध, आषंका, चिन्ता, भय, प्रतिरोध जैसी मनोदषा की अभिव्यक्ति प्रमुखता से सामने आ रही है।
आदिवासी साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र का जहां तक प्रष्न है तो यह कहना उचित होगा कि लिपिबद्ध आदिवासी साहित्य अभी नया नया है इसलिए इसका मूल्यांकन, प्रतिमान-विष्लेषण, प्रवृत्तियों की पहचान, षिल्प एवं सौन्दर्ययषास्त्र संबंधी अन्य विषयों पर षोध कार्य, विमर्ष एवं चिन्तन किया जाना षेष है, फिर भी कुछ प्रवृत्तियांे पर चर्चा की जानी चाहिए।
1. अभिव्यक्ति की भाषा एवं मुहावरा आदिवासी परम्परा की मौलिकता से जुड़ा हुआ है। बाहरी प्रभाव कम मात्रा में है। यह स्थिति आदिवासी लेखकांे के संदर्भ में विषेष रूप से स्पष्टतः देखी जा सकती है।
2. जहाँ तक आदिवासी विषयों पर गैर आदिवासी साहित्यकारों के लेखन का प्रष्न है तो उनके यहां परिष्कृत भाषा व मुहावरा है जो राष्ट्रीय मुख्य धारा से संबंध रखता है चाहे वह लेखन हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में किया जा रहा हो। उदाहरण के तौर पर महाष्वेता देवी, अरूणधति राय, सुदीप बनर्जी, चन्द्रकान्त देवताले आदि के लेखन में देखा जा सकता है।
3. आदिवासी साहित्य के षिल्प व सौन्दर्य बोध को समझने के लिये मुख्य धारा के प्रचिलित प्रतिमान काम नहीं आयेंगे। इस साहित्य को समझने के लिए आदिवासी समाज के अतीत, लम्बी परम्परा, संस्कृति, समग्र जीवन, भविष्य की आपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं आदि को समझना होगा।
4. आदिवासी साहित्य अपने षिल्प व भाषिक मुहावरा के साथ सामने आयेगा। इसे समझने के लिए जापानी कविता के प्रेरणा-पुरूष इषिकावा ताकुबोको के इन शब्दों को यहां उद्धृत किया जाना ठीक होगा - ’’षिल्प और भाषा, वस्तु और जीवन-दृष्टि के अनुरूप स्वयं बदलते चलते हैं, उन्हें अलग से बदलने की जरूरत नहीं पड़ती।’’
दरअसल, होता यह है कि जब हम चीजों को गहरायी में नहीं देखते तो कई भ्रांतियों के षिकार हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ आदिवासियों के जीवन और उस पर लिखे गये साहित्य के साथ होता आया है। उदाहरणार्थ, आदिवासी कुम्भ के रूप में विख्यात बेणेष्वर धाम के सालाना मेले में लाखों आदिवासी इकट्ठा होते हैं तो सैलानी वहाँ जाकर अर्द्धनग्न नहाती हुई युवतियों के फोटो खींचने का मानस बनाते हंै। आदिवासी युवतियों की देह में उन्हें गोल-गोल गाल, उन्नत उरोज, पुष्ट जंघाएँ, मदमाता यौवन और न जाने क्या-क्या नजर आने लगता है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि आदिवासी लोगों का असल जीवन कैसा है। वहाँ सौ तरह के अभाव हैं - अषिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी, दुर्गम रास्ते, अपर्याप्त आवास, दिनभर की थकान और रातों का अंधेरा ..............। कितनी तकलीफें हैं उनके जीवन में, यह कोई नहीं देख पाता। ऐसे ही पूर्वाग्रहों और भ्रमों से युक्त अभिव्यक्ति आदिवासियों पर लिखे गये साहित्य में हुई।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि आदिवासी जीवन पर गैर आदिवासी रचनाकारों ने अब तक जो लिखा है वह सब खारिज करने लायक है।
आदिवासी मौखिक साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य में शामिल करने के लिए हमें दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रथम, विभिन्न आदिवासी भाषाओं में रचे हुए साहित्य का संकलन अपने आप में एक बड़ा कार्य है। इसके लिए संबंधित आदिवासी भाषा की आधिकारिक जानकारी आवष्यक होगी ताकि मौखिक साहित्य से जुडे़ हुए लोगों से जानकारी प्राप्त की जा सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि आदिवासी वाचिक परंपरा में जो साहित्यिक रचना सृजित की गई है वह सब सामूहिक स्वरूप में दिखायी देती है। यह पता लगाना मुष्किल है कि किस रचना या उसके किसी अंष का सृजन किस व्यक्ति द्वारा किया गया। इस परंपरा में रचनाकर्म के स्तर पर व्यक्ति विषेष महत्वपूर्ण नहीं होता और ना ही उसकी पहचान आसानी से की जा सकती है। रचना निष्चित रूप से व्यक्ति के स्तर की भावभूमि से पैदा होने की संभावना रखती है, लेकिन वह सामूहिक कर्म में शामिल होती जाती है। इस सामूहिक सृजनात्मक के साथ रचनाकर्म की गत्यात्मकता अन्य महत्वपूर्ण तत्व है और यही तत्व मौखिक साहित्य को नैरंतर्य देता हुआ परंपरावाही बनाता है जो स्वतः ही समय के साथ नित-नया बनने की संभावना और क्षमता रखता है। इस दृष्टि से विषय-वस्तु, षिल्प, भाव व मुहावरा आदि के साथ इस मौखिक साहित्य को समझते हुए संकलित करना या संकलन की प्रक्रिया में समझते हुए सामने लाना अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है।
दूसरे, आदिवासी मौखिक साहित्य को मूल भाषा में संकलित करने के बाद उसका हिन्दी-अंग्रेजी या अन्य आंचलिक (संविधान में अनुसूचीबद्ध) भाषाओं में अनुवाद की बड़ी चुनौती हमारे सामने प्रस्तुत होती है। आदिवासी जैसे ‘स्वयं में खुले’ लेकिन बाहरी दुनिया के लिए ‘बंद समाजों’ की भाषा में रची वाचिक परंपरा की साहित्यिक रचनाओं को दीगर भाषाओं में अनूदित करना अनुवाद की चुनौती को और पेचीदा बना देता है। यहां द्विभाषिक ज्ञान के साथ-साथ साहित्य से अधिक जानकारी उस समाज की भी अपेक्षित हो जाती है। इसलिए अनुवाद केवल साहित्यिक कर्म तक सीमित नहीं रहता, प्रत्युत् वह रचनाकर्म की परंपरा-भाव-पृष्ठभूमि की गहरायी में उतरने की मांग भी करता है।
आदिवासी साहित्य चाहे वह वाचिक परंपरा से संबंध रखता है या सीधा-सीधा लिपिबद्ध रूप में हमें उपलब्ध हो रहा है, दोनों ही दषाओं में उसकी परख का सवाल एक बड़े सवाल के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। यहां आलोचना के स्थापित प्रतिमान शायद निकष के रूप में ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो। साहित्यिक मूल्यांकन के लिए स्थापित प्रतिमानों के कुछ स्थायी सूत्र काम में आ सकते हैं जिसे हम ‘आलोचना की समझ’ कह सकते हैं अन्यथा विषयवस्तु, षिल्प, भाव पक्ष व मुहावरा इन सभी स्तरों पर आदिवासी साहित्य तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य से इतर अपनी विषिष्टताएं रखता है। उसे समझने के लिए एक सही दृष्टि की दरकार रहेगी जो जरूरी नहीं कि साहित्य के हर किसी प्रतिष्ठित समीक्षक या विद्वान के पास हो। यह दिक्कत स्त्री व दलित साहित्य की परख के क्षेत्र में भी पैदा होती रही है पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री व दलित चेतना का साहित्य समाज के उन वर्गों का साहित्य है जो मुख्य समाज का हिस्सा रहे चाहे सामाजिक स्तर पर हाषिए या दोयम दर्जे पर ही क्यों न रखे गए। आदिवासी समाज उस रूप में शेष समाज का हिस्सा न रहकर वह संस्कृति, परंपरा व भौगोलिकता के स्तर पर पूरी तरह अलग-थलग रहता आया, इसलिए उसकी तल्खी, तासीर व तेवरों को समझने के लिए ‘आलोचना की समझ’ की दृष्टि के साथ आदिवासी नजरिए का चष्मा भी जरूरी होगा।
आदिवासी समाज को समझने के लिए जिस कदर भ्रांतियां पैदा होती या की जाती रही हैं उस प्रकार की भ्रांतियां आदिवासी साहित्य की परख की प्रक्रिया में पैदा न हों, इसलिए हमंे बहुत सावधानी और सतर्कता बरतनी होगी।
यहां मैं एक उदाहरण देना समीचीन समझता हूॅं। आदिवासी साहित्यिक विषयों पर शोध के इच्छुक छात्रों के साथ मुझे विमर्ष करने का मौका पिछले दिनों केन्द्रीय विष्वविद्यालयों हैदराबाद, गुजरात, अमरकंटक व राज्य विष्वविद्यालयों राजस्थान व इन्द्रप्रथ दिल्ली में मिला। पांचों ही जगह जब मैंने छात्रों से आदिवासी समाज की छवि के बारे में पूछा तो प्रारंभिक जानकारी प्राप्त की तो मुझे बताया गया कि ‘आदिवासी अंचलों में शोध के लिए फील्ड सर्वेक्षण हमारे लिए कठिन होगा, चूंकि 1. आदिवासी लोग बाहरी लोगों पर अकारण हमला कर देते हैं, 2. आदिवासी लोग मांसाहारी होते हैं जो हमें मांस खाने के लिए विवष करेंगे, 3. आदिवासी लोग शराबी होते हैं, वे हमारे साथ कुछ भी अप्रिय घटित कर सकते हैं।’ मैं यह सब धैर्य से सुनता रहा और अंत में मैंने यह जोड़ा कि ‘आपने यह भी तो सुना होगा कि आदिवासी लोग नरभक्षी भी होते हैं!’ विषेष रूप से अंडमान के आदिवासियों के बारे में नरभक्षण की भ्रांतियां पैदा की जाती रही हैं जबकि वहां का यथार्थ यह रहा है कि वे अपने क्षेत्र में घुसने वाले बाहरी लोगों पर यदा-कदा हमला करते रहे हैं, यहां तक कि एकाध दृष्टांत मारकर जलाने के भी बताए जाते हैं। नरभक्षण का कोई उदाहरण अभी तक हमारे सामने नहीं है। हमला करने, मारने या जलाने की घटनाओं की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी होगा। यह समझ तब होगी जबकि हमें अंडमान में हुई अबेर्दीन की उस लड़ाई का ज्ञान हो जब अंग्रेजी फौजों ने सन् 1859 में अंडमान के आदिवासियों को अपनी आजादी की लड़ाई लड़ते हुए गोलियों से करीब ढाई हजार की संख्या में भूना था। तभी से अंडमान के आदिवासी बाहर के लोगों से घोर घृणा करते रहे हैं।
तो विमर्ष के दौरान छात्रों द्वारा मुझे वो बताया गया जो उन्होंने अब तक सुन रखा था और जो सही नहीं था। जब आदिवासी समाज के बारे में इस तरह की भ्रांतियां फैली हुई हंै तो आदिवासी साहित्य को समझने का सवाल उठेगा।
31,षिवषक्तिनगर, किंग्सरोड़,
अजमेर हाई-वे, जयपुर-302019
ई-मेल ीतउइउे/लंीववण्बवण्पद
मो0 094141 24101
हरिराम मीणा
जब हम समाज के किसी वर्ग को केन्द्र में रखकर उससे संबंधित साहित्य की बात करते हैं तो प्रथमदृष्ट्या यह सैद्धांतिक प्रष्न खड़ा होने की संभावना बनती है कि साहित्य साहित्य होता है उसका घटकीय वर्गीकरण करना गलत होगा। इस दृष्टि से नारीवादी साहित्य, दलित या आदिवासी चेतना का साहित्य या इससे आगे अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों के साहित्य की आवाज को यह कहकर नकारने की चेष्टा की जाती है कि इस कदर का बंटवारा साहित्यिक विखंडनवाद के सिवा कुछ नहीं। जब मुंषी प्रेमचंद साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं तो इसका अर्थ है कि साहित्य समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति का नाम है। विषेष रूप से भारतीय परिप्रेक्ष्य में, सवाल यह उठता है कि क्या साहित्य की परंपरा में जो कुछ अब तक सृजित किया जाता रहा है और वह भी लिपिबद्ध स्तर पर (चाहे बात हिन्दी, अंग्रेजी या संविधान में अनुसूचीबद्ध अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की हो) उसमें समग्र राष्ट्र-समाज की अभिव्यक्ति किस हद तक हुई है अर्थात् क्या समाज की सभी श्रेणियों को पर्याप्त और आधिकारिक स्थान दिया जाता रहा है? इस सवाल का जवाब कहीं न कहीं नकारात्मक रूप ग्रहण करता है। इसलिए स्त्री, दलित, आदिवासी व अन्य घटकों में साहित्यिक चेतना या आंदोलन की पक्षधरता सामने आती है।
उक्त पृष्ठभूमि में जब सीधे आदिवासी साहित्य की अवधारणा को समझने का प्रयास किया जाता है तो साहित्यिक परंपरा में स्थान की पर्याप्तता और आधिकारिता की बात उठती है। आखिर आदिवासी साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समांतर या पृथकत्व के स्तर पर किस तरह देखा और समझा जाए? आदिवासी साहित्य को समझने से पहले हमें आदिवासी समाज को समझना होगा कि वह तथाकथित मुख्यधारा के समाज से अलग क्या विषिष्टताएं रखता है? यहां यह बात भली भांति स्वीकार करनी चाहिए कि विष्व की समस्त मानवता आरंभिक अवस्था में आदिमशैली का जीवन जिया करती थी। धीरे-धीरे विकास की यात्रा के साथ अधिकांष जन-समूह आदिम अवस्था से आगे निकलते चले गए। जो मानव समुदाय अभी भी आदिम जीवनषैली की कुछ विषिष्टताएं संजोए हुए हैं वे मिलकर आदिवासी समाज के रूप में हमारे सामने दिखाई देते हैं। इन विषिष्टताओं में सबसे प्रमुख हैं प्रकृति की गोद में जीवन यापन, मानवेतर प्राणी जगत के साथ सहअस्तित्व की भावना, सामूहिकता का महत्व तथा निजी सम्पŸिा की अवधारणा का विकसित नहीं होना या उसका शैषवकाल में होना आदि। यहां आदिवासी समाज शेष समाज से पृथक होता है और यह पृथकत्व सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिकता के स्तर पर स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है। आदिवासी समाज के इस स्वरूप को साहित्य में कितना तथा कैसा स्थान दिया गया है, इस निकष पर ही आदिवासी साहित्य को परखा जा सकता है।
आदिवासी समाज को अब तक जिस नजरिए से देखा गया है उसमें एक नजरिए ने उस समाज को जंगली-बर्बर मानव समुदाय के रूप में देखा है। यह नजरिया हमें भारतीय वर्चस्ववादी मिथकों व इतिहास से लेकर उपनिवेषवाद के दौर से गुजरते हुए वर्तमान भद्रवादी मानसिकता तक में दिखायी देता है। यही वजह है कि हम आदिवासी समाज को मिथकैतिहास में राक्षस, असुर व दानव के रूप में चित्रित होता हुआ पाते हैं, ब्रिटिषकाल में ‘एक्सक्लूडेड‘ समुदायों के रूप में पहचाने जाने के लिए विवष किए जाते हैं और वर्तमानकाल में वनवासी या गिरिजन के रूप में परिभाषित करते हैं। यही नहीं, प्रत्युत् विकास विरोधी नक्सलियों के साथ जोड़ कर भी देखने की गलतफहमी कर देते हैं। दूसरा दृष्टिकोण आता है रोमांटिक अंदाज का। इस नजरिए से हम आदिवासी समाज को गणतंत्र दिवस की झांकियों या अन्य आयोजनों में होने वाली कौतुक-प्रस्तुतियों, ड्राइंगरूम सजावट, फिल्मों में आइटम दृश्यों के रूप में देखते हुए अंततः यह सामान्यीकृत प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भूल कर बैठते हैं कि ‘समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासी मस्ती से नाचता-गाता रहता है,’ यह ना समझते हुए कि आदिवासी की यह मस्ती उसका नैसर्गिक स्वभाव है न कि भौतिक दषा। बहरहाल, यह दोनों ही दृष्टिकोण आदिवासी समाज को समझने या समझाने में सफल नहीं होते।
जब हम साहित्य में आदिवासी अथवा आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो आदिवासी समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति उपरोक्त दोनों ही दृष्टिकोणों से प्रभावित नजर आती है। मुख्यधारा के लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति स्पेस के स्तर पर बहुत कम और आधिकारिता के स्तर पर सतही नजर आती है। जिन साहित्यिक रचनाओं में आदिवासी जीवन की गहन अनुभूति है वहां आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति साहित्य में हुई है और जहां अनुभव की गहनता नहीं या कम रही वहां यह अभिव्यक्ति सतही अथवा भ्रांति पैदा करने वाली दिखती है।
आदिवासी समाज की साहित्यिक अभिव्यक्ति को परखने के लिए विषयवस्तु के स्तर पर जो विषिष्टताएं पहचानी जानी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रकृति तत्वों में जंगल, पहाड़, नदी-नाले, वन्य जीवों में पशु-पक्षी-सरीसृप, मानवीय जीवन के आदिम सरोकार यथा सामूहिकता, कृषिकर्म के साथ आखेट व वनोत्पाद पर निर्भरता, अपने में खुलापन लेकिन बाहरी लोगों से झिझक, नैसर्गिक भोलापन, समृद्ध संस्कृति के विभिन्न उपांग आदि शामिल हांेगी। वहां महानगरीय दृष्य, स्वार्थ लोलुपता, गलघोंटू स्पर्धा, पूंजी, बाजार-तकनीक-विज्ञापन, मीडिया का नटी खेल, राजनीतिक-प्रषासनिक षड्यंत्र, मध्यवर्गीय मानसिकता के परिवर्तनकामी बौद्धिक बांझ विमर्ष व नारेबाजी, ग्लोबलाइजेषन के तिलिस्मी सब्जबाग वगैरहा-वगैरहा नहीं दिखाई देंगे।
अंग्रेजी व संविधान की आठवीं सूची में शामिल भाषाओं में रचे गए लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी जीवन की अभिव्यक्ति के दायरे में रहकर जब इस विषय पर चर्चा की जाती है तो यह प्रतीत होता है कि आदिवासी साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। स्त्री मुक्ति व दलित चेतना के साहित्य की तुलना में यह बात काफी सीमा तक सही हो सकती है, लेकिन आदिवासी साहित्य को समझने के लिए हमें इस दायरे से बाहर निकलकर मौखिक परंपरा के साहित्य की जांच-पड़ताल करनी होगी। आज किसी भी भाषा में जो लिपिबद्ध साहित्य मौजूद है उस सबका आधार साहित्य की मौखिक परंपरा रही है जिसे हम प्रायः लोक की साहित्यिक परंपरा के नाम से चिन्हित करते रहे हैं।
मौखिक साहित्य के बारे में निम्न बिन्दुओं पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए।
1. हिन्दी, अंग्रेजी, अन्य प्रान्तीय भाषाओं की बजाय आदिवासी भाषाओं में यह साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
2. आदिवासी बोलियों को आदिवासी भाषा के रूप में जब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा तब तक आदिवासी साहित्य को उचित स्थान नहीं मिल सकेगा।
3. इस साहित्य की विषयवस्तु में प्रकृति, मनुष्य एवं मानवेतर प्राणी जगत से संबंधित जीवन की समग्रता षामिल है।
4. आदिवासी साहित्य संविधान की पाँचवी एवं छठी सूची में सम्मलित आदिवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, प्रस्तुत इसमें घूमंतू एवं अन्य कबीले भी शामिल माने जाने चाहिए।
5. प्रायः आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य के वृहद् दायरे में ही माना जाता है। आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज का हिस्सा नहीं रहा जबकि दलित जातियां मुख्य समाज का हिस्सा रही हैं जहां उनका स्थान निम्न स्तर का रहा है। ऐसे सामाजिक परिपे्रक्ष्य में आदिवासी साहित्य को पृथक से देखा जाना चाहिए।
6. इस साहित्य में स्त्री का स्थान किसी भी स्तर पर पुरूष से कम नहीं पाया जाता है। बाहरी तत्वों द्वारा आदिवासी स्त्रियों काष्षोषण पृथक विषय होता है।
7. आदिवासी मौखिक साहित्य में आदिवासी मिथक, किवदन्तियां व लोकोक्तियां पाई जाती हैं जिनके मूल यथार्थ को समझने के लिये अतीत एवं गहराई में जाना पड़ता है। इस संदर्भ में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी आदिवासी मिथकों को देखा जा सकता है।
8. यह साहित्य प्रमुख रूप से करीब 100 आदिवासी भाषाओं में उपलब्ध है जिनमें भीली, गांेडी, मिजो, गारो, सन्थाली, किन्नोरी, गढ़वाली, बारली, खासी, बन्जारी प्रमुख हैं।
लोक साहित्य की मौखिक परंपरा का मौलिक स्वरूप अभी भी आदिवासी वाचिक परंपरा के साहित्य में देखा जा सकता है जो लोकगीतों के विभिन्न रूपों, गल्प, कथावाचन, किंवदंतियां, पहेलियां, नाटक की विभिन्न विधाओं यथा लीला, स्वांग, बहुरूपिया कला आदि के रूप में उपलब्ध मिलता है।
आदिवासी लिपिबद्ध साहित्य का इतिहास पुराना नहीं है। यह अभी षैषव अवस्था में है जिसे गत करीब दो दषकों में देखा जा सकता है। इससे जुड़े प्रमुख मुद्दे निम्न प्रकार हैं -
1. हिंदी में व्यवस्थित लिपिबद्ध साहित्य का संकलन ’युद्धरत आम आदमी’ के आदिवासी विषेषांकों में वर्ष 2002 में प्रथम बार किया गया।
2. इसके बाद अन्य पत्रिकाओं ने सहयोग दिया जिनमें दस्तक, अकार, कथाक्रम, इस्पातिका, सबलोग आदि प्रमुख हैं।
3. गत करीब 25 वर्ष से निकल रही त्रैमासिक पत्रिका ’अरावली उद्घोष’ केवल आदिवासियों को समर्पित रही है जिसका आरम्भ उदयपुर, राजस्थान से स्वर्गीय श्री वी0पी0 वर्मा पथिक ने किया।
4. इस साहित्य की दृष्टि से आदिवासी साहित्य सम्मेलनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। दो राष्ट्रीय सम्मेलन अब तक दिल्ली एवं राची में हो चुके हैं।
5. इसी क्रम में अखिल भारतीय आदिवासी लेखक मंच की स्थापना के महत्व को देखा जा सकता है।
6. इस साहित्य में परम्परागत विषयवस्तुओं से पृथक नये विषयों का समावेष हो रहा है जिसकी वजह आदिवासी क्षेत्रों पर बाहरी दबाव, विकास बनाम विस्थापन, वैष्वीकरण, राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के तथाकथित प्रयास एवं आधुनिकरण आदि शामिल हैं।
7. चैतरफा दबावों के चलते साहित्य की सहज, सरल व स्वाभाविक विषय-वस्तु के स्थान पर दबाव, अन्तर्विरोध, आषंका, चिन्ता, भय, प्रतिरोध जैसी मनोदषा की अभिव्यक्ति प्रमुखता से सामने आ रही है।
आदिवासी साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र का जहां तक प्रष्न है तो यह कहना उचित होगा कि लिपिबद्ध आदिवासी साहित्य अभी नया नया है इसलिए इसका मूल्यांकन, प्रतिमान-विष्लेषण, प्रवृत्तियों की पहचान, षिल्प एवं सौन्दर्ययषास्त्र संबंधी अन्य विषयों पर षोध कार्य, विमर्ष एवं चिन्तन किया जाना षेष है, फिर भी कुछ प्रवृत्तियांे पर चर्चा की जानी चाहिए।
1. अभिव्यक्ति की भाषा एवं मुहावरा आदिवासी परम्परा की मौलिकता से जुड़ा हुआ है। बाहरी प्रभाव कम मात्रा में है। यह स्थिति आदिवासी लेखकांे के संदर्भ में विषेष रूप से स्पष्टतः देखी जा सकती है।
2. जहाँ तक आदिवासी विषयों पर गैर आदिवासी साहित्यकारों के लेखन का प्रष्न है तो उनके यहां परिष्कृत भाषा व मुहावरा है जो राष्ट्रीय मुख्य धारा से संबंध रखता है चाहे वह लेखन हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में किया जा रहा हो। उदाहरण के तौर पर महाष्वेता देवी, अरूणधति राय, सुदीप बनर्जी, चन्द्रकान्त देवताले आदि के लेखन में देखा जा सकता है।
3. आदिवासी साहित्य के षिल्प व सौन्दर्य बोध को समझने के लिये मुख्य धारा के प्रचिलित प्रतिमान काम नहीं आयेंगे। इस साहित्य को समझने के लिए आदिवासी समाज के अतीत, लम्बी परम्परा, संस्कृति, समग्र जीवन, भविष्य की आपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं आदि को समझना होगा।
4. आदिवासी साहित्य अपने षिल्प व भाषिक मुहावरा के साथ सामने आयेगा। इसे समझने के लिए जापानी कविता के प्रेरणा-पुरूष इषिकावा ताकुबोको के इन शब्दों को यहां उद्धृत किया जाना ठीक होगा - ’’षिल्प और भाषा, वस्तु और जीवन-दृष्टि के अनुरूप स्वयं बदलते चलते हैं, उन्हें अलग से बदलने की जरूरत नहीं पड़ती।’’
दरअसल, होता यह है कि जब हम चीजों को गहरायी में नहीं देखते तो कई भ्रांतियों के षिकार हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ आदिवासियों के जीवन और उस पर लिखे गये साहित्य के साथ होता आया है। उदाहरणार्थ, आदिवासी कुम्भ के रूप में विख्यात बेणेष्वर धाम के सालाना मेले में लाखों आदिवासी इकट्ठा होते हैं तो सैलानी वहाँ जाकर अर्द्धनग्न नहाती हुई युवतियों के फोटो खींचने का मानस बनाते हंै। आदिवासी युवतियों की देह में उन्हें गोल-गोल गाल, उन्नत उरोज, पुष्ट जंघाएँ, मदमाता यौवन और न जाने क्या-क्या नजर आने लगता है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि आदिवासी लोगों का असल जीवन कैसा है। वहाँ सौ तरह के अभाव हैं - अषिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी, दुर्गम रास्ते, अपर्याप्त आवास, दिनभर की थकान और रातों का अंधेरा ..............। कितनी तकलीफें हैं उनके जीवन में, यह कोई नहीं देख पाता। ऐसे ही पूर्वाग्रहों और भ्रमों से युक्त अभिव्यक्ति आदिवासियों पर लिखे गये साहित्य में हुई।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि आदिवासी जीवन पर गैर आदिवासी रचनाकारों ने अब तक जो लिखा है वह सब खारिज करने लायक है।
आदिवासी मौखिक साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य में शामिल करने के लिए हमें दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रथम, विभिन्न आदिवासी भाषाओं में रचे हुए साहित्य का संकलन अपने आप में एक बड़ा कार्य है। इसके लिए संबंधित आदिवासी भाषा की आधिकारिक जानकारी आवष्यक होगी ताकि मौखिक साहित्य से जुडे़ हुए लोगों से जानकारी प्राप्त की जा सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि आदिवासी वाचिक परंपरा में जो साहित्यिक रचना सृजित की गई है वह सब सामूहिक स्वरूप में दिखायी देती है। यह पता लगाना मुष्किल है कि किस रचना या उसके किसी अंष का सृजन किस व्यक्ति द्वारा किया गया। इस परंपरा में रचनाकर्म के स्तर पर व्यक्ति विषेष महत्वपूर्ण नहीं होता और ना ही उसकी पहचान आसानी से की जा सकती है। रचना निष्चित रूप से व्यक्ति के स्तर की भावभूमि से पैदा होने की संभावना रखती है, लेकिन वह सामूहिक कर्म में शामिल होती जाती है। इस सामूहिक सृजनात्मक के साथ रचनाकर्म की गत्यात्मकता अन्य महत्वपूर्ण तत्व है और यही तत्व मौखिक साहित्य को नैरंतर्य देता हुआ परंपरावाही बनाता है जो स्वतः ही समय के साथ नित-नया बनने की संभावना और क्षमता रखता है। इस दृष्टि से विषय-वस्तु, षिल्प, भाव व मुहावरा आदि के साथ इस मौखिक साहित्य को समझते हुए संकलित करना या संकलन की प्रक्रिया में समझते हुए सामने लाना अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है।
दूसरे, आदिवासी मौखिक साहित्य को मूल भाषा में संकलित करने के बाद उसका हिन्दी-अंग्रेजी या अन्य आंचलिक (संविधान में अनुसूचीबद्ध) भाषाओं में अनुवाद की बड़ी चुनौती हमारे सामने प्रस्तुत होती है। आदिवासी जैसे ‘स्वयं में खुले’ लेकिन बाहरी दुनिया के लिए ‘बंद समाजों’ की भाषा में रची वाचिक परंपरा की साहित्यिक रचनाओं को दीगर भाषाओं में अनूदित करना अनुवाद की चुनौती को और पेचीदा बना देता है। यहां द्विभाषिक ज्ञान के साथ-साथ साहित्य से अधिक जानकारी उस समाज की भी अपेक्षित हो जाती है। इसलिए अनुवाद केवल साहित्यिक कर्म तक सीमित नहीं रहता, प्रत्युत् वह रचनाकर्म की परंपरा-भाव-पृष्ठभूमि की गहरायी में उतरने की मांग भी करता है।
आदिवासी साहित्य चाहे वह वाचिक परंपरा से संबंध रखता है या सीधा-सीधा लिपिबद्ध रूप में हमें उपलब्ध हो रहा है, दोनों ही दषाओं में उसकी परख का सवाल एक बड़े सवाल के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। यहां आलोचना के स्थापित प्रतिमान शायद निकष के रूप में ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो। साहित्यिक मूल्यांकन के लिए स्थापित प्रतिमानों के कुछ स्थायी सूत्र काम में आ सकते हैं जिसे हम ‘आलोचना की समझ’ कह सकते हैं अन्यथा विषयवस्तु, षिल्प, भाव पक्ष व मुहावरा इन सभी स्तरों पर आदिवासी साहित्य तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य से इतर अपनी विषिष्टताएं रखता है। उसे समझने के लिए एक सही दृष्टि की दरकार रहेगी जो जरूरी नहीं कि साहित्य के हर किसी प्रतिष्ठित समीक्षक या विद्वान के पास हो। यह दिक्कत स्त्री व दलित साहित्य की परख के क्षेत्र में भी पैदा होती रही है पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री व दलित चेतना का साहित्य समाज के उन वर्गों का साहित्य है जो मुख्य समाज का हिस्सा रहे चाहे सामाजिक स्तर पर हाषिए या दोयम दर्जे पर ही क्यों न रखे गए। आदिवासी समाज उस रूप में शेष समाज का हिस्सा न रहकर वह संस्कृति, परंपरा व भौगोलिकता के स्तर पर पूरी तरह अलग-थलग रहता आया, इसलिए उसकी तल्खी, तासीर व तेवरों को समझने के लिए ‘आलोचना की समझ’ की दृष्टि के साथ आदिवासी नजरिए का चष्मा भी जरूरी होगा।
आदिवासी समाज को समझने के लिए जिस कदर भ्रांतियां पैदा होती या की जाती रही हैं उस प्रकार की भ्रांतियां आदिवासी साहित्य की परख की प्रक्रिया में पैदा न हों, इसलिए हमंे बहुत सावधानी और सतर्कता बरतनी होगी।
यहां मैं एक उदाहरण देना समीचीन समझता हूॅं। आदिवासी साहित्यिक विषयों पर शोध के इच्छुक छात्रों के साथ मुझे विमर्ष करने का मौका पिछले दिनों केन्द्रीय विष्वविद्यालयों हैदराबाद, गुजरात, अमरकंटक व राज्य विष्वविद्यालयों राजस्थान व इन्द्रप्रथ दिल्ली में मिला। पांचों ही जगह जब मैंने छात्रों से आदिवासी समाज की छवि के बारे में पूछा तो प्रारंभिक जानकारी प्राप्त की तो मुझे बताया गया कि ‘आदिवासी अंचलों में शोध के लिए फील्ड सर्वेक्षण हमारे लिए कठिन होगा, चूंकि 1. आदिवासी लोग बाहरी लोगों पर अकारण हमला कर देते हैं, 2. आदिवासी लोग मांसाहारी होते हैं जो हमें मांस खाने के लिए विवष करेंगे, 3. आदिवासी लोग शराबी होते हैं, वे हमारे साथ कुछ भी अप्रिय घटित कर सकते हैं।’ मैं यह सब धैर्य से सुनता रहा और अंत में मैंने यह जोड़ा कि ‘आपने यह भी तो सुना होगा कि आदिवासी लोग नरभक्षी भी होते हैं!’ विषेष रूप से अंडमान के आदिवासियों के बारे में नरभक्षण की भ्रांतियां पैदा की जाती रही हैं जबकि वहां का यथार्थ यह रहा है कि वे अपने क्षेत्र में घुसने वाले बाहरी लोगों पर यदा-कदा हमला करते रहे हैं, यहां तक कि एकाध दृष्टांत मारकर जलाने के भी बताए जाते हैं। नरभक्षण का कोई उदाहरण अभी तक हमारे सामने नहीं है। हमला करने, मारने या जलाने की घटनाओं की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी होगा। यह समझ तब होगी जबकि हमें अंडमान में हुई अबेर्दीन की उस लड़ाई का ज्ञान हो जब अंग्रेजी फौजों ने सन् 1859 में अंडमान के आदिवासियों को अपनी आजादी की लड़ाई लड़ते हुए गोलियों से करीब ढाई हजार की संख्या में भूना था। तभी से अंडमान के आदिवासी बाहर के लोगों से घोर घृणा करते रहे हैं।
तो विमर्ष के दौरान छात्रों द्वारा मुझे वो बताया गया जो उन्होंने अब तक सुन रखा था और जो सही नहीं था। जब आदिवासी समाज के बारे में इस तरह की भ्रांतियां फैली हुई हंै तो आदिवासी साहित्य को समझने का सवाल उठेगा।
31,षिवषक्तिनगर, किंग्सरोड़,
अजमेर हाई-वे, जयपुर-302019
ई-मेल ीतउइउे/लंीववण्बवण्पद
मो0 094141 24101
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