आदिवासी संस्कृति को समझने के लिए ‘प्रकृति’ व ‘संस्कृति’ के अन्तर व सम्बन्धों पर विचार करते हुए बात की शुरुआत की जा सकती है। प्रकृति दृश्यमान खगोलीय व भौगोलिक तत्त्वों की सृष्टि है जो नैसर्गिक है। इसका स्वरूप मौलिक भी है और परिवर्तनशील भी। सुविधा के लिए कहा जा सकता है कि यह प्राणी जगत से पृथक परिवेश है जिसमें प्रकृति के जड़ व चेतन दोनों तत्त्वों का अस्तित्त्व होता है। मानवेतर प्राणियों की संस्कृति को वृत्ति मूलक व्यवहार कहना उचित होगा जिसमें परिवेश विशेष व प्रशिक्षण से ही परिवर्तन संभव हो सकता है। इस सबसे परे संस्कृति का सीधा सम्बन्ध मानव समाज से है जिसकी निर्मिति और विकास अर्जित संस्कारों पर निर्भर होता है। ये संस्कार वंशानुगत, सामाजिक व विभिन्न मानव-समुदायों के परस्पर सम्पर्क से पैदा होते हैं। सकारात्मक अर्थ में संस्कृति के प्रमुख तत्त्व सौन्दर्य बोध व तज्जन्य आनंद और कल्याण की कला है। इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कलाभिव्यक्तियों व लोकाचार के स्तर पर होती है। सभ्यता व भौतिक विकास के अनुरूप संस्कृति अपना स्वरूप ग्रहण करती चलती है। इस रूप में संस्कृति मानव निर्मित होती है लेकिन मनुष्य का जीवन अंततः प्रकृति पर निर्भर होता है इसलिए प्रकृति तत्त्वों से संस्कृति का जुड़ाव अनिवार्य होना चाहिए। प्रकृति से लगाव और मानव सृजित होने की स्थिति के कारण संस्कृति का स्थान प्रकृति एवं कृत्रिमता के मध्य कहीं होता है। जिन मानव-समुदायों की संस्कृति प्रकृति से निकट का सम्बन्ध बनाकर विकसित होती हैं वे अधिक सौन्दर्यबोधी, आनन्ददायक व कल्याणकारी होती है और जो संस्कृति प्रकृति से दूर हटती जाती हैं वे शास्त्रीय, वैयाकरणीय, औपचारिक, प्रतिमान आधारित, सजावटी तथा नीरस बनती चली जाती हैं। लोक व भद्र समाज की संस्कृतियों का अंतर यहाँ स्पष्ट होने लगता है। निस्संदेह, लोक संस्कृति आदिम समुदायों की संस्कृति पर मूलतः आधारित रहती आयी है। इस पृष्ठभूमि में आदिवासी संस्कृति को ठीक प्रकार से समझा जा सकता है।
विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर सम्पर्क से पैदा होने वाला प्रभाव आदान-प्रदान की स्थिति लाता है। इस प्रक्रिया में एक-दूजे द्वारा सीखने का नजरिया संस्कृति को उन्नत करता है। इसके विपरीत वर्चस्व, दबाव व टकराव की स्थितियाँ पैदा होने से संस्कृतिजन्य परम्परागत मानवीय मूल्यों का क्षरण ही होगा। यह प्रवृत्ति आदिम व तथाकथित मुख्यधारा की संस्कृतियों के मध्य होने वाले अंतक्र्रियात्मक सम्बन्धों में देखी जा सकती है।
मानसेंदू कुण्डु ने अपने एक लेख में बताया है कि मध्य भारत के गोंड लोगों के कुछ परिवारों ने स्थानीय हिन्दू धर्म के प्रभाव स्वरूप समाज सुधार (?) आन्दोलन की शुरुआत की जिसमें स्त्री-पुरुषों द्वारा एक साथ मद्यपान व नृत्य आदि करने पर रोक लगायी। इससे पुरुष व स्त्रियों की सामूहिकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा। महिलाएँ पर्दानशीन हुई, बच्चों का विवाह बाल्यावस्था में किया जाने लगा व मूल धारा के हिन्दुओं को ‘माॅडल’ माना जाने लगा और वे आदिवासी जन हीन भावना से ग्रसित होने लगे। उन तथाकथित समाज सुधारकों की धारणा थी कि इससे गोंड समाज हिन्दुओं द्वारा सम्मान पा सकेगा जो सर्वथा गलत साबित हुआ। कुण्डु का ही विचार है कि चाहे ईसाई या हिन्दू या मुसलमान बनाये जायें, धर्मान्तरण की वजह से अखण्डता एवं सामूहिकता की भावना पर आधारित आदिवासी बस्ती में फूट पैदा होने लग गयी। उस बस्ती के लोगों का एक सा धर्म-विश्वास व सामाजिक सांस्कृतिक चेतना हुआ करती थी उसे नष्ट किया। अब उस बस्ती में एक मोहल्ला परंपरा पर आधारित आदिवासियों का और दूसरा धर्मान्तरित आदिवासियों का बन गया।
ब्रिटेन के प्रसिद्ध नृतत्व-वैज्ञानिक वेरियर एल्विन (जिन्होंने बाद में भारतीय नागरिकता ग्रहण कर ली थी) बताते हैं कि ‘मिशनरियों की आदिवासियों के प्रति असहिष्णुता की वजह से बहुत सारे अच्छे सामाजिक रीति-रिवाज तो खत्म हुए ही, यहाँ तक कि नृत्य, गीत तथा ताँत बुनायी जैसे उन्नत सांस्कृतिक-आर्थिक क्रिया कलाप भी ध्वस्त हो गये।’
वन संरक्षण अधिनियम के तहत मध्यप्रदेश के एक वनांचल को संरक्षित क्षेत्र घोषित करके किसी भी प्रकार के पेड़ या अन्य वनस्पति को काटने पर रोक लगायी गयी। वहाँ के आदिवासियों ने यह तर्क देकर सीमित विरोध जताया कि उस जंगल में पैदा होने वाली ‘महाल’ नाम की बेल, जिससे वे लोग रस्सी बनाकर जीवनयापन करते हैं, यदि उसे समय-समय पर नहीं काटा गया तो उनकी आर्थिक दशा पर तो विपरीत प्रभाव पड़ेगा ही, साथ ही अन्य पेड़-पौधों को भी नुकसान होगा, चूँकि महाल अधिक फैल जाने से अन्य पेड़-पौधों को जकड़ लेती है जिससे उनकी वृद्धि रुक जाती है। जंगली पेड़-पौधों के संरक्षण-सम्वर्द्धन के लिए अनिवार्य है कि कुछ अवधि के अंतराल से महाल की कटाई की जाये। यहाँ महत्वपूर्ण है कि एक ओर आदिवासियों की आजीविका की तो परवाह नहीं की, साथ ही जंगल सम्बन्धी उनके पुश्तैनी ज्ञान से जितना लाभान्वित हुआ जा सकता था, उसे भी दरकिनार किया गया।
ध्यान देने की बात यह है कि अनुभवजन्य ज्ञान की तुलना में आधुनिक वन-विशेषज्ञों का बोध अपूर्ण है। आदिवासी संस्कृति एवं अनुभव-दृष्टि के बारे में जानकारी का ऐसा अभाव सरकारी नीतियों में रहने वाली खामियों को भी दर्शाता है।
यहाँ प्रख्यात विद्वान निर्मल कुमार बोस की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना समीचीन होगा - ‘‘औद्योगिक समाज की सभ्यताओं को समझना आसान है, उसकी तुलना में उसके पूर्व की सभ्यताओं को समझना अत्यन्त कठिन है। इन प्राक्-आधुनिक सभ्यताओं को समझना आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे सोच में लगे विद्वानों के बस की बात नहीं। यह उनका काम है जो स्वतन्त्र चिन्तन के साथ-साथ फील्ड वर्क के अथक परिश्रम और धरातली लोगों के जीवन के निरन्तर निरीक्षण को अपने सम्पूर्ण जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।’’
मध्यप्रदेश के झाबुआ और राजस्थान के उदयपुर-पाली अरावली पर्वतांचल के क्रमशः मामाभील व गरासियों में एक परम्परा है जिसे ‘भगोरिया’ कहते हैं। पारम्परिक मेलों के अवसर पर जो आदिवासी इकट्ठा होते हैं, उनमें अविवाहित युवक-युवतियों की संख्या काफी होती है। मेले के उत्सव-उमंग, नाच-गान व मौज-मस्ती में वे उल्लास के साथ भाग लेते हैं। इस दौरान जान-पहचान व दोस्ती होती है। विपरीत लिंगाकर्षण से उत्पन्न स्वाभाविक प्रीति भी पनपती है। जो युगल शादी करने का मानस बना लेते हैं वे मेला स्थल से भाग कर ऊँची पहाड़ियों पर चढ़ जाते हैं और वहाँ से अपने ‘एक हो जाने‘ का एलान करते हैं। सम्बन्धित युवक-युवतियों के परिवार व सम्बन्धियों में बुजुर्ग लोगों को यह पता चलता है तो वे गोत आदि व पृष्ठभूमि की कोई वैमनस्यता की बाधा न होने पर शादी की स्वीकृति दे देते हैं तो वे युगल वापस मेले में आ जाते हैं और वहीं सगाई की रस्म निभा दी जाती है। यदि बुजुर्ग किसी कारणवश शादी से इन्कार कर देते हैं तो वे युवक-युवतियों के जोड़े दूर भाग जाते हैं और ब्याह रचाकर घर बसा लेते हैं। दोनों की स्थितियों में मेला स्थल से भाग जाने की वजह से इस परम्परा को ‘भगोरिया’ नाम दिया गया है।
छत्तीसगढ़ के मुड़िया और झारखण्ड के मुण्डा व अन्य आदिवासियों में ‘घोटुल’ की प्रथा को बाकायदा परम्परागत मान्यता दी हुई है। ‘घोटुल’ अर्थात् सामूहिक वास-स्थल। प्रथा का लक्ष्य सामूहिक जीवन शैली के संस्कार विकसित करना रहा है। इस बहुआयामी गतिविधि का एक पक्ष यह भी है कि स्थानीय आदिवासी युवक युवतियाँ अपनी मनपसंद और सहमति के आधार पर ‘घोटुल’ में यौन-सम्बन्ध बनाते हैं और इसके बाद मनपसंद जोड़े बनाकर शादी के लिए सहमति देते हैं जिसे अन्यथा कोई कारण सामने न आये तो समाज स्वीकार करता है।
मनपसन्दगी से प्रेम और विवाह की ‘भगोरिया‘ व ‘घोटुल‘ जैसी परम्पराएँ उदात्त सांस्कृतिक जीवन के उदाहरण हैं जिन्हें तथाकथित सभ्य समाज उल्टे नजरिये से देखता है। उस तथाकथित सभ्य समाज के भीतर कितनी यौन विकृतियाँ एवं अपराध पनपते हैं, यह नहीं देखा जाता। यही वजह है कि मुख्य धारा के समाज में पैदा हुए नारी मुक्ति आंदोलन स्वतन्त्रता के नाम पर उच्छृंखलता पैदा करते हैं जबकि आदिवासी परम्परा में स्त्री को सकारात्मक स्वतन्त्रता भोगने का अवसर मिलता है और स्त्री व पुरुष के मध्य असमानता की भावना नहीं दिखती।
जिन लोगों को ’भगोरिया’ एवं ’घोटुल’ जैसी आदिवासी प्रथाओं का बोध नहीं वे इन प्रथाओं को अपनी संकुचित मानसिकता से देखते हैं। ‘भगोरिया‘ को संस्थागत समाज के नियमों के विरूद्ध मानेंगे। मुख्य धारा से जुड़ी लड़की के घरवाले लड़के के विरूद्ध अपहरण का मुकद्मा दर्ज कराकर लड़की की बरामदगी के लिए पुलिस पर दबाव डालेंगंे चाहे लड़की बालिग ही हो और अपनी सहमति से गयी हो। आदिवासी समाज विवाह की स्वीकृति देगा, यदि उनकी परम्परा के हिसाब से अन्यथा कोई कारण अड़चन के रूप में सामने न आयंे। यहाँ जवान लड़की की इच्छा भी उतना ही सम्मान पाती है जितनी लड़के की इच्छा। ’घोटुल’ को तथाकथित मुख्य धारा का आदमी सामूहिक व्यभिचार के रूप मेें ’अनैतिकता’ की संज्ञा देगा। उसके समाज में व्यभिचार पनप रहा हो, उस पर खुलकर चर्चा नहीं करना चाहेगा। प्रश्न उठता है कि ’घोटुल’ कहंा तक अनैतिक एवं समाज विरोधी कृत्य है ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए इस परम्परा की गहराई में जाने की आवश्यकता है।
यहाँ मुझे यूनान के महान् दार्शनिक प्लेटो के दर्शन की वह व्यवस्था याद आ रही है जब वे आदर्श शासन व्यवस्था संचालित करने के लिए ’दार्शनिक राजा’ की अवधारण पर चर्चा करते हंै और साथ ही उसके शासक वर्ग की जिसमें प्रत्येक विभाग के दायित्व को संभालने के लिए हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर एवं क्षमतावान कर्मियों का समूह हो। ऐसा समूह कैसे पैदा किया जाये ? यह प्लेटो की समस्या थी। उसने समाधान खोजा। नगर-राज्य (बपजल ेजंजम) में उपलब्ध स्वस्थ एवं सुन्दर युवक-युवतियों का चयन किया जाये और उन्हें नियत सामूहिक आवास (घोटुल जैसे) में रहने दें। खूब खिलाया-पिलाया जाय। खेल-कूद व अन्य शारीरिक अभ्यास कराया जाये और मुक्त यौन सम्बंध स्थापित करने की छूट दी जाये। प्लेटोे का समाधान था युवतियाँ गर्भवती हों और यह न जान सकें कि किस युवक का बच्चा किस युवती की कोख में पनप रहा है। प्रसवोपरांत शिशुओं का लालन-पालन भी सामूहिक हो। मां भी अपने बालक की पहचान न कर सके। प्लेटो को आशा थी कि ऐसा करने से एक तो श्रेष्ठ शरीर एवं मस्तिष्क वाले व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें बाल्यावस्था से ही शासन संचालन एवं युद्व-कौशल की शिक्षा दी जायेगी ताकि उनकी मनसा के मुताबिक शासन एवं सेना के नायक उपलब्ध हो सकें। दूसरे, यह विशिष्ट व्यक्ति-समूह वंश के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा चूँकि वे तो मां बाप को भी नहीं जानते -पहचानते, वंश-कुल की बात तो दूर। यह अवधारणा प्लेटो के ’आदिम साम्यवाद’ का हिस्सा थी। ’अच्छे आदमी की खोज’ प्लेटो की मूल समस्या थी। ’नगर-राज्य’ व्यवस्था का आदर्श संचालन उनका एक मात्र लक्ष्य था।
उक्तानुसार समाधान भी प्लेटो ने जटिल ही ढूँढा। साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति के गले यह समाधान आसानी से नहीं उतरता। इसलिए व्यंगात्मक लहजे में प्लेटो को ’अफलातून’ की संज्ञा दी जाती है।
अब आदिवासी ’भगोरिया’ व ’घोटुल’ पर आ जाइये । प्लेटो के यहाँ श्रेष्ठ संतानेात्पत्ति की बात दर्शन में थी जहाँ निश्चित रूप से संतानोत्पत्ति केन्द्र में थी। ‘भगोरिया‘ व ‘घोटुल‘ में यौन सम्बन्ध बाद की बात है। पहले मिलन, परिचय, प्रेम हैं। परस्पर समझना महत्वपूर्ण है। आशय यह है कि परस्पर समझ के आधार पर जीवन भर साथ निभाने की संभावनाएँ कहँा तक बनती हैं। इसलिए साथ रहने या रखे जाने की सुविधा प्रदान करने की प्रथा को सामाजिक स्वीकृति दी गयी। प्रेम-सम्बन्धों की परिणति प्रायः यौन-सम्बन्धों में होती रही है। आरम्भ यौनाचार न हो कर परिचय, समझ और प्रेम होने तक की प्रक्रिया है जो किस मिलन-क्षण पैदा हुई, वह सम्बन्धित युवक-युवती ही जान सकते हैं या कोई उनके पीछे लगा चितेरा। ‘भगोरिया‘ एवं ‘घोटुल‘ की सुविधाजनक प्रथा थी। प्रथानुकूल सुविधा से उत्पन्न वैवाहिक जीवन भी आदिवासियों में स्थायी नहीं अगर बात नहीं बनीं। जीवन-पथ के किसी मोड़ पर अनबन हो गयी और किसी कारण-वश साथ रहना संभव नहीं, तो सम्बन्ध विच्छेद होने का विकल्प है जिसकी एक व्यवस्था है। स्त्री स्वेच्छा से अन्य पुरूष का वरण कर सकती है। आदिवासी संस्कृति के इस पक्ष को सही रूप में देखा परखा जाये और अंगीकार किया जाये तो शेष समाज में व्याप्त अन्य किस्म की पारिवारिक-सामाजिक विकृतियों से बचा जा सकता है । आदिवासी समाज की तुलना मंें नारी उत्पीड़न की दर्ज या गैर-दर्ज घटनाओं की संख्या तथाकथित मुख्य धारा के समाज में कई गुणा हैं। इस विषय पर गम्भीरता से सोचा जाना चाहिए।
मुझे क्रोधाविष्ट हँसी की प्रतिक्रिया हुई जब मैंने एक जगह पढ़ा कि शराब पीकर जब आदिवासी पुरूष अपनी औरत को पीटता है तो वह औरत आनन्द की अनुभूति करती है। प्रताड़ना आनन्द का स्रोत किसी भी प्राणी के लिए नहीं हो सकता। यह उस लेखक की अज्ञानता और विकृत मानसिकता से उत्पन्न कल्पना थी। हकीकत तो यह है कि आदिवासी स्त्री पर उसका पति हाथ उठायेगा तो वह भी ईंट का जवाब पत्थर से देती है। यूँ अपवादों की हकीकत से सहमत हुआ जा सकता है।
आदिवासी समाज मंे संस्कृति एक सहज व सतत प्रवाहित धारा है, किसी आंदोलन या अभियान का विषय नहीं। डा. श्याम सुंदर दुबे के ये शब्द मुझे सटीक लगते हैं - ‘‘आदिवासी (सांस्कृतिक) परंपरा सतत विकसित मूल्य बोध है। पीढ़ी दर पीढ़ी इसमें कुछ नया जुड़ता रहता है।’’
आदिवासी सतत सांस्कृतिक परंपरा में ‘नया जुड़ना’ एक सहज प्रक्रिया है। आदिवासी लोक गीत परंपरा में विषय-वस्तु ;बवदजमदजद्ध के स्तर पर वनोपज, कृषि-कर्म, श्रम, पालतू पशु-पक्षी, पर्व-उत्सव, शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु, पनघट, घरेलू औजार-पाती, पुरखे, मिथक, गणचिन्ह, प्रकृति, ऋतुएँ, मानवतेर अन्य प्राणी-जगत, प्रेम-प्रसंग, आत्म सम्मान के लिए विरोध-संघर्ष-बलिदान आदि तो रहते आये ही हैं, जमाने के बदलाव के साथ नयी बातें भी जुड़ती गयीं। आजादी के बाद प्रजातान्त्रिक व्यवस्था लागू हुई। वोट देना नयी बात आयी जो पहले नहीं थी। मीणा आदिवासी समाज की स्त्रियों ने इसे गीत में शामिल निम्न प्रकार किया -
‘‘वोट देवा चालेंगा
जोड़ा सू जूती खोलेंगा......’’
शिक्षा का प्रसार हुआ। जैसा पहले संदर्भ दिया कि हिन्दुत्व के प्रभाव से बाल-विवाह जैसी बुराइयों ने जन्म लिया। मीणा लड़की का बाल विवाह हो जाता है। पति पढ़ रहा है। अभी साथ रहने का समय नहीं है। लड़की भी पढ़ना चाहती है। साथ रहने का भाव प्रबल है। लोकगीत रचा जाता है -
‘‘नयो बण्यो इस्कूल जे को सीदो रसतो(रास्ता)
पढबा में भी चालूँ सायब थारो लेऽऽ बसतो(स्कूल बैग)......’’
अब गीतों में ट्रेक्टर, कूलर, टी.वी., मारुति कार, मोबाइल भी आने लगे हैं। कम्प्यूटर भी आयेगा। ग्लोबलाइजेशन के बारे में जितनी सतही जानकारी आदिवासियों को मिलेगी, वे अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में उसे शामिल करते रहेंगे, लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि ग्लोबलाइजेशन के लाभ (अगर आमजन के लिए हैं तो) उनके जीवन का हिस्सा कब बनेंगे ?
परम्परागत आदिवासी संस्कृति के संरक्षण का प्रश्न उठाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि प्रगति व विकास की धारा में मौलिक संस्कृति में परिवर्तन होना अनिवार्य है। लोग यह भी कहते हैं कि मौलिकता को बचानेे के चक्कर में विकास अवरुद्ध होता है। यहाँ ये सारी बातें अहम् नहीं। अहम् मुद्दा मौलिक संस्कृति के संरक्षण का नहीं। ऐसा सोचना जड़ता का आभास देता है। आदिवासी जीवन दर्शन में निरन्तरता एवं गत्यात्मकता ;कलदंउपेउद्ध रही है। यही वजह है कि इस संस्कृति के शास्त्रीय प्रतिमान नहीं बनाये जा सकते। परम्परा की धारा में कौन, क्या जोड़ता जा रहा है, यह अज्ञात रहता है। सृजनकर्ता पहचान के पीछे नहीं भागता। रचना सामूहिकता में रम जाती है। व्यक्तिवाद को यहाँ स्थान नहीं। शास्त्रीय प्रतिमानों की स्थापनाएँ प्रवहमान परम्परा की यात्रा में स्थगन पैदा करती हैं। आदिवासी संस्कृति इतनी खुली रही है कि विकास के सुखदायक पहलुओं को आत्मसात् करती हुई समृद्ध होती जायेगी। इसलिए विकास के साथ इसका विरोध हो ही नहीं सकता। प्रश्न यह है कि विकास का माॅडल कैसा हो जो आदिवासी संस्कृति से तालमेल बिठाता अग्रसर होे?
शिक्षा को लेकर अत्यल्प बात की जा सकती है चूंकि शिक्षा संस्कृति का सृजन उत्प्रेरक भी है और संवाहक भी। आदिवासी को जब आप हम विकास की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करंेगे तो सांस्कृतिक संतरण की लहरों पर से गुजरना होगा। इस स्थिति के बावजूद संस्कृति का गत्यात्मक अग्रसरण सम्भव है यदि विकसित हो रही आदिवासी पीढी को उसकी मातृभाषा (बोली?) के साथ लेाकप्रिय माध्यम की भाषा में शिक्षित किया जाये। यह लोकप्रिय माध्यम हिन्दी और अन्य तकनीक की दृष्टि से अंग्रेजी (ग्लोबल संदर्भ में) हो सकती है। यहां भाषा का कोई विरोध नहीं। आदिवासी पुश्तैनी ज्ञान एवं संस्कृति से सम्बन्धित जो भी जिस रूप में (लिखित या मौखिक) उपलब्ध है उसे लोकप्रिय माध्यम (भाषेतर मीडिया भी) में अनूदित पुनर्सृजित कर शिक्षा की पाठ्य-वस्तु में शामिल किया जाना चाहिये ताकि आदिवासी गल्प, मुहावरे, उपमाएं, प्रतीक, मिथक, पहेलियां, संकेत, बिम्ब, आस्थाएं, मान्यताएं, स्मृतियां, स्वप्न, आकांक्षाएं, विश्वास- कुल मिलाकर अदृश्य मनोविज्ञान और दृश्य व्यवहार की जानकारी आदिवासी नयी पीढी और साथ ही गैर आदिवासी ग्लोबल जनरेशन को मिल सके। अगर ऐसा होता है तो साइबर एज की डिजीटल शब्द गूंज के साथ आदिवासी संस्कृति के मांदल बांसुरी नाद-सौंदर्य की जुगलबंदी सम्भव हो सकेगी।
धर्म संस्कृति को लेकर एक अन्य संदर्भ। अप्रैल 2003 में आयोजित अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यकारों के सम्मेलन के दौरान रांची में लक्ष्मण गायकवाड़ एवं वाहरू सोनवणे के साथ ऐसे ही मुद्दों पर चर्चा हो रही थी। वाहरू ने एक किस्सा सुनाया। महाराष्ट्र गुजरात सीमा पर स्थानीय आदिवासियों की याहा मोगी देवी का मंदिर है। वहाँ अच्छा खासा वार्षिक मेला लगता है। यह गुजरात दंगों के बाद का समय था । तथाकथित मुख्यधारा से जुड़े धर्म के कुछ ठेकेदार वहां पहंुचे और आदिवासी मुखियाओं के सामने प्रस्ताव रखा कि याहा मोगी जगदंबा माँ का ही रूप है अतः वैदिक पद्धति से इसकी पूजा अर्चना की जावे और पुजारी के रूप में अच्छे पंडित को बिठाया जावे। हम भी जुड़ जावेंगे और भव्य मंदिर बनवायेंगे ताकि देवी की ख्याति दूर-दूर तक पहुंच सके। समझदार आदिवासी मुखियाओं ने जवाब दिया कि जब याहा मोगी जगदंबा का ही रूप है तो बजाय ऐसा करने के भारत के सभी जगदंबा मंदिरों की पूजा पद्धति याहा योगी जैसी आदिवासियों की सी क्यांे न कर दी जावे।
इस परिप्रेक्ष्य में तीन बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। वे हैं देव-देवी, देवालय, और पूजा पद्धति। आदिवासी या तो प्रकृति तत्व के रूप में उनके गणचिन्हों (जवजमउ) की पूजा करते हैं या लोक देवी देवताओं के रूप में उनके महान पुरखों की । ये दोनों आकाशीय एवं अमूत्र्त तत्व न होकर उनके निकटस्थ तत्व रहे हैं। उनके देवालय साधारण से स्थल यथा पहाड़ी चोटी, पेड़ का उभरा हुआ जड़-स्थल या देवला (चबूतरा) होते हैं। और पूजा विधि अत्यंत सरल व सहज। सोलह शृंगारी मूल्यवान प्रतिमाएं, भव्य मंदिर, और जटिल कर्मकांडों को वहां स्थान नहीं। उनके धर्मस्थल व्यावसायिक केन्द्र नहीं बनते। जैसा वे खाते हैं, पीते हैं वैसा ही चढावा देव-देवी के सामने अर्पित किया जाता है। दिखावटीपन कहीं नहीं होता। ऐसा सहज धर्म उनकी संस्कृति को समृद्ध बनाता है। न धर्म उन पर हावी होता है और न वे धर्म के ठेकेदार बनते हैं। यही खास वजह है कि आदिवासी धर्म साम्प्रदायिकता का जहर नहीं फैलाता। ऐसी धार्मिक मान्यताएं यह सीख देती हैं कि जो धर्म उन्माद फैलाकर मनुष्य विरोधी बन जाता है उसे तत्काल त्याग देना चाहिए।
जवाहर लाल नेहरू ने कहा है ‘‘आदिवासियों में मुझे कई ऐसे गुण दिखाई दिये जो भारत के मैदानी इलाकों, शहरों और अन्य भागों में रहने वालों में नहीं हैं। इन्हीं गुणों के कारण मैं आकृष्ट हुआ। आदिवासियों के प्रति हमारा रवैया आदानशील होना चाहिए। इन लोगों में बहुत अनुशासन है और वे भारत में अधिकांश लोगों की तुलना में कहीं अधिक लोकतांत्रिक हैं।‘‘
आदिवासी जन में ऐसे मूल्य कहां से विकसित हुुए ? इस प्रश्न का उत्तर फ्रेेडरिक एंगेल्स ने बहुत पहले यह कह कर दिया था कि ‘‘आदिवासी समाज का वैभव और बंधन इसी बात में था कि उसमें कोई शासक और शासित नहीं था।‘‘ डाॅ0 डी0 पी0 चट्टोपाध्याय ने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लोकायत‘ में स्पष्ट किया है कि ‘‘....गण, प्रांत, संघ, पुग, श्रेणी ये सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय थे। मानव समाज व्यवस्था के संदर्भ में इनसे जिस सामूहिकता का संकेत मिलता है उसका सीधा सा अर्थ था आदिवासी सामूहिकता।‘‘
समानता एवं सामूहिकता के जिन गुणों पर पं नेहरू, एंगेल्स, एवं चट्टोपाध्याय ने जोर दिया, उसी क्रम में श्रम की महत्ता आदिवासी संस्कृति का एक स्तम्भ रहा है। ‘भद्र समाज के पास ये गुण नहीं थे और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करनी थी, इसलिए शारीरिक श्रम की तुलना बुद्धि वैभव से की गई और उसी काल खण्ड (वह आर्य विजेताओं का अनार्य-जन पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का समय था।) में जिस श्रम प्रक्रिया का समायोजन मानव मस्तिष्क ने किया था, उसी को वह दूसरों से करवाना चाहता था और स्वयं उस श्रम से बचना चाहता था। .........परवर्ती काल में भी पातंजली व भट्टोजि जैसे विद्वानों ने अपने आसपास के आदिवासी जीवन को केवल घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से ही देखा।‘ (वही)
इस उत्तर आधुनिक दौर में विकास के जिस भू-मण्डलीकृत माॅडल का जो ढोल पीटा जा रहा है वहां पूंजी केन्द्र में है और पूंजी उग्र व्यक्तिवाद से पनपती है। ऐसा व्यक्तिवाद स्वार्थ केन्द्रित होता है चाहे वह व्यक्ति विशेष हो या बहुराष्ट्रिक कम्पनी। जिस ग्लोबल विलेज की अवधारणा को आदर्श के रूप में हमारे सामने प्रचारित किया जा रहा है वह ऐसा विकसित आदिवासी गांव नहीं होगा जहां जंगल, प्रकृति व मानवेतर प्राणीजगत का सह अस्तित्व एवं भावनात्मक संबंध दिखे। ग्लोबल विलेज अपनी तरह का होगा जिसमें बहुमंजिला इमारतें , अत्याधुनिक संचार सुविधाएं, उच्च तकनीकी, यातायात के साधन, विज्ञापनों से भरे बाजार, शेयर मार्केट की स्क्रीन व केप्शन, नितांत व्यावसायिक मिडिया, अंग्रेजीदां पीढी, मल्टीप्लेक्स सिनेमा, डिस्को-बार और वगैरहा वगैरहा सब कुछ होगा, जिसके माॅडल होंगे पेरिस, न्यूयार्क, टोकियो, सिंगापुर, बैंकाक, मुम्बईं, दिल्ली। ऐसे विलेज से आम आदमी का निष्कासन होगा और प्रवेश वर्जित। आदिवासी तो अछूत ही बन जायेगा।
पूंजी का व्यक्तिवाद के संदर्भ में संम्पत्ति को लेकर यह सर्वमान्य तर्क दिया जाता है कि अमुक सम्पत्ति मेरी इसलिए है कि यह वंशानुगत है या मेरे द्वारा क्रय की हुई या अर्जित (खरीद के अलावा अन्यान्य तरीके भी हैं सम्पत्ति अर्जन के जो सब घोटालों की श्रेणी में आने चाहिए लेकिन नहीं आते) की हुई। आदिवासियों के संदर्भ में यही तर्क क्यों नहीं लागू किया जाता ? क्यों नहीं कहा जाता कि जल, जंगल, जमीन पर उनका पुश्तेैनी और सामूहिक हक रहा है, इसलिए यह सम्पदा उनके खाते में दर्ज की जानी चाहिए । अगर व्यवस्थापकों का ऐसा दृष्टिकोण और योजनाएं और उनके क्रियान्वन का संकल्प हो तो सम्पूर्ण समाज की बस्तियां ऐसी बस्तियां होती जहां समस्त अत्याधुनिक सुविधाआंे के साथ साथ मनुष्य और प्रकृति के समस्त सरोकार सार्थक रुप में अस्तित्व में रहते और सहजता, सततता, गत्यात्मकता, सामूहिकता तथा सर्वहितकारी भाव संरक्षित रहता। किसी भी तरह के भेद भाव विहीन समृद्ध संस्कृति की विकासमयी धरोहर जीवन की भावी यात्रा के लिए ऊर्जा के रुप में हमेें मिलती रहती। यह सब तब संभव है जब बुश व बिल गेट्सों को माॅडल मानने वाले राज नायकांे, तकनीशियनों, समाज अभियंताआंे, प्रबंधकों, की जगह योजनाएं बनाने वाले नायक वैज्ञानिक, इतिहासकार, अर्थशास्त्री, समाज वैज्ञानिक, संस्कृतिकर्मी एवं अन्य बुद्धिजीवी हों जो जानते हों कि मानव समाज की परम्परा का ठोस आधार और लोक-चेतना की नींव आदिवासी जीवन-दर्शन में है जो मूलभूत आदिम (आदमी अर्थात् इन्सान के अर्थ में) सरोकारों से भरपूर है। यहां मुद्दा सार्वभौमिक, सार्वजनिक और सार्वकालिक मूल्यों का है जो आदिवासी संस्कृति के गुण हैं। इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में परिवर्तन अनिवार्य होगा। वह नहीं रूक सकता और उसे रोकना भी नहीं चाहिए । कंटेन्ट भी बदलेगा एवं अभिव्यक्ति के तौर-तरीके भी। संस्कृति केवल अभिव्यक्त होने वाली विधा ही नहीं है, वह जीवन-शैली है और अंततः जीवन-दर्शन। इसलिए ध्यान देना चाहिए कि जब आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की बात चलती है तो आदिवासी संस्कृति को ‘स्थायी म्यूजियम‘ नहीं बनना प्रत्युत उसमें समाहित यूनीवर्सल वेल्यूज को संरक्षित और आत्मसात करना महत्वपूर्ण है।
भौतिक समृद्धि सर्वजनहितायः और सार्थक तभी सम्भव हो सकती है जब संवेदनशील और मूल्याधारित संस्कृति के ढांचे पर खड़ी हो। बेहद परिश्रम और गहन विचार मंथन के बाद निर्मित भारतीय संविधान की दृष्टि से देखा जाये तो भारतीय समाज का एक शानदार और जानदार चित्रण हमें मिलता है। आरक्षण के प्रावधानों पर चर्चा के बाद संविधान निर्माताओं के मध्य जो सहमति बनी थी और जिसे अंतिम रूप दिया गया, तब परम्परागत रूप से वर्चस्वकारी, सुविधाभोगी, एवं भौतिक दृष्टि से समृद्ध वर्ग को अलग माना गया। इसमें से जो सामाजिक तबके पिछड़ेपन के शिकार रहे उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग मानकर आरक्षण की सीमित (आर्थिक स्तर पर) सुविधाओं की खिड़कियां खुली छोड़ी गयी जिनकी क्रियान्विति मंडल आयोग के बाद हुई। इन दोनों श्रेणियों को क्लास (वर्ग) की संज्ञा दी गई। सामाजिक आर्थिक स्तर पर निम्न स्तर का जीवन जीने को बाध्य की जाती रही जातियों को अनुसूचित जाति (बंेजम) की अवधारणा के रूप में चिन्हित किया गया। आदिवासी केवल आदिवासी ;जतपइमद्ध रहा। क्षमा करें, ट्राइब का हिन्दी अनुवाद ‘जनजाति’ गलत है चूंकि आदिवासी समाज में जाति की कोई अवधारणा नहीं रही। आदिवासियों के भिन्न-भिन्न नाम या संज्ञाएं उनके अंचल, गणचिन्ह, गोत्र, वंश, प्रजाति आदि पर आधारित रहे हैं। यह एक मात्र समाज है जो वर्ग व जाति की अवधारणा को अपने यहाँ स्थान नहीं देता। अगर वर्ग व जातिविहीन समाज के इस उपलब्ध सूत्र को पहचान कर अंगीकार कर लिया जाता है तो राष्ट्रीय एकीकरण और तनावविहीन समाज के लिए इस से बढिया कोई विकल्प आज हमारे सामने नहीं है। इसलिए सामूहिकता और सह-अस्तित्व आदिवासी संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। इस पक्ष का एक अन्य उपांग है। वह यह कि धर्म के नाम पर आदिवासी समाज में किसी प्रकार के समुदाय का नहीं होना। आतंकवाद देश की अखण्डता के लिए सबसे बड़ा खतरा एवं चुनौती है। आतंकवाद जिस जमीन पर पैदा होता है, भारतीय संन्दर्भ में वह जमीन जाति, वर्ग और सम्प्रदाय की है। आतंकवाद के जनक इन तीनों कारकों को नष्ट करने के लिए आदिवासी संस्कृति की उपरोक्त विशिष्टता को सार्वजनिक स्तर पर अंगीकार किया जाना आज नितांत अनिवार्य है।
आज भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व के सामने दूसरी बड़ी समस्या है तो वह है पर्यावरण संतुलन की। भारतीय संस्कृति ही क्या, विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में पर्यावरण संतुलन के सूत्र खोजे जा सकते हैं । ऐसे सूत्रांे के होने का आधारभूत कारण उन संस्कृतियों के आदिम सरोकार है जो आदिवासियों का प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण का ही प्रमाण हैं। देखने वाली बात यह है कि ऐसी संस्कृतियों को महान और गौरवशाली मानने वालों के मन में पर्यावरण संतुलन के प्रति चेतना कितनी है। अगर वह अपेक्षित स्तरीय होती तो हमें इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता। आदिवासी समाज में आज भी वह चेतना जीवित है। भारतीय संदर्भ में, भौतिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़़े और आदिम शैली का जीवन जीने वाले अण्डमान के आदिवासियों का दृष्टांत हम देख सकते हैं। जारवा और सेंटेनली जैसी दो प्रजातियाँ हैं वहाँै। अलग-थलग जंगलों में रहते हैं इन प्रजातियों के लोग। गैर आदिवासियों को वे शत्रु मानते है चूँकि उन्होेंने बहुत सताया इतिहास में इन आदिवासियों को । सन् 1859 की अबेर्दीन की लड़ाई ताजा ऐतिहासिक वास्तविकता है। वे आदिवासी अभी भी पका हुआ खाना नहीं खाते, कपड़े नहीं पहनते, कृषि या बागवानी या कोई और कुटीर उद्योग-उत्पादन नहीं करते, झांेपड़ी नहीं बनाते, सम्पत्ति की अवधारणा से कोसों दूर हैं। लेकिन जो बहुतायत में प्रकृति से उपलब्ध है उसे इस्तेमाल करते हैं और जो कमतर हो उसका संरक्षण । उदाहरणार्थ, हिरण कम हंै। उनमें मृतक बुजुर्गों की आत्मा का वास मानते हंै। सुअर अधिक हैं। उन्हें खाते हैं। हरियल (हरा कबूतर) कम हैं। उनमें पैदा होने वाले शिशुओं की आत्मा का वास मानते हैं । इसलिए पवित्र दृष्टि से देखते हंै। तीतर -बटेर खूब हैं। उनका शिकार करते हंै। नीले रंग की स्टार फिश विरली हैं। उनमें आदि मां परी का रूप देखते हैं। एक प्रकार से पूजनीय मानते हैं उन्हें । अन्य रंग (भूरे, मटमैले) की स्टार फिश उनका भोजन है। जब सूनामी आया था तो चैबीस घण्टा पहले समुद्र के भीतर की हलचल को भाँप कर पहाड़ियों पर चढ़ गये थे वे आदिवासी और अंडमानी टापुओं में मृतकों की संख्या कम थी। निकोबार में जरूर बहुतायत में लोग मरे थे। वजह थी पहाड़ियों की ऊँचाई कम होना। प्रकृति के संकेतों का पूर्वाभास उन आदिवासियों को हो जाता है। प्रकृति के सगे हैं वे। इसलिए पर्यावरणीय चेतना उनके भीतर है। यह भी आदिवासी समाज से सीखा जा सकता है। और भी बहुतेरी विशेषताएं हंै उस संस्कृति में मगर कोई अध्ययन तो करे।
प्रगतिशील विकास की प्रक्रिया के साथ आदिवासी शेष समाज के सम्पर्क में आयेगा। उसका कुछ अपना छूटेगा कुछ नया आत्मसात होगा। सांस्कृतिक यात्रा में अन्तक्र्रियात्मकता एवं परस्पर प्रभाव एक स्वाभाविक परिघटना है। दिशा अगर सकारात्मक है तो यह आदान-प्रदान सुखद होगा अन्यथा अपसंस्कृति का जनक। यहां सतर्कता व सावधानी काम नहीं आती, मूल्य बोध महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। मूल्य बोध से तात्पर्य - बौद्धिक सजगता नहीं, प्रत्युत वातावरण व मनोदशा से है जहां संस्कृति की सुखद और स्वतः स्फूर्त मौलिकता बची रह सके। इस वैचारिक विश्लेषण को वास्तविक दृष्टांतों से समझा जा सकता है।
संस्कृति की आकर्षक एवं मनोरंजक अभिव्यक्ति गीत, नृत्यांे और अन्य कला-कृतियों में देखी जा सकती है। राजस्थान- गुजरात के ‘गवरी‘ व ‘गेर‘ जैसे आदिवासी संगीत नृत्यों का उदाहरण लें। इस विधा के रूपों की एक अभिव्यक्ति परंपरागत है जहां प्रकृति के खुले आंगन और नियत पर्वावधियों में ये नृत्य होते रहे हैं। प्रस्तुति स्वतःस्फूर्त मिलेगी। उत्साह- उमंग- उल्लास सहज भावाभिव्यक्ति के रूप में कलाकारों और दर्शकों को बांधने में सफल होगा। दूसरी प्रस्तुति प्रायोजित हो सकती है। हेरीटेज होटलों और सरकारी व गैर-सरकारी पर्यटन, मेला-उत्सवों में ऐसे आयोजन किये जाते हैं तब परायों के सामने उनका मनोरंजन एकमात्र लक्ष्य होता है ताकि आयोजन का व्यावसायीकरण किया जाकर आमदनी की जा सके। भव्य व्यवस्थाओं और मजेदार खान-पान के बीच होने वाले ऐसे आयोजनों में कलाकार सजगता, बन्धन और दबाव के बीच अपनी कला के प्रदर्शन के लिए या दो पैसा कमाने की जुगाड़ की विवशता की मानसिकता में होगा। वह अपनी कला का सफल प्रदर्शन करने का प्रयास करेगा लेकिन कृत्रिम और पराये माहौल में वह भीतर से पूरी तरह स्वयं को अभिव्यक्त करने की स्थिति में हो ही नहीं सकता। कला की अभिव्यक्ति उसके जीवन का हिस्सा नहीं रह कर अन्य के मनोरंजन के लिए प्रस्तुत की जा रही है। स्वार्जित कला की अभिव्यक्ति और अन्य हेतु उसकी प्रस्तुति में बहुत अंतर होगा। प्रस्तुति पराये दर्शकों के लिए विलक्षण, अचरजभरी व मनोरंजक हो सकती है लेकिन वे दर्शक कलाकार के अपने लोग नहीं और न ही वातावरण व परिवेश उसका अपना। जब तक वह अपनी धरती, परिवेश, वातावरण, मनोदशा और अपने जैसे लोगों के बीच महसूस नहीं करेगा तब तक खुलकर अपनी कलाभिव्यक्ति कर पाने की स्थिति में नहीं होगा। हमें यह समझना चाहिए कि कलाकार भोग, उपभोग का सामान न होकर गरिमामय मनुष्य होता है। आयोजन के दौरान मजे लेना और मनोरंजित होना अलग बात है तथा भाव-विभोर होकर एकमेक हो जाना सर्वथा पृथक। इस विमर्श से आदिवासी संस्कृति के भद्रीकरण की विरूपित स्थिति स्पष्ट होती है।
यहां विरोध सांस्कृतिक आयोजन स्थलों का भी नहीं, विरोध है नजरिये का। सांस्कृतिक प्रस्तुतियों को वैभव व विलास की दृष्टि से नहीं देखकर सांस्कृतिक मूल्यों (जिनकी चर्चा पहले की गई) के सम्मान और आत्मसात करने के दृष्टिकोण और ध्येय को ध्यान में रखकर देखना चाहिए तभी ऐसी संस्कृति मानव-चित्त में रमेगी व बसेगी और संरक्षित रहेगी। ध्यातव्य यह है कि सांस्कृतिक आयोजन सांस्कृृतिक मूल्यों के संवाही होते हैं। अगर सांस्कृतिक मूल्य जीवन का आधार, प्रेरणा, व उर्जा नहीं बनते तो आयोजनों की कोई उपयोगिता नहीं। सांस्कृतिक कार्यक्रम मात्र मनोरंजन के ‘एपीसोड‘ नहीं बल्कि सार्थक जीवन-यात्रा के छोेटे-छोटे पडा़व हैं- सतत अग्रगामी प्रवाह के परस्पर जुडे़ हुए अंश।
जिन मानव-समुदायों का लम्बा अतीत होता है उनकी स्वतंत्र संस्कृतियां होती हैं। ये सभी संस्कृतियां मिलकर किसी राष्ट्र या बड़े समाज की समग्र संस्कृति बनाती हैं। किसी संस्कृति को आदर्श ढांचे के रूप में स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। आदर्श ढांचों का दावा मूल्यपरक (सापेक्ष) होता है वस्तुनिष्ठ (निरपेक्ष) कभी नहीं। इसलिए किसी संस्कृति को ‘माॅडल‘ मान लेना तर्क की विसंगति कहा जायेगा। आदिवासियों के संदर्भ में जब वे किसी बाहरी संस्कृति को माॅडल मानकर चलंेगे तो हीनभावना की मनःस्थिति स्वतः ही पैदा होगी चूंकि तब वे किसी अन्य के पिछलग्गू बन रहे होते हैं। ऐसा करना या होना उनकी मानव गरिमा को ठेस पहुंचायेगा। अगर यह प्रक्रिया गरिमा-केन्द्रित है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। विकास की धारा से जुड़ने की स्थिति में सांस्कृतिक परिवर्तन अनिवार्य होगा। कुछ छूटेगा और कुछ कमोबेश जुड़ेगा।
सहज, परंपरागत और वंशानुगत प्रजातीय वृत्ति ;तमबपंस पदेजपदबजद्ध से निर्मित संस्कृति चाहे कितनी भी गत्यात्मक हो उसकी अपनी सीमाएं होती हैं। ये सीमाएं समाज (वृहत्तर अर्थ में) और भौगोलिकता दोनों स्तर की होती हैं। संस्कृति के स्तर पर आदिवासी कितने भी गहरे हों, क्षितिजीय विस्तार का अभाव रहेगा। जैसे उनके निजी परिवेश के जल, जंगल, जमीन व जानवरों के स्वभाव की जानकारी उन्हें गहन हो सकती है, लेकिन बाहर देश दुनिया में क्या कुछ हो रहा है, इससे वे अनभिज्ञ रहेंगे। विवेक ;पदजमससमबजद्ध मनुष्य को आगे ले जाता है। विवेक जिज्ञासा का जनक भी है और परिणाम भी। नन्हें शिशु से बालक बनने की प्रक्रिया पर जरा विचार करें। मां की छाती से चिपका शिशु पालने पर लेटता है। फिर वह अपने पैरों पर खड़ा होकर लड़खड़ाता चलता है। इसके बाद जैसे ही वह घर के बाहर का दृश्य देखता है तो बार-बार जिद करता है कि कोई उसे बाहर गलियों या सड़कों पर घुमाये। वह आनन्दित तो होता ही है, बार-बार नयी चीज या दृश्य के बारे में जिज्ञासा पूर्वक पूछता है। यह प्रक्रिया है ज्ञानार्जन की । मानव विवेक ;ीनउंद पदजमससमबजद्ध के माध्यम से ज्ञान ;ादवूसमकहमद्ध प्राप्त करने की जिज्ञासा। ज्ञान ही मनुष्य को स्वभावगत या थोपी गयी सीमाओं से मुक्ति दिलाता है और ऐसी ही मुक्ति मनुष्य को गरिमामय बनाती है। मनुष्य को गरिमा और मुक्ति चाहिए अर्थात् गरिमामय स्वतंत्रता, जो दूसरे की गरिमा की भी रक्षा करे।
मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र स्वयं में परिपूर्ण व स्वतन्त्र नहीं। वह अन्य क्षेत्रों का पूरक है। इसलिए संस्कृति और विकास के संदर्भ में बात करेंगे तो आदिवासियों की प्रगति के लिए उनकी संस्कृति और जीवन के अन्य पक्षों की सीमाओं से परे उन्हें जाना होगा तथा ले जाना होगा। इस प्रक्रिया में वैकासिक संस्कृति भी बनेगी जो आदिवासी संस्कृति के परंपरागत माॅडल में संशोधन करेगी। यह संशोधन ऐसे होगा जैसे मेरा घर अब झोंपड़ी न होकर पक्का मकान होगा। भौतिक दशा के अनुरूप उस घर में एकाधिक कमरे होंगे यथा शयन-कक्ष, बैठक, अतिथि-कक्ष, अध्ययन-कक्ष, स्नानागार, बरामदा, रसोई वगैरहा-वगैरहा। मैं इन कक्षों मंे मेरी रूचि अनुसार मेरी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली कला कृतियां मांडूंगा और मनमर्जी के पेड़-पौधे लगाऊंगा। और भी कई किस्म की सजावट करूंगा। मगर यह सब निर्भर करेगा मेरी प्राथमिकताओं पर। यह तो झोंपड़ी से पक्के मकान का मुद्दा है। हो सकता है मैं उस मकान में यह सब न करूं। मैं अब उन्नत हो गया। उन्नति का माॅडल मुझे किसी अन्य संस्कृति का भाता है। वह ईसाई, इस्लाम या हिन्दू हो सकता है । मैं वैसा कर सकता हूँ। विवेक इस्तेमाल करने के बाद मैं (विकास के कारण) भौतिक दृष्टि से समृद्ध हो गया। अंततः मैं ग्लोबल ऐज के विज्ञापनों से प्रभावित होकर वैसी संस्कृति अपना सकता हूँ। अब मुझे कोई दोयम दर्जे का इन्सान नहीं समझता। मैं गरिमामय स्वतन्त्र मनुष्य हूँ। मैं अपनी रूचि से जी सकता हूँ। यहां आदिवासी संस्कृति और विकास के मध्य का तथाकथित टकराव स्वतः समाप्त हो जायेगा। प्रश्न यह है कि आप आदिवासी संस्कृति और संस्कृति-वाहक आदिवासियों का कटघरेनुमा म्यूजियम बनाना चाहते हैं या आदिवासियों का भौतिक विकास ? विकसित आदिवासी जैसी चाहेगा वैसी संस्कृति अपनायेगा। यह उस पर छोड़ देने में क्या हर्ज है ?
लम्बी संस्कृति की परम्परा कोई भी हो उसमें कुरीतियां, कुप्रथाएँ, अपनी किस्म के कर्मकाण्ड, अंधविश्वास पनपते हैं। आदिवासी समाज भी इनसे मुक्त नहीं है। इन बुराइयों को दूर करने के लिए समय-समय पर सुधार आन्दोलन उस समाज के भीतर चलते रहे और चलेंगे और चलने चाहिए ताकि ’सार सार को गहि रहें, थोथा देई उड़ाय।‘ निष्कर्षतः आदिवासी संस्कृति का ’सार’ क्या है, इसके लिए आदिवासी संस्कृति की कुछ विशिष्टताओें को भद्र संस्कृति से तुलना करते हुए निम्न बिन्दुओं में समाहित किया जा सकता है-
व आदिम मूल्यों का संरक्षण आदिवासी संस्कृति का मुख्य ध्येय है जबकि भद्र संस्कृति का रूझान उत्तरोत्तर आधुनिकता की ओर रहता है चाहे वह आधुनिकता भारत जैसे देशों के लिए पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण ही क्यांे न हो।
व सामूहिकता आदिवासी संस्कृति का एक अत्यंत महत्वपूर्ण गुण है। भद्र संस्कृति में अंततः व्यक्तिवाद हावी रहता है।
व आदिवासी संस्कृति में जहां सामुदायिक सहयोग एक मुख्य तत्व के रूप में दिखता है वहीं भद्र संस्कृति में व्यक्तिगत स्वार्थ दिखाई देता है।
व आदिवासी संस्कृति में व्यावसायिकता नहीं होती है, पारिश्रमिक की बात बिल्कुल अलग है। भद्र संस्कृति में अधिकाधिक लाभ की प्रवृत्ति खुले रूप में सामने आती है।
व आदिवासी जीवन में संस्कृति की अभिव्यक्ति सहज, नैसर्गिक व स्वतःस्फूर्त होती है जबकि भद्र संस्कृति में बनावटीपन नजर आता है।
व आदिवासी संस्कृति का गहरा संबंध जीवन से होता है। भद्रजन की संस्कृति फैशन व दिखावे के रूप में प्रस्तुत होती है। जीवन का अंग होना और सजावटी होने में जमीन आसमान का अंतर है।
व आदिवासी संस्कृति प्रकृति से निकटता से जुड़ी रहती है। इसके विपरीत आभिजात्य संस्कृति का अधिकांश कृत्रिमता लिए होता है।
व आदिवासी जीवन में प्रतिमान गढ़कर या शास्त्र रचकर संस्कृति को जड़ नहीं बनाया जाता जबकि कुलीन संस्कृति को व्याकरण में बांधकर जड़ बनाया जाता है जिससे वह जटिल व दुरूह होती रही है। लोक नृत्य और शास्त्रीय नृत्यों के भेद से इसे आसानी से समझा जा सकता है।
व आदिवासी संस्कृति का गहरा जुड़ाव श्रम से है। उदाहरणार्थ, फसलों की बुआई-निराई-कटाई से संबंधित नृत्य-गीत सहज रूप में रचित-सृजित होते हैं। इससे भिन्न कुलीन संस्कृति फुरसत की उपज है। फुरसत आलस्य का ही दूसरा नाम है जो मनुष्य की सृजनशीलता का विरोध या कहें नकार है। फुर्सत की निर्मिति एकाकी घटना-क्रम होता है न कि सहज-सृजन।
व दोनों संस्कृतियों में एक बड़ा अंतर जो दिखाई देता है वह है अनौपचारिकता एवं औपचारिकता का। अनावश्यक औपचारिकता को भद्र संस्कृति के लिए अनिवार्य माना गया है। उठना-बैठना, खाना-पीना, कपड़े पहनना, यहां तक कि चलना, हंसना, सब कुछ औपचारिक और नपा-तुला। सांस्कृतिक आयोजनों के दौरान बैठने का क्रम तय करना भी औपचारिकता है, आदिवासी संस्कृति में सब कुछ सहज, भोला, मासूम, ईमानदार दिखता है।
व आदिवासी परंपरा में सांस्कृतिक अवदान अर्थात् किस ने क्या जोड़ा या घटाया, यह गुमनाम-अनाम रहता है, जबकि भद्र संस्कृति में सांस्कृतिक अवदाता के नाम की पहचान व ख्याति का आग्रह है। कुछ के अलावा कोई नहीं जानता कि आदिवासी परंपरा के लोकगीत, नृत्य, नौटंकी और भी बहुत कुछ किसने कब रचे। भद्र परंपरा में सांस्कृतिक सृजन का अधिकांश नामजद होता है। भद्र समाज में सांस्कृतिक विकास प्रेरणा केे स्रोतों पर मुख्यतः निर्भर होता है यथा गुरू, ग्रंथ व अन्य अगुवा व्यक्ति और अब मीडिया भी। आदिवासी संस्कृति वास्तविक जीवन पर आधारित होती है। आदर्शों का आग्रह भद्र संस्कृति में होता है जबकि आदिवासी संस्कृति यथार्थ केन्द्रित रहती आयी है। आदिवासी संस्कृति में अधिकांश जन की भागीदारी सृजन में होती है। साधारण सा व्यक्ति कुछ न कुछ रच सकने की क्षमता रखता है, जबकि भद्र परंपरा में संस्कृति के प्रेरक तत्वों की विशिष्ट श्रेणी रहती आयी है जिसकी अलग से पहचान हमें दिखती है।
व आदिवासी सांस्कृतिक संसार में प्रकृति-प्रेम, आदिम सौंदर्य-बोध, नृत्य-गीत, कलात्मकता, उत्सव-पर्व-मेले, धार्मिक आस्थाएँ, सामाजिक संस्कार, मिथक, गणचिन्ह, कथा-कहावत-पहेली-मुुहावरे ,खेल-कूद, एवं मनोरंजन की अन्य क्रियाएँ भद्र संस्कृति की तरह फुरसत के क्षणों को भरने वाली चीजें न होकर सम्पूर्ण जीवन, यथा मनोविज्ञान, आचरण, सिद्धांत एवं परंपरा, सृजनात्मकता, मूल्य-व्यवस्था से गहरा संबंध रखने वाली क्रियाशील प्रयोजनधर्मी सहज एवं आत्मीय अभिव्यक्तियाँ हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में कार्ल माक्र्स ने महत्वपूर्ण बात यह कही है कि ’’संस्कृति के सबसे मूल्यवान तत्व वे हैं जो शोषक वर्ग के हितों का विरोध करते हैं और शोषित वर्ग के हितों की रक्षा में सहायक होते हैं । ये तत्व शोषित वर्ग को धरोहर के रूप में बहुधा वर्गहीन आदिम समाजों से प्राप्त होते हैं। (‘माक्र्स और पिछडे़ हुए समाज‘ पृ0. 41)
कुलीन वर्ग का समस्त दर्शन उसकी परजीविता के सैद्धान्तिक-समर्थन का रहा है और इसीलिए शोषणकारी होने के बावजूद उसने अपना स्थान समाज, धर्म, न्याय, मूल्य, शील, आदर्श तथा अमूत्र्त अलौकिकता तक के स्तर पर ऊँचा रखने का प्रयास किया है और उसके पगतले रूँदे-खुँदे शोषित वर्ग को नीचा सिद्ध करने का और इसीलिए उसके विरोध की संस्कृति को उसने हेय दृष्टि से देखा है।
लेकिन प्रति-प्रष्न खड़ा होता है कि विकास की धारा से जुड़ने वाला ऐसा आदिवासी सांस्कृतिक व्यवहार के स्तर पर परम्परागत मौलिकता के अर्थ में क्या अपनी आदिवासी छवि को खो देगा ? बहुत सारे उदाहरण हमारे सामने हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि प्रषासनिक सेवाओं में भर्ती हुए कई व्यक्तियों ने गैर आदिवासी महिलाओं से शादी की। कुछ मामलों में अपनी आदिवासी पत्नियों का परित्याग कर अन्य समाजों में विवाह किया। ऐसा अन्य के मामलों में भी होता रहा है। चर्चा का विषय आदिवासी है इसलिए विचार यह करना है कि ऐसा होने पर आदिवासी संस्कृति उस परिवार में किस रूप में बचेगी। इस प्रवृत्ति का नकार निसस्ंदेह, विवेक सम्मत आचरण का विरोध होगा। चयन की स्वतंत्रता अपनी जगह महत्त्वपूर्ण होती है। इस उलझन का समाधान एक मात्र इस बात पर आधारित हो सकता है कि कोई भी व्यक्ति आदिवासी संस्कृति के अनुकरणीय पक्ष का कितना सम्मान और संरक्षण करता है। सकल समाज के हित में संस्कृतियों की मौलिकता (अभिव्यक्त स्वरूप) से महत्त्वपूर्ण उनके मूल्य होते हैं। मौलिकता का आग्रह इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है, मनुष्य का बेहतर भविष्य तो मानवीय मूल्यों पर ही निर्भर करेगा। इसी तरह प्रादर्ष ;मगपइपजपवदद्ध संग्रहालय के लिए उपयोगी होते हंै, मनुष्य, मानवेतर प्राणी जगत एवं प्रकृति के सुरक्षित सह-अस्तित्व के लिए तो आदर्ष ही अनिवार्य होंगे और इस संदर्भ में ऐसे आदर्षों की सीख आदिवासी संस्कृति से ली और दी जा सकती है। विज्ञान-तकनीकी, वैष्वीकरण, प्रदूषण व पूँजी के वर्चस्व के इस दौर में सार्वभौमिक मूल्य बचे रहेंगे तो सब कुछ सुरक्षित रहेगा अन्यथा बहुमुखी संकटों की संभावना सामने होगी।