गुरुवार, 20 मई 2010

एकलव्य

कान पक गये सुनते सुनते - गुरू की महिमा आज्ञाकारी शिष्य दक्षिणा में अंगूठा ''मैं भी राजा का बेटा१ अधिकारी विद्या का'' एकलव्य, क्या ऐसा ही कुछ कहा नहीं तुमने आचार्य द्रोण को भोले तुम, आदिम-परंपरा में पला हुआ निर्मल मन गुरू था ''अनुबंधित'' समझाता हठ तो नहीं, विनय ही की थी घोर निरादरसने टके सा सुन जवाब उम्मीदों का ढूह ढहा छाती में जैसे तीर चुभा घर न लौट वस्तुतः गये गन चिन्ह वृक्ष तक ................................................................... १. एकलव्य निषादों के राजा (प्रमुख) हिरण्यधनु का पुत्र था। २. एकलव्य के आदिवासी कुल का गणचिह्‌न 'महुवा' का पेड़ रहा है। जहाँ- निकट नाले की गीली माटी से आचार्य द्रोण की मूर्त्ति बनायी जिसके चेहरे के भावों में - गुरूता नहीं, पक्षधरता की लघुता झलकी उस प्रतिमा को देख ''तू अनार्य तू निषाद तू शूद्र, नीच दीक्षा लेगा हमसे ?'' हाँ, यही शब्द टकराये होंगे कनपटियों से बार बार गूँजे होंगे मस्तिष्क कंदराओं के भीतर हृदय-सिंधु में उमडा होगा ज्वार घृणा का भोली आँखों के पर्दों पर खून सिमट आया होगा घनीभूत प्रतिद्गाोध-तरंगें दौडी होंगी अंग-अंग में दृष्टि टिक गयी होगी प्रतिमा के चहरे पर और स्वतः ही - बायां हाथ उठा आगे मुट्‌ठी में पकडा कसकर - धनुर्दण्ड के मध्यभाग को दाहिना हाथ गया तरकस पर बाण चढाया साधा खींची प्रत्यंचा कंधे तक ( परंपरा के आंगन में सीखा था सबकुछ चूक कहाँ, कैसे, क्यूं होती ) पहला तीर - बिंधा मस्तक '' लो, प्रणाम किया गुरू'' - कहा और कर दी बाणों की वर्षा थमी न होगी तब तक जब तक क्षत-विक्षत न हुई वह प्रतिमा यह ''दुस्साहस'' देख गुरू की आज्ञा से द्गिाष्यों ने छोड़ा होगा कुत्ता किंतु झपटने से पहले मुख बाणों से भर दिया बिन प्राण लिये भेजा वापस देखा - गुरू ने, द्गिाष्यों ने ''प्रिय श्वान ! बाण भरे तरकस सा जबडा लहूलुहान यह हाल !!'' (अद्‌भुत कोैद्गाल लेकिन दुस्साहस) एकलव्य, उस वक्त अकेले थे तुम वन में गुरू की अगुवाई में सब द्गिाष्यों ने घेरा पकडा, पटका तुम्हें धरा पर और अंगूठा......................... बर्बरता नाची होगी इर्द-गिर्द चहुँदिद्गिा में गूँजा क्रूर अट्‌टहास......... आदिम कुल-कौद्गाल का प्रतीक वह कटा अंगूठा धरती पर जब तड़पा कुछ पल उस वक्त बताओ एकलव्य, धोखे से घायल बाघ समान नहीं थे तुम चीखे-चिल्लाये नहीं दहाडे ही होंगे सुनकर दहाड बिन मौसम कड का आसमान कांपे थे सिंहों के अयाल बांसों में अंकुर फूटे थे थर्रायी खूनसनी धरती वन में आँधी भीतर भीतर दहले पर्वत, कुछ द्गिाखर ढहे होंगे - अवद्गय वह पेड हिला होगा जड तक मासूम परिंदे भौंचक्के उड भागे होंगे इधर उधर कोहराम मचा नभमंडल में ज्यों गाज गिरी हो अंचल में वह कटा अंगूठा एकलव्य, था मात्र देह का अंग नहीं कुछ था उसके पीछे जैसे - कौद्गाल की आदि-नदी अविरत श्रम का गहरा सागर संकल्पों का ऊँचा पर्वत स्वप्नों का अनन्त आसमान जन-संस्कृति की फलवती धरा उस सबको - हरने का प्रयास था छुपा हुआ उस घटना में (दो) फिर भी तुमने हार न मानी साधते रहे अपनी विद्या बिन अंगूठे का पंजा देखा बार बार घूमे वन में बदले की आग लिए मन में जैसे हो घायल बब्बर शेर सोचा, ''गुरू द्रोण नहीं दोषी प्रतिद्वंद्वी तो मेरा अर्जुन'' अनवरत काल का यात्रा पथ आ धमका अटल ''महाभारत'' देखा तुमको - दुर्योधन के दल में चौंके श्री कृष्ण खडे़ तुम अग्रभाग में ''हे अर्जुन, यह निषाद है खतरनाक धनुर्निपुण तुमसे बढ कर अब भी'' सुन अर्जुन दंग, अवाक्‌ आभा ललाट की क्षीण ज्यों, सूरज का तेज ढँका काले बादल ने एकाग्र दृष्टि तुम पर जिसको मछली की आँख दिखी उसको पूरे तुम दिखे काल जैसे दिल दहला, काँपा सारा तन आभास हुआ - चीते के आगे निरीह मृग ''दुर्भेद्‌य लक्ष्य कंपायमान है धनुर्दण्ड प्रत्यंचा खिंचती नहीं न ही सधते नाराच निस्तेज हुए दैवीय शस्त्र हे सखा-सारथी, बनों ईद्गा कुछ करो'' - कहा धीरे से गर्दन नीची कर ''मेैंने ली सौगंध - रहूँगा शस्त्रहीन यह भी कि लड़ूँगा नहीं अद्‌ृद्गय शक्ति छोडूँगा तो -ईद्गवर की छवि का क्या होगा? पर, प्रण यह भी - वर्चस्व तुम्हारा बना रहे'' वह - चौंसठ कला प्रवीण ''ईद्गा'' योगी चमत्कारी था बहुत अनुभवी जन्मों से साधन से बढ कर सदा साध्य का था साधक समझा सोचा सूझा विकल्प लीला अवतारी थाली से सूरज को ढंक सकता था उसके समक्ष छल का संबल ही था विकल्प रण-विधि विरूद्ध का कूट कृत्य वह गुप्त सुदर्द्गान चक्र बना जिसका माध्यम कितने भी महान धनुर्वीर आखिर में थे भोले निषाद सपनों में भी न देख पाये क्या होती है छल की माया ईश्वर अर्जुन अर्जुन ईद्गवर मानव-अवतारी मायावी थी शक्ति, निपुणता कई गुणी पर पुनः कपट की जीत हुई। (तीन) संघर्षों का क्रम लंबा था सतयुग से लेकर द्वापर तक आगे भी.................. द्वापर का वह महाभारत उस एक युद्ध की अल्पावधि में जाने कितने युद्ध छिड़े द्रोपदी, द्गिाखंडी कर्ण, द्रोण, अद्गवत्थामा अभिमन्यु, पितामह पांडुपुत्र, कौरव उनके साथी-संगी सबके- अपने अपने प्रण, प्रतिबद्धता, विवद्गाता सब लड े लड ाई निजी निजी तुम बिना लडे सिद्ध हुए एक महा-यौद्धा अर्जुन न लड सका तुमसे किस धर्मयुद्ध के लिए तुम्हें ''ईद्गवर'' ने मारा ? यह प्रद्गन काल के झोले में कब तक अनसुलझा ? मरते हैं व्यक्ति, न परंपरा प्रतिरोध - नदी बहती रहती घाटियां पार करतीं चट्‌टान तोड बढती - आगे चलती........ हाँ, एकलव्य - वह ईद्गवर था (अच्छा है अमर रहे, खुद्गा रहे स्वर्ग में) पर, मृत्युलोक का धर्म निभाना होता है उस महायुद्ध में जो हारे वे खत्म हुए जो जीते, वे चल दिये नियति की राहों पर (चार) अब रहा अकेला ईद्गवर कितना भटका था यहाँ-वहाँ (यह अलग बात - स्मृतियों में था पूर्वजन्म - बाली वरदान बैकुण्ठ - धाम) वह- अजर, अमर विभु, पूर्ण, द्गाांत, स्पृहाहीन - सच्चिदानंद अब - गहरा अंतर्द्वंद्व मकड़जाल स्वयं का बुना हुआ ''अरे सखा अर्जुन, एकलव्य-वध के प्रेरक, यह गहन ''द्वंद्व'' असफल ''गीता'' निस्वन यह वन बूढा पीपल जिसकी छाया में बैठा मैं अभ्यंतर पद्गचाताप सघन किस विधि प्रायद्गिचत करूँ आज -सौगंध तोड अमलिन निषाद को क्यों मारा ? सब चले गये -कौरव-पांडव, उनका दल-बल वसुदेव-देवकी नंद-यद्गाोदा रानियां नहीं हैं आसपास बलराम समाया सागर में यदुवंद्गाी ''मूसल'' ने मारे बच गया अकेला मैं एवं यह प्रद्गन ठूँठ सा - उस एकलव्य को कपट नीति से क्यों मारा ?'' निर्जन एकांत पवन स्थिर वन-प्राणी चुप वृक्षों में नहीं सरसराहट चहुँ ओर निपट नीरवरता जड़-चेतन सब द्गाांत किंतु ईद्गवर अद्गाांत (!) जिसके - कानों के पर्दों से टकराता जाता वही प्रद्गन ''बिन लडे लडाई अपनी उस यौद्धा को मैंने क्यों मारा ???'' अंततः- जीवन की कठोर धरती पर जंगल में जंगल का बदला मूर्त्तरूप जारा द्गाबर भील कुछ था तुमसे उसका रिद्गता -गुदडी के धागों सा पदमाक्ष चमकता या कि हरिण की आँख दिखी मौत का बहाना भ्रमित हुआ आखेटक या प्रतिद्गाोधातुर ? हत्या हंता प्रतिद्गाोध-बाण एवं अनंत का अंत (!)

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

अद्भुत पोस्ट, लेकिन पाठ मे असुविधा हो रही है. फिर से पोस्ट कीजिए.मेरे लिए यह एकलव्य का नया पाठ होगा.