शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

अंतर्राष्‍ट्रीय मूलवासी दि‍वस


’मूलवासी’ (इण्डीजीनिस) शब्द को परिभाषित करना अत्यधिक कठिन है। इस शब्द पर चर्चा करने के साथ-साथ आदिवासी (ट्राईब)ए देसी (नेटिव)ए एवं आदिम (अबोरिजनल) जैसे शब्दों की अवधारणाएं सामने आती हैं। वर्ष 1987 में ग्रेलर ने मूलवासी की व्याख्या करते हुए कहा कि यह ‘राजनैतिक दृष्टि से अधिकार- विहीन लोगों के ऐसे समुदाय हैं जो अपनी विषिष्ट नस्लगत पहचान बनाये रखते हैं और आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा के मूर्त रूप लेने के बावजूद अलग ईकाई के रूप में समाज का हिस्सा बनकर चलते हैं। इससे पूर्व वर्ष 1972 में मूलवासी जन के लिये गठित संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य समूह ने जोस माल्टीनेज कोज की परिभाषा से सहमति प्रकट करते हुए ’किसी भू-भाग पर विष्व के अन्य हिस्सों से आने वाले बाहरी मानव समूहों से पहिले वहंा प्राचीन काल से रहने वाले लोगों के वंषज’ के रूप में मूलवासी की पहचान की है। इस प्रक्रिया में बाहरी घुसपैठियों द्वारा आक्रमण एवं उस भू-भाग पर अधिकार करने तथा मूलवासियों को दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवष किया गया। परिणास्वरूप वर्चस्वकारी व्यवस्था में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाने लगा और यहीं से विष्व की सबसे बड़ी समस्या नस्ल पर आधारित भेदभाव तथा मूलवासियों से सम्बन्धित अन्य मुद्दे सामने आये।

वर्ष 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ के स्तर पर ’मूलवासी’ शब्द की व्याख्या करते हुए माना कि ’किसी भू-भाग पर प्राचीन काल से रहने वाले मानव समुदाय के वंषज हैं जो नस्ल एवं संस्कृति के स्तर पर विषिष्टता रखते हों । इनमें से काफी लोग राष्ट्र-समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग अपने पुरखों की परम्परा एवं रीति रिवाजों का संरक्षण करते हुए जीवन जीते चले आ रहे हैं और विकसित राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेष को ये लोग बाहरी मानते हैं।’ कुल मिलाकर ’’किसी भू-भाग के ज्ञात प्राचीनतम निवासियों’’ को मूलवासी कहना उचित होगा।

आधुनिक राष्ट्र, समाज एवं सरकारों के उद्भव के साथ अपनी स्वतन्त्र ईकाई के सन्दर्भ में ऐसे मूलवासी समुदाय राजनीति के स्तर पर अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिये एक विषिष्ट पहचान बनाने की प्रक्रिया से गुजरते आये हैं। काल-खण्डानुक्रम की दृष्टि से प्राचीन काल, उपनिवेषवाद काल एवं आधुनिक काल के संदर्भ में इनकी अस्मिता, पराभव एवं पुनरूत्थान की प्रक्रिया को समझना आसान होगा। इस प्रक्रिया में होने वाले नस्ल परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण, भाषागत अर्न्तक्रिया, मूल्यगत हृास की दृष्टि से परम्परा एवं आधुनिकता का अर्न्तसंघर्ष, अर्न्तविरोध, अर्न्तक्रिया, परस्पर प्रभाव जैसी प्रमुख स्थितियां उभर कर सामने आती हैं । इस क्रम में भू-भाग विषेष महत्वपूर्ण तत्व न रहकर मानव समूहों के बिखराव एवं विस्थापन की स्थिति सामने आती है। यहां वनांचल से मुख्य भूमि, गावों से शहर और परम्परागत समाज से आधुनिक समाज की ओर अग्रसर होने की स्वाभाविकता या विवषता भी महत्वपूर्ण बन जाती है। निष्चित रूप से इतिहास एवं संस्कृति जैसे प्रमुख क्षेत्र प्रभावित होते हैं और प्राचीन ऐतिहासिकता एवं मौलिक संस्कृति के संरक्षण के प्रष्न सामने आते हैं।

विश्व मूलवासी अध्यय्न केन्द्र की स्थापना वर्ष 1984 में डा0 रूडोल्फ सी0 रायसर एवं जार्ज मेनुअल ने एक स्वतंत्र शोध एवं शैक्षिक संगठन के रूप में की। जार्ज मेनुअल राष्ट्रीय भारत मैत्री संगठन (कनाडा) के पूर्व अध्यक्ष थे जिन्होंने उपनिवेषवाद से उबरे मूलवासियों के लिये कार्य किया। उन्होंने ही संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बन्धित मूलवासियों की विष्व परिषद के गठन में महत्पूर्ण योगदान दिया।

उल्लेखनीय है कि विष्व की कुल जनसंख्या करीब 6 अरब में से 3 अरब 70 करोड़ मूलवासी हैं, जो करीब 70 देषों में रह रहे हैं। भारत राष्ट्र के सन्दर्भ में मूलवासी एवं आदिवासी को एक ही माना गया है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार करीब आठ करोड़ चालीस लाख अर्थात् भारत की कुल जन संख्या का 1.2 प्रतिषत लोगों को मूलवासियों के रूप में चिन्हित किया गया है। इनके कुल 461 समूह माने गये हैं। स्वतन्त्र शोध निष्कर्षो के अनुसार ऐसे कुल 635 आदिवासी घटक हैं जिनमें प्रमुख गोण्ड़, सन्थाल, उरांव, भील व नागा आदि हैं। जनगणना के मुताबिक 461 चिन्हित आदिवासी घटकों में से 220 उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहते हैं, जो कुल आदिवासियों का 12 प्रतिषत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे मध्य भारत में कुल आदिवासियों की करीब 50 प्रतिषत जनसंख्या निवास करती है।

वैष्विक मूलवासियों पर जब चर्चा की जाती है तो विष्व के सभी महाद्वीप विमर्ष के केन्द्र में आते हैं चूंकि मूलवासियों की जनसंख्या अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, एषिया, यूरोप आदि सभी महाद्वीपों से गहरा संबंध रखती आई हैं चाहे समस्या उत्तरी अमेरिका के रेड इंडियनस् की हो या दक्षिणी अमेरिका के ’बुष नीग्रो’ की हो या अफ्रीका के सांन की हो या मैक्सिको के माया लोगांे की हो या न्यूजीलैंड के मोरानी की हो या आस्ट्रेलिया के कुरी, नुनगा, टीवी की हो या यूरोप के खिनालुग, कोमी, सामी की हो अथवा एषिया के अडंमान टापू के सेंटेनलीज या जारवा की हो।

मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्विकीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं, चूंकि वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिषील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी।

मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्विकीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं, चूंकि वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिषील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी।
अर्न्तराष्ट्रीय मूलवासी दिवस के रूप में 09 अगस्त को मनाने की पृष्ठभूमि यह है कि वर्ष 1982 में इसी तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के मूलवासी लोगों के कार्यसमूह की प्रथम बैठक सम्पन्न हुई थी। तद्नुसार संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की दिनांक 23 दिसम्बर 1994 को हुई बैठक में इस तिथि को ’अन्तराष्ट्रीय मूलवासी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। विष्व के मूलवासियों के उत्थान के लिये वर्ष 1995 से 2004 तक की अवधि को ’प्रथम मूलवासी दषक’ एवं वर्ष 2005 से 2014 तक की अवधि को ’द्वितीय मूलवासी दषक’ के रूप में मनाये जाने का संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में घोषणा की गई।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

कुछ छोटी कविताएं

रात

टूटी फूटी
इच्छाओं का
गट्ठर समेटते
दिन के सारे पल
आते हैं
रात के शामियाने में
सपनों की बारात लेकर।








भोर

सांझ की
विदाई के साथ
दरख्तों की
टहनियों पर
रात की हवालात में
खामोश आवाजें
अंधेरे की
सलाखें तोड़कर
छेड़ेगी
द्रुतगति में
भोर का राग।

किरण

आकाश में
टिमटिमाते नक्षत्रों की जगह
बेहतर है बन जाना
सुबह की पहली किरण और मिट जाना
पसरते उजास के आगोश में।

आग

बुझ चुके अलाव के कोने में
छिपी चिंगारी
बनी जो मौन साधक सी-आग
देखो उसे तुम तो खेल रहे हो
नींद में
अवचेतन के कोलाहल से।

गुरुवार, 20 मई 2010

एकलव्य

कान पक गये सुनते सुनते - गुरू की महिमा आज्ञाकारी शिष्य दक्षिणा में अंगूठा ''मैं भी राजा का बेटा१ अधिकारी विद्या का'' एकलव्य, क्या ऐसा ही कुछ कहा नहीं तुमने आचार्य द्रोण को भोले तुम, आदिम-परंपरा में पला हुआ निर्मल मन गुरू था ''अनुबंधित'' समझाता हठ तो नहीं, विनय ही की थी घोर निरादरसने टके सा सुन जवाब उम्मीदों का ढूह ढहा छाती में जैसे तीर चुभा घर न लौट वस्तुतः गये गन चिन्ह वृक्ष तक ................................................................... १. एकलव्य निषादों के राजा (प्रमुख) हिरण्यधनु का पुत्र था। २. एकलव्य के आदिवासी कुल का गणचिह्‌न 'महुवा' का पेड़ रहा है। जहाँ- निकट नाले की गीली माटी से आचार्य द्रोण की मूर्त्ति बनायी जिसके चेहरे के भावों में - गुरूता नहीं, पक्षधरता की लघुता झलकी उस प्रतिमा को देख ''तू अनार्य तू निषाद तू शूद्र, नीच दीक्षा लेगा हमसे ?'' हाँ, यही शब्द टकराये होंगे कनपटियों से बार बार गूँजे होंगे मस्तिष्क कंदराओं के भीतर हृदय-सिंधु में उमडा होगा ज्वार घृणा का भोली आँखों के पर्दों पर खून सिमट आया होगा घनीभूत प्रतिद्गाोध-तरंगें दौडी होंगी अंग-अंग में दृष्टि टिक गयी होगी प्रतिमा के चहरे पर और स्वतः ही - बायां हाथ उठा आगे मुट्‌ठी में पकडा कसकर - धनुर्दण्ड के मध्यभाग को दाहिना हाथ गया तरकस पर बाण चढाया साधा खींची प्रत्यंचा कंधे तक ( परंपरा के आंगन में सीखा था सबकुछ चूक कहाँ, कैसे, क्यूं होती ) पहला तीर - बिंधा मस्तक '' लो, प्रणाम किया गुरू'' - कहा और कर दी बाणों की वर्षा थमी न होगी तब तक जब तक क्षत-विक्षत न हुई वह प्रतिमा यह ''दुस्साहस'' देख गुरू की आज्ञा से द्गिाष्यों ने छोड़ा होगा कुत्ता किंतु झपटने से पहले मुख बाणों से भर दिया बिन प्राण लिये भेजा वापस देखा - गुरू ने, द्गिाष्यों ने ''प्रिय श्वान ! बाण भरे तरकस सा जबडा लहूलुहान यह हाल !!'' (अद्‌भुत कोैद्गाल लेकिन दुस्साहस) एकलव्य, उस वक्त अकेले थे तुम वन में गुरू की अगुवाई में सब द्गिाष्यों ने घेरा पकडा, पटका तुम्हें धरा पर और अंगूठा......................... बर्बरता नाची होगी इर्द-गिर्द चहुँदिद्गिा में गूँजा क्रूर अट्‌टहास......... आदिम कुल-कौद्गाल का प्रतीक वह कटा अंगूठा धरती पर जब तड़पा कुछ पल उस वक्त बताओ एकलव्य, धोखे से घायल बाघ समान नहीं थे तुम चीखे-चिल्लाये नहीं दहाडे ही होंगे सुनकर दहाड बिन मौसम कड का आसमान कांपे थे सिंहों के अयाल बांसों में अंकुर फूटे थे थर्रायी खूनसनी धरती वन में आँधी भीतर भीतर दहले पर्वत, कुछ द्गिाखर ढहे होंगे - अवद्गय वह पेड हिला होगा जड तक मासूम परिंदे भौंचक्के उड भागे होंगे इधर उधर कोहराम मचा नभमंडल में ज्यों गाज गिरी हो अंचल में वह कटा अंगूठा एकलव्य, था मात्र देह का अंग नहीं कुछ था उसके पीछे जैसे - कौद्गाल की आदि-नदी अविरत श्रम का गहरा सागर संकल्पों का ऊँचा पर्वत स्वप्नों का अनन्त आसमान जन-संस्कृति की फलवती धरा उस सबको - हरने का प्रयास था छुपा हुआ उस घटना में (दो) फिर भी तुमने हार न मानी साधते रहे अपनी विद्या बिन अंगूठे का पंजा देखा बार बार घूमे वन में बदले की आग लिए मन में जैसे हो घायल बब्बर शेर सोचा, ''गुरू द्रोण नहीं दोषी प्रतिद्वंद्वी तो मेरा अर्जुन'' अनवरत काल का यात्रा पथ आ धमका अटल ''महाभारत'' देखा तुमको - दुर्योधन के दल में चौंके श्री कृष्ण खडे़ तुम अग्रभाग में ''हे अर्जुन, यह निषाद है खतरनाक धनुर्निपुण तुमसे बढ कर अब भी'' सुन अर्जुन दंग, अवाक्‌ आभा ललाट की क्षीण ज्यों, सूरज का तेज ढँका काले बादल ने एकाग्र दृष्टि तुम पर जिसको मछली की आँख दिखी उसको पूरे तुम दिखे काल जैसे दिल दहला, काँपा सारा तन आभास हुआ - चीते के आगे निरीह मृग ''दुर्भेद्‌य लक्ष्य कंपायमान है धनुर्दण्ड प्रत्यंचा खिंचती नहीं न ही सधते नाराच निस्तेज हुए दैवीय शस्त्र हे सखा-सारथी, बनों ईद्गा कुछ करो'' - कहा धीरे से गर्दन नीची कर ''मेैंने ली सौगंध - रहूँगा शस्त्रहीन यह भी कि लड़ूँगा नहीं अद्‌ृद्गय शक्ति छोडूँगा तो -ईद्गवर की छवि का क्या होगा? पर, प्रण यह भी - वर्चस्व तुम्हारा बना रहे'' वह - चौंसठ कला प्रवीण ''ईद्गा'' योगी चमत्कारी था बहुत अनुभवी जन्मों से साधन से बढ कर सदा साध्य का था साधक समझा सोचा सूझा विकल्प लीला अवतारी थाली से सूरज को ढंक सकता था उसके समक्ष छल का संबल ही था विकल्प रण-विधि विरूद्ध का कूट कृत्य वह गुप्त सुदर्द्गान चक्र बना जिसका माध्यम कितने भी महान धनुर्वीर आखिर में थे भोले निषाद सपनों में भी न देख पाये क्या होती है छल की माया ईश्वर अर्जुन अर्जुन ईद्गवर मानव-अवतारी मायावी थी शक्ति, निपुणता कई गुणी पर पुनः कपट की जीत हुई। (तीन) संघर्षों का क्रम लंबा था सतयुग से लेकर द्वापर तक आगे भी.................. द्वापर का वह महाभारत उस एक युद्ध की अल्पावधि में जाने कितने युद्ध छिड़े द्रोपदी, द्गिाखंडी कर्ण, द्रोण, अद्गवत्थामा अभिमन्यु, पितामह पांडुपुत्र, कौरव उनके साथी-संगी सबके- अपने अपने प्रण, प्रतिबद्धता, विवद्गाता सब लड े लड ाई निजी निजी तुम बिना लडे सिद्ध हुए एक महा-यौद्धा अर्जुन न लड सका तुमसे किस धर्मयुद्ध के लिए तुम्हें ''ईद्गवर'' ने मारा ? यह प्रद्गन काल के झोले में कब तक अनसुलझा ? मरते हैं व्यक्ति, न परंपरा प्रतिरोध - नदी बहती रहती घाटियां पार करतीं चट्‌टान तोड बढती - आगे चलती........ हाँ, एकलव्य - वह ईद्गवर था (अच्छा है अमर रहे, खुद्गा रहे स्वर्ग में) पर, मृत्युलोक का धर्म निभाना होता है उस महायुद्ध में जो हारे वे खत्म हुए जो जीते, वे चल दिये नियति की राहों पर (चार) अब रहा अकेला ईद्गवर कितना भटका था यहाँ-वहाँ (यह अलग बात - स्मृतियों में था पूर्वजन्म - बाली वरदान बैकुण्ठ - धाम) वह- अजर, अमर विभु, पूर्ण, द्गाांत, स्पृहाहीन - सच्चिदानंद अब - गहरा अंतर्द्वंद्व मकड़जाल स्वयं का बुना हुआ ''अरे सखा अर्जुन, एकलव्य-वध के प्रेरक, यह गहन ''द्वंद्व'' असफल ''गीता'' निस्वन यह वन बूढा पीपल जिसकी छाया में बैठा मैं अभ्यंतर पद्गचाताप सघन किस विधि प्रायद्गिचत करूँ आज -सौगंध तोड अमलिन निषाद को क्यों मारा ? सब चले गये -कौरव-पांडव, उनका दल-बल वसुदेव-देवकी नंद-यद्गाोदा रानियां नहीं हैं आसपास बलराम समाया सागर में यदुवंद्गाी ''मूसल'' ने मारे बच गया अकेला मैं एवं यह प्रद्गन ठूँठ सा - उस एकलव्य को कपट नीति से क्यों मारा ?'' निर्जन एकांत पवन स्थिर वन-प्राणी चुप वृक्षों में नहीं सरसराहट चहुँ ओर निपट नीरवरता जड़-चेतन सब द्गाांत किंतु ईद्गवर अद्गाांत (!) जिसके - कानों के पर्दों से टकराता जाता वही प्रद्गन ''बिन लडे लडाई अपनी उस यौद्धा को मैंने क्यों मारा ???'' अंततः- जीवन की कठोर धरती पर जंगल में जंगल का बदला मूर्त्तरूप जारा द्गाबर भील कुछ था तुमसे उसका रिद्गता -गुदडी के धागों सा पदमाक्ष चमकता या कि हरिण की आँख दिखी मौत का बहाना भ्रमित हुआ आखेटक या प्रतिद्गाोधातुर ? हत्या हंता प्रतिद्गाोध-बाण एवं अनंत का अंत (!)

शुक्रवार, 7 मई 2010

समकालीन आदिवासी कविता

बहुत लम्बी यात्रा कर चुकी मानवता के बीच-उसी के इर्द-गिर्द एक और मानवता है जो अति प्राचीन काल से प्रकृति के सानिध्य में अपनी अनूठी शैली का जीवन जीती चली आयी और भौतिक प्रगति की दृष्टि से अब भी कमोबेश वहीं की वहीं है- अपने आदिम सरोकारों और संस्कारों के साथ, जिसे हमने 'आदिवासी' नाम दिया है। कम से कम इस महादेश और समाज के लिए यह वह वर्ग है जो निर्विवाद रूप से इस राष्ट्र के मूल वासी हैं-युग युगों से जिन्हें पहले समतलों से पहाड़ों-जंगलों में धकेला जाता रहा और अब वहां से भी खदेड़ा जा रहा है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह जब हम कविता के सन्दर्भ में समाज के किसी घटकको लेकर चर्चा करते हैं तो यह सवाल उठाया जाता है कि कविता तो कविता होती है, उसके बारे में यह वर्गीकरण क्यों कि यह दलित कविता, यह स्त्री कविता, यह आदिवासी कविता और इसी क्रम में अन्‍यान्‍य......? समाज के घटकों के आधार पर जब साहित्य की किसी विधा को बांटा जाता है तो अन्यथा प्रतिक्रिया होती रही है। यह प्रतिक्रिया प्रमुख रूप से तथा-कथित मुखयधारा से जुड़े महानुभावों द्वारा की जाती रही है। ये लोग ि‍नि‍श्‍चत रूप से परम्परागत रूप से वर्चस्वकारी प्रभुवर्ग से सम्बन्ध रखते रहे हैं, चाहे जन्मना या कर्मणा। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अभिव्यक्ति का कोई भी अनुशासन और उसकी विधा जागतिक (भौतिक और मानसिक दोनो) जीवन में अनेकानेक पहलुओं से ताल्लुक रखते आये हैं यथा सभ्यता, संस्कृति आंचलिकताएं, ऋतुएँ, मनोददशा, तथा दृष्यादृष्य संसार के अनेकानेक पहलू। इसी क्रम में समाज के घटकों से सम्बन्ध रखने वाली साहित्यिक विधाओं को लेकर चर्चा करने में कोई हर्ज नहीं है और जब यह चर्चा समाज के उन घटकों को लेकर की जाती है जो किन्हीं भी कारणों से हाि‍शए पर रहते आये हों चूँकि उनके परिप्रेक्ष्य में होने वाला ि‍वमर्श उन्हें मुखय धारा में लाने का काम करेगा ना कि विखण्डन का। विचार के स्तर पर इसीलिए स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंखयक आदि को विषय वस्तु बनाने के प्रयास समय-समय पर किये जाते रहे हैं। किसी निष्कर्ष तक पहुँचाने में सहायक होता है। इसी पृष्ठभूमि में समकालीन आदिवासी, कविता पर आधारित यह प्रसंग उठाया गया है। आदिवासी जीवन को लेकर जब कविता की बात की जाती है तो मौखिक परप्मरा ही समृद्व धरोहर के रूप में सामने आती है जो प्रमुख रूप से ग्रेय परम्परा रही है। आधुनिक या समकालीन कविता की दृष्टि से आंचलिक भाषाओं में अवद्गय कविता के माध्यम से जीवन के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति होती रही है लेकिन हिन्दी भाषा में आदिवासी कविता अभी शुरूआती दौर मे चल रही है। आदिवासी इलाको में बाहरी तत्वों की घुसपेठ सबसे बडी समस्या रही है। यहीं से आदिवासी जीवन की पवित्रता में प्रदूषण शुरू होता है और अंत में आदिवासी अस्तित्व का संकट। ग्रेस कुजूर की कविता के अंश- ''........हे संगी क्यों घूमते हो/झुलाते हुए खाली गुलेल/ क्या तुम्हें अपनी धरती की/सेंधमारी सुनायी नहीं दे रही.......?'' नहीं, यह सब 'कूलड़ी में गुड फोड ना नहीं। यह सब डंके की चोट पर हो रहा है खुले आम। कुछ इस तरह- ''........पृथ्वी की सारी सभ्यता/एक भीमकाय रोड-रोलर की मानिंद/लुढकती आ रही है हमारी जानिब/और हम बदहवास/भाग रहे हैं खोह और गुफाओं की ओर....... (हरिराम मीणा) आदिवासी जीवन की कल्पना प्रकृति के बिना सम्भव नहीं, प्रकृति के साथ छेड छाड आदिवासी के लिए आत्यन्तिक पीडा की बात है। संताली कविता में कहा गया है- ''....ढह गई बडी पहाडी/भसकी छोटी पहाडी/उल्टी पुल्टी हो गई दुनिया/ओ मेरे भाई........।'' तो ठीक, नहीं तो -''...........हमें सौपा है हमारे पूर्वजों ने/धन सम्पदा से सम्पन्न/ अपना राज्य/मानवता से परिपूर्ण।'' प्रकृति के साथ बेरहम छेड खानी केवल आदिवासियों के अस्तित्व का संकट नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता व मानवेतर प्राणी जगत के लिए खतरा है। पर्यावरण प्रेमियों के साथ आदिवासी कविता भी सुर मिलाती है। ग्रेस कुजुर कहती हैं- ''........इसलिए फिर कहती हूं/न छेडो प्रकृति को/अन्यथा यह प्रकृति करेगी भयंकर बगावत/और तब/न तो तुम होंगे/न हम होंगे।'' ''धरती उजडी जंगल उजडे रह गया क्या शेष?'' इन हालात में मानवेतर प्राणियों के लिए भी सचेत है आदिवासी कविता-''...........चिड़िया भी शायद हमारी ही तरह/भूख, प्यास, बसेरा, मिलन व जुदाई की चिंता से/परेशान हो रही है।'' आदिवासियों ने तो सपने में भी यह नहीं सोचा कि उनके साथ ऐसा होगा। वे तो उन्मुक्त प्रकृति की गोद में रहे हैं-प्रकृति की भाव-भंगिमाओं के साथ गाते-नाचते। इसी उन्‍मुक्‍तता के रहते अभावों भरी जिन्दगी की भी उन्होंने परवाह नहीं की। समृद्ध प्राकृतिक परि‍वेश में सीमित आवश्‍यकताओं के साथ एक लंबी, वि‍शुद्ध और सांस्कृतिक परंपरा रही है। जीवन का आधार रही यह प्राकृतिक संपदा, उनकी पुद्गतैनी भौम और सांस्कृतिक धरोहर उनसे छीनी जा रही है, जिसके लिए वे कतई तैयार नहीं और कोई माने या न माने वे इसके लिए कभी तैयार हो भी नहीं सकते। यह गंभीर संकट केवल आदिवासी वर्ग को झेलना पड रहा है। प्रकृति एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का निकट सम्बन्ध रहा है जो अब गड बडा रहा है। ग्रेस कुजूर के ही शब्दों में- ''............अब कहां है वह अखरा (नृत्य स्थल)/किसने उगाए हैं वहां/विषैले नागफनी/बार-बार उलझता है जहां/तोलोंग का फुंदना........ इस संकट के प्रति अब तक आदिवासी-जन अनजान और मौन रहे। लेकिन अब यह चुप्पी कांवडे की कविता में टूट रही है- ''.......बस्तरिया आदिवासी भी अब/जानने लगे हैं/चुप्पी का दर्द/विद्रोह का सुख/वे समझने लगे हैं/अनपढ असंगठित रहने की पीडा..........'' आदिवासी स्वभाव से बहुत भोले होते हैं सब तरह से मैल-वंचित। वे नहीं समझ पाते उन चालाकियों को जो उनके विरूद्ध पनपती रही हैं। आदिवासी कविता बाहरी लोगो की साजिशों को पहचानने लगी है। निर्मला पुतुल लिखती है- ''........इन खतरनाक शहरी जानवरों को पहचानो चुड का सोरेन/.........तुम्हारे भोलेपन की ओट में/इस पेचदार दुनिया में रहते/ तुम इतने सीधे क्यों हो चुड का सोरेन?'' ............................... तुम्हारे भोलेपन की ओट में/इस पेचदार दुनिया में रहते/ तुम इतने सीधे क्यों हो चुड़का सोरेन?'' ............................... ''.....ये वो लोग हैं जो हमारे बिस्तर पर करते हैं/हमारी बस्ती का बलात्कार/और हमारी ही जमीन पर खडा हो पूछते/हमसे हमारी औकात!'' आदिवासी उसी तैयारी और तेवर के साथ मोर्चा बंद होंगे जिस तरह अंग्रेजों के सामने मानगढ की पहाडी और अबेर्दीन (अंडमान) के जंगलों में अकेले वे ही भिडे थे। कोई साथ दो तो ठीक, न दे तो परवाह नहीं। सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से आदिवासी स्वायत रहते आये हैं। किसी बाहरी सत्ता की अधीनता का उन्होंने सदा विरोध किया है। देखिये बनजारा गीत- '' सुनो राजा मेरा कहना/मेरी सलामी तुझे नहीं मिलेगी।'' आज आदिवासी अस्तित्व का संकट गहरा रहा है। मनुष्य ने मनुष्य को बहुत सताया है। स्त्री के रूप में आधी मानवता और दलितों के रूप में एक बडा वर्ग जीता जागता उदाहरण है हमारे सामने। (अब तक) बहुत कुछ लिखा और बोला गया है, इस बडे शोषित दलित वर्ग के लिए। इसी में हम अब तक मानते रहे आदिवासियों को भी। चीजों को सामान्यीकृत करने से पहले हम प्रत्येक स्वतन्त्र घटकों का अध्ययन करते हैं-उनकी वि‍शि‍ष्‍टता के आधार पर। इसलिए ''विविधता में एकता और एकता में विविधता'' एक स्वीकृत सत्य है। इस सूत्र को पकड कर अगर बात की जाए तो इस बडे, और अर्सा से सताए गए वर्ग की एकजुटता में आडे नहीं आते हुए, हमें आदिवासियों पर कुछ अलग और सही दृष्टि से चर्चा करनी चाहिए। गैर आदिवासी व्यापक समाज की स्त्रियों ने पुरूष वर्चस्व की त्रासदी भोगी है। शब्द के सीमित अर्थ में दलित वर्ग ने छुआ-छूत, जूठन, बेगार और मैला ढोने तक की अनेक त्रासदियों के बावजूद दुत्कार-फटकार-अस्वीकार झेला है। इस वर्ग की मूल समस्या समाज में रहकर भी सम्मान, गरिमा और अस्मिता के नकार की रही है, जबकि आदिवासियों की मूल समस्या अंततः अस्तित्व के संकट की बन चुकी है। दलित वर्ग अपने साथ हुए अन्याय और अन्यायकर्ताओं को भली-भांति पहचानता है और इसी आक्रोश को वह दलित साहित्य में व्यक्त कर रहा है। इस प्रक्रिया में उनके संकट से उबरने की प्रबल संभावनाएं हैं- संगठित प्रतिरोध की ताकत के साथ। आदिवासियों को तो यह भी पता नहीं कि उन पर यह अस्तित्व का संकट क्यों है ? वे भौंचक्का हैं, किन्तु मौन। इसलिए आदिवासी साहित्य के तेवर अलग होंगे। अस्तित्व के संकट की चरम सीमा मैंने अंडमान में देखी है। कविता में कुछ इस तरह- ''........जिन्होंने हमें गोलियों से भूना/वे इंसान थे/जिन्होंने हमें टापुओं से इधर-उधर खदेड़ा/वे इंसान हैं/और जो हमारी नस्ल को उजाडेंगे/ वो इंसान होंगे....।'' अस्तित्व का संकट है तो उसका विरोध विद्रोह के रूप में प्रकट होगा। ग्रेस कुजूर लिखती है- ''हे संगी/सम्भालो अपना तरकस/नहीं हुआ है भोंथरा अब तक/ बिरसा आबा का तीर/.......और अगर/अब भी तुम्हारे हाथों की/ अंगुलियां थरथराई/ तो जान लो/मैं बनूंगी एक बार और/सिनगी दई।'' आदिवासी कविता को वि‍श्‍वास है अपने पर। वह शब्दों का नटी खेल नहीं है। वह शास्त्रीयता और जार्गन में छुपी बांझ रचना नहीं होगी। पुनः ग्रेस कुजूर के शब्द- ''......देखा कलम की धार/तुम्हारे लिए/हां तुम्हारे लिए/कलम मौसम बदलेगी/ कलम मौसम बदलेगी।'' वक्त की रफ्तार के साथ उन्हें पहाड़ों-जंगलों में धंसा दिया गया। फिर भी कोई बात नहीं, हजारों सालों से प्रकृति से अटूट रिद्गता जोडे रहे। उसे प्रगाढ करते चले गए। अब वहां से भी किसी न किसी योजना के बहाने खदेड ने की खतरनाक साजिशों, किसी बडे राजमार्ग या जनपथ में रोडा बना 'पत्थर' किसी समुदाय की भावना बन कर ताकतवर सरकार से नहीं हटता। प्रशासन अपनी छेडखानी की मनसा पर लमलेट होकर माफी मांग कर पीछा छुडाता दिखता है और यहां लाखों की तादाद में बिना किसी पूर्व सूचना, बिना पर्याप्त विकल्प के इन आदिवासियों को विस्थापित कर ही दिया जाता है। कोई मेधा पाटेकर बोले तो उसे वि‍देशी साजिशों का हिस्सा या राष्ट्रीय विकास विरोधी करार दिया जाता है। आदिवासी कुछ नहीं मांगते। उनके नाम पर चल रही योजनाओं के हिस्से को कौन डकार रहा है-वे तो कोई प्रश्‍न भी नहीं पूछते और उन्हें उनकी पुश्‍तैनी जमीनों से और जीवन में रची-रमी प्रकृति से इस कदर खदेडा जाए-यह कहां का न्याय है? इन साजिशों के खिलाफ आदिवासी कविता ही बोलेगी। ग्रेस कुजूर के यहां झारखण्ड है तो भुजंग मेश्राम के यहां महाराष्ट्र में भी वैसा ही दर्द अभिव्यक्त होता दिख रहा है- ''........उठो कि अपने अंधेरे के खिलाफ उठो/उठो अपने पीछे चल रही साजिशों के खिलाफ/अब उन्हें पता लग गया है/.........आज ना घने बीहड हैं/ना तू है/है केवल बीहडों में फैलता अंसतोष/........सच बताऊं/ अब हमें जल्दी है/ नहीं चाहते अब हम ओढी हुई सभ्यता/..........बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा।''
शेष अगली बार.....

सोमवार, 11 जनवरी 2010

क्या जंगलों को ......


गोरे राज्य के प्रमुख ने कहलवाया है-
कि वे हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं।
उनके सरदार ने दोस्ती और भाईचारे का संदेष भी
भिजवाया है।
यह उनका बड़प्पन है।

हम जानते हैं कि उन्हें हमारी दोस्ती की जरूरत नहीं:
लेकिन उनके प्रस्ताव पर हम विचार करेंगे, क्योंकि हम
यह भी जानते हैं कि यदि जमीन नहीं बेची तो तोपों
सहित आ सकते हैं ये गोरे लोग।
किस तरह तुम बेच या
खरीद सकते हो आकाष को ?
या पृथ्वी के स्नेह को ?
ये बात हमें समझ नहीं आती
जब हवा की ताजगी
और पानी की स्फूर्ति
हमारी मिल्कियत नहींः
तो कैसे बेच सकते हो उनको ?

पानी के कल-कल में सुनाई देती है
हमारे पूर्वजों की आवाज
नदियां हमारी दोस्त हैं, प्यास बुझाती है
इनकी लहरों पर खेलती हैं हमारी छोटी नावें
और मिटाती है हमारे बच्चों की भूख और प्यास।
तो तुम उसे वही प्यार और स्नेह देना
जो तुम अपने प्रियजन को देते हो।
गोरों को आगे बढता देख
हम आदिवासी हमेषा पीछे हटे हैं
जैसे सूर्य के उदय होते ही
भाग जाता है पर्वतों से कोहरा।
यहाँ बिखरी है हमारे पूर्वजों की राख,
और ये पेड़, ये पर्वत और धरती का यह भाग,
पवित्र है, इन्हीं पर टिकी है
हमारे पूर्वजों की समाधियां।

हम जानते हैं कि गोरे हमारे तौर तरीकों को
नहीं समझते,
उनके लिए सभी जमीन एक जैसी है।
नहीं लगाव किसी भी जमीन के टुकडे के साथ-
वे अजनबी की तरह अंधेरे में आते हैं
और ले जाते हैं वो सब, जो उन्हें चाहिए।

जमीन उनकी दोस्त नहीं, दुष्मन है
जिसे जीत कर वे आगे बढ जाते हंै
और छोड़ जाते पीछे पिता की समाधि-
इसकी भी उन्हें कोई परवाह नहीं
अपने बच्चों से छीन लेते हंै धरती
इसकी भी उन्हें परवाह नहीं।

मां समान धरती और पिता समान आकाष,
उनके लिए बेजान बाजारू चीजें हंै,
जिसे वे भेड़ों या चमकते मोतियों की तरह खरीदते-लूटते और बेच देते हंै।

एक दिन आएगा जब उनकी विषाल भूख सारी धरती
निगल लेगी
और रह जाएगी सिर्फ रेगिस्तार की बालू

मंै समझ नहीं पाया,
षायद हमारे जीने का ढंग तुमसे अलग है
तुम्हारे षहरों के नजारों को देख,
आँखों में चुभन होती है
लेकिन षायद हम आदिवासी जंगली हैं, असभ्य हैं,,
जो तुम्हारी बातें नहीं समझ पाए।
तुम्हारे षहरों में कोई गली षांत नहीं,
कोई ऐसी जगह नहीं जहां सुनाई दे
वसंत में कोपलों का खिलना,
या किसी कीट के पंखों की सरसराहट।

लेकिन मैं तो असभ्य हूं।
और इसलिए षायद नहीं समझता तुम्हारी बातें
यहां का षोर कानों को चोट पहुंचाता है
ऐसे जीवन का क्या अर्थ जहां इंसान नहीं सुन सकता
एक जानवर के अकेलेपन का रूदन ?
या रात को किसी पोखर में मेंढकों का वाद-विवाद।

मैं एक आदिवासी हूं इसलिए तुम्हारी बातें नहीं समझता
हमें तो सुहाती हैं हवा की वो मीठी धुन
जो तालाब की सतह को छूती हुई निकल जाती है
और बारिष में मिट्टी की भीनी-भीनी खुषबू,
या फिर पेड़ों की महक से भरी हुई बयार।

हमारे लिए हवा बहुत कीमती है
क्योंकि सभी -पशु, पक्षी, तरू, मानव, उसी हवा में
साँस लेते हैं,
सब उसी को बाँटते हैं
लेकिन गोरे लोग इस हवा की परवाह नहीं करते
वैसे ही जैसे षैया पर पड़ा आदमी,
सुन्न हो जाता है दुर्गन्ध के प्रति।

फिर भी अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेचते हैं

तो जरूर याद रखना कि ये हवा हमारे लिए बहुत
कीमती है
यह मत भूलना कि हवा जीवों का पोषण करती है,
और सबके साथ अपनी आत्मा बाँटती है
इसी हवा में हमारे पुरखों ने ली अपनी पहली
और आखिरी साँस
यही हवा देगी हमारे बच्चों को जीवनदान
अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच देते हैं
तो इसे अलग रखना। पवित्र रखना।
जहां तुम गोरे भी कर सको सुगंधित बयार का अनुभव।
ठीक है, तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे

ल्ेकिन एक षर्त है मेरी -
धरती पर बसने वाले पशुओं को
समझोगे तुम अपना बंधु
मैं जंगली हूँ और षायद नहीं जानता कोई और
जीने का तरीका।

मंैने मैदानों पर हजारों भैंसों के सड़े-गले षरीर देखे हैं,
जिन्हें गोरों ने बेवजह चलती गाड़ी से मार दिया था
मैं सभ्य नहीं और नहीं समझ पाता -
कि कैसे धुंआ उड़ाती बेजान लोहे की गाड़ी
;सिएथल ने रेल को ‘स्मोकिंग आयरन होर्स’ कहाद्ध
उस पशु की जिंदगी से ज्यादा जरूरी है।
पशुओं के बिना मुनष्य क्या रह सकता है ?
अगर पशु न रहे,
तो मनुष्य भी
अकेलेपन की पीड़ा से खत्म हो जाएगा
और वैसे भी, जो पशुओं के साथ होगा
वही मनुष्य भोगेगा एक दिन
आखिर,, सभी कुछ तो जुडा है एक दूसरे के साथ।

अपने बच्चों को जरूर सिखाना
कि जिस जमीन पर चलते हैं
वो हमारे पुरखों की राख से बनी है
उस जमीन का आदर करना सीखें
अपने बच्चों को यह भी बताना
कि ये मिट्टी हमारे पुरखों की गाथा से समृद्ध हैं
कि धरती हमारी माँ है -
यह हमने अपने बच्चों को बताया
और तुम भी यही बताना।

इंसान ने नहीं बुना जीवन का ताना-बाना
वो तो सिर्फ उसमें एक तिनका है
उसके साथ वही होगा जो वो करेगा ताने-बाने के साथ।

हम तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे
कि उन आरक्षित स्थानों में चले जाएं,
जिसे तुमने हमारे लोगों के लिए अलग रखा है
हम अलग रहेंगे और षांति से रहेगे
इसका महत्व नहीं कि कहां बिताते हैं अपने षेष दिन

हमारे बच्चों ने हमारी पराजय को देखा है,
हमारे योद्धाओं ने लज्जा के कड़वे घूंट पिये हैं।
पराजय ने उन्हें उदासीन बना दिया है
आलस्य को षराब में डुबोते है और खत्म करते हैं वे
अपना षरीर।

अब कुछ फरक नहीं पडता कि कहां बिताते हैं हम बाकी

के दिन
वैसे भी हम गिनती में ज्यादा नहीं
चंद घंटे, कुछ और साल और फिर
उन महान कबीलों की कोई संतान षेष न रहेगी
जो कभी बेधड़क इस धरती पर घूमते थे
और अब छोटी टुकडियों में भटकते हैं
घने जंगलों के बीच -

कौन षोक मनायेगा उनके लिए
जो उतने ही ताकतवर और आषावादी थे
जितने आज तुम हो
पर क्यों करूँ मैं षोक अपने कबीलों के अंत का ?
आखिर कबीला है क्या - लोगों का एक समूह -
लोग आते हैं, चले जाते हैं,
से सागर की लहरें।

ये गोरे लोग भी
बच नहीं सकते उस सांझी नियति से जो सबकी एक है
षायद इसीलिए हमारा रिष्ता बंधुओं का ही है
पर यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

एक बात हम जानते हैं - हम सबका भगवान एक है
गोरे लोग भी षायद एक दिन ये बात जान जायेंगे
क्या तुम सोचते हो कि वो सिर्फ तुम्हारी मिल्कियत है ?
हमारी जमीन की तरह ? जो तुम ले लोगे हमसे एक दिन ?
नहीं, ये मुमकिन नहीं।
क्योंकि वो हम दोनों को एक नजर से देखता है।
उसके लिए यह धरती अमूल्य है
और इस वसुंधरा को हानि पहुचाना
उसके रचयिता का तिरष्कार होगा
एक दिन गोरे लोगो का भी अन्त आयेगा,
षायद और जातियों से भी पहले।

अपने वातावरण को यदि दूषित करोगे
तो देखना, किसी रात
तुम्हारा दम उसी गंदगी में घुट जाएगा
पर अपने विनाष में भी तुम चमकोगे,
उस भगवान के दिए हुए तेज से,
जो तुम्हंे धरती पर लाया,
और किसी विषेष उद्देष्य से
धरती का और आदिवासियों का षासक बनाया।

यह नियति हमारे लिए एक रहस्य बन गई
क्योंकि जब भैसों का वध होता है,
जंगली घोड़ंांे को पालतू बनाया जाता है,
जंगल के हर वनो में घुस जाती है
इंसानी भीड़ की गंध,
और पहाडो़ं का सुंदर दृष्य ढक जाता है
टेलीफोन के तारों से
तब नियति को हम समझा नहीं पाते
कहां गई हरियाली ? कहां गए विषाल पक्षी ?
कहां गए दौड़ते घोडे, वो षिकार का खेल ?

जीने का तो अब अंत आ गया है,
 षुरू हो गई है जिंदा भर रहने की कोषिष।
बेचने के प्रस्ताव पर विचार करेंगे,
तब षायद - अपनी मर्जी से
 तुम्हारी दी गई जमीन पर काट सकें आखिरी दिन।

जब धरती पर से अंतिम आदिवासी भी मिट जाएगा
तब ये समुद्र तट और बीहड़ वन,
मेरे लोगों की आत्मा संजोकर रखेंगे
मेरे लोग इस धरती को उतना ही प्यार करते हैं,
जितना माँ की धड़कन को एक नवजात षिषु।

इसलिए अगर हम तुम्हें जमीन बेचते हैं
वो वैसे ही प्यार करना उसे जैसे हमने किया
वैसे ही संवारना, जैसे हमने संवारा
अपनी पूरी ताकत, दिलो दिमाग से
संभालकर रखना इसे अपने बच्चों के लिए
और प्यार करना उतना ..................
जितना परम पिता हमसे करता है।

एक बात हम जानते हैं - हम सबका भगवान एक है
और ये भूमि ऐसे बहुत प्यारी है
गोरे लोग भी बच नहीं सकते
उस नियति से - जो सबकी एक है।
अंततः षायद हम बंधु हैं। .......... यह समय ही बताएगा।

                                                             (साभार: ‘इतिहास बोध’ - 35)

तो यह है जंगलों के प्रति आदिवासी नजरिया।
बहुत गम्भीर होकर सोचने की जरूरत है कि पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों की हरियाली को नष्ट कर कंकरीट के जंगल उगाने वाले कम से कम आदिवासी तो नहीं रहे। भरत झुंझुनूवाला जी जिस वर्ग का मानसिक प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी वर्ग ने प्रकृति की सत्ता के विरोध में अपनी भूमिका निभाकर कंकरीट के जंगल उगाये हैं और यही वजह है कि अब हर जागरूक इन्सान यह सोचने लगा है कि प्रकृति की ओर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं जिससे मानवजाति, अन्य प्राणी जगत और पेड़-पौधों को बचाकर ‘इकोलोजीकल बेलेंस’ बनाये रखा जा सके।