बहुत लम्बी यात्रा कर चुकी मानवता के बीच-उसी के इर्द-गिर्द एक और मानवता है जो अति प्राचीन काल से प्रकृति के सानिध्य में अपनी अनूठी शैली का जीवन जीती चली आयी और भौतिक प्रगति की दृष्टि से अब भी कमोबेश वहीं की वहीं है- अपने आदिम सरोकारों और संस्कारों के साथ, जिसे हमने 'आदिवासी' नाम दिया है। कम से कम इस महादेश और समाज के लिए यह वह वर्ग है जो निर्विवाद रूप से इस राष्ट्र के मूल वासी हैं-युग युगों से जिन्हें पहले समतलों से पहाड़ों-जंगलों में धकेला जाता रहा और अब वहां से भी खदेड़ा जा रहा है।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह जब हम कविता के सन्दर्भ में समाज के किसी घटकको लेकर चर्चा करते हैं तो यह सवाल उठाया जाता है कि कविता तो कविता होती है, उसके बारे में यह वर्गीकरण क्यों कि यह दलित कविता, यह स्त्री कविता, यह आदिवासी कविता और इसी क्रम में अन्यान्य......? समाज के घटकों के आधार पर जब साहित्य की किसी विधा को बांटा जाता है तो अन्यथा प्रतिक्रिया होती रही है। यह प्रतिक्रिया प्रमुख रूप से तथा-कथित मुखयधारा से जुड़े महानुभावों द्वारा की जाती रही है। ये लोग िनिश्चत रूप से परम्परागत रूप से वर्चस्वकारी प्रभुवर्ग से सम्बन्ध रखते रहे हैं, चाहे जन्मना या कर्मणा। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अभिव्यक्ति का कोई भी अनुशासन और उसकी विधा जागतिक (भौतिक और मानसिक दोनो) जीवन में अनेकानेक पहलुओं से ताल्लुक रखते आये हैं यथा सभ्यता, संस्कृति आंचलिकताएं, ऋतुएँ, मनोददशा, तथा दृष्यादृष्य संसार के अनेकानेक पहलू। इसी क्रम में समाज के घटकों से सम्बन्ध रखने वाली साहित्यिक विधाओं को लेकर चर्चा करने में कोई हर्ज नहीं है और जब यह चर्चा समाज के उन घटकों को लेकर की जाती है जो किन्हीं भी कारणों से हािशए पर रहते आये हों चूँकि उनके परिप्रेक्ष्य में होने वाला िवमर्श उन्हें मुखय धारा में लाने का काम करेगा ना कि विखण्डन का। विचार के स्तर पर इसीलिए स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंखयक आदि को विषय वस्तु बनाने के प्रयास समय-समय पर किये जाते रहे हैं। किसी निष्कर्ष तक पहुँचाने में सहायक होता है। इसी पृष्ठभूमि में समकालीन आदिवासी, कविता पर आधारित यह प्रसंग उठाया गया है।
आदिवासी जीवन को लेकर जब कविता की बात की जाती है तो मौखिक परप्मरा ही समृद्व धरोहर के रूप में सामने आती है जो प्रमुख रूप से ग्रेय परम्परा रही है। आधुनिक या समकालीन कविता की दृष्टि से आंचलिक भाषाओं में अवद्गय कविता के माध्यम से जीवन के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति होती रही है लेकिन हिन्दी भाषा में आदिवासी कविता अभी शुरूआती दौर मे चल रही है।
आदिवासी इलाको में बाहरी तत्वों की घुसपेठ सबसे बडी समस्या रही है। यहीं से आदिवासी जीवन की पवित्रता में प्रदूषण शुरू होता है और अंत में आदिवासी अस्तित्व का संकट। ग्रेस कुजूर की कविता के अंश-
''........हे संगी क्यों घूमते हो/झुलाते हुए खाली गुलेल/ क्या तुम्हें अपनी धरती की/सेंधमारी सुनायी नहीं दे रही.......?''
नहीं, यह सब 'कूलड़ी में गुड फोड ना नहीं। यह सब डंके की चोट पर हो रहा है खुले आम। कुछ इस तरह-
''........पृथ्वी की सारी सभ्यता/एक भीमकाय रोड-रोलर की मानिंद/लुढकती आ रही है हमारी जानिब/और हम बदहवास/भाग रहे हैं खोह और गुफाओं की ओर....... (हरिराम मीणा)
आदिवासी जीवन की कल्पना प्रकृति के बिना सम्भव नहीं, प्रकृति के साथ छेड छाड आदिवासी के लिए आत्यन्तिक पीडा की बात है। संताली कविता में कहा गया है-
''....ढह गई बडी पहाडी/भसकी छोटी पहाडी/उल्टी पुल्टी हो गई दुनिया/ओ मेरे भाई........।''
तो ठीक, नहीं तो -''...........हमें सौपा है हमारे पूर्वजों ने/धन सम्पदा से सम्पन्न/ अपना राज्य/मानवता से परिपूर्ण।''
प्रकृति के साथ बेरहम छेड खानी केवल आदिवासियों के अस्तित्व का संकट नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता व मानवेतर प्राणी जगत के लिए खतरा है। पर्यावरण प्रेमियों के साथ आदिवासी कविता भी सुर मिलाती है। ग्रेस कुजुर कहती हैं-
''........इसलिए फिर कहती हूं/न छेडो प्रकृति को/अन्यथा यह प्रकृति करेगी भयंकर बगावत/और तब/न तो तुम होंगे/न हम होंगे।''
''धरती उजडी जंगल उजडे रह गया क्या शेष?''
इन हालात में मानवेतर प्राणियों के लिए भी सचेत है आदिवासी कविता-''...........चिड़िया भी शायद हमारी ही तरह/भूख, प्यास, बसेरा, मिलन व जुदाई की चिंता से/परेशान हो रही है।''
आदिवासियों ने तो सपने में भी यह नहीं सोचा कि उनके साथ ऐसा होगा। वे तो उन्मुक्त प्रकृति की गोद में रहे हैं-प्रकृति की भाव-भंगिमाओं के साथ गाते-नाचते। इसी उन्मुक्तता के रहते अभावों भरी जिन्दगी की भी उन्होंने परवाह नहीं की। समृद्ध प्राकृतिक परिवेश में सीमित आवश्यकताओं के साथ एक लंबी, विशुद्ध और सांस्कृतिक परंपरा रही है। जीवन का आधार रही यह प्राकृतिक संपदा, उनकी पुद्गतैनी भौम और सांस्कृतिक धरोहर उनसे छीनी जा रही है, जिसके लिए वे कतई तैयार नहीं और कोई माने या न माने वे इसके लिए कभी तैयार हो भी नहीं सकते। यह गंभीर संकट केवल आदिवासी वर्ग को झेलना पड रहा है।
प्रकृति एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का निकट सम्बन्ध रहा है जो अब गड बडा रहा है। ग्रेस कुजूर के ही शब्दों में-
''............अब कहां है वह अखरा (नृत्य स्थल)/किसने उगाए हैं वहां/विषैले नागफनी/बार-बार उलझता है जहां/तोलोंग का फुंदना........
इस संकट के प्रति अब तक आदिवासी-जन अनजान और मौन रहे। लेकिन अब यह चुप्पी कांवडे की कविता में टूट रही है-
''.......बस्तरिया आदिवासी भी अब/जानने लगे हैं/चुप्पी का दर्द/विद्रोह का सुख/वे समझने लगे हैं/अनपढ असंगठित रहने की पीडा..........''
आदिवासी स्वभाव से बहुत भोले होते हैं सब तरह से मैल-वंचित। वे नहीं समझ पाते उन चालाकियों को जो उनके विरूद्ध पनपती रही हैं। आदिवासी कविता बाहरी लोगो की साजिशों को पहचानने लगी है। निर्मला पुतुल लिखती है-
''........इन खतरनाक शहरी जानवरों को पहचानो चुड का सोरेन/.........तुम्हारे भोलेपन की ओट में/इस पेचदार दुनिया में रहते/ तुम इतने सीधे क्यों हो चुड का सोरेन?''
............................... तुम्हारे भोलेपन की ओट में/इस पेचदार दुनिया में रहते/ तुम इतने सीधे क्यों हो चुड़का सोरेन?''
...............................
''.....ये वो लोग हैं जो हमारे बिस्तर पर करते हैं/हमारी बस्ती का बलात्कार/और हमारी ही जमीन पर खडा हो पूछते/हमसे हमारी औकात!''
आदिवासी उसी तैयारी और तेवर के साथ मोर्चा बंद होंगे जिस तरह अंग्रेजों के सामने मानगढ की पहाडी और अबेर्दीन (अंडमान) के जंगलों में अकेले वे ही भिडे थे। कोई साथ दो तो ठीक, न दे तो परवाह नहीं।
सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से आदिवासी स्वायत रहते आये हैं। किसी बाहरी सत्ता की अधीनता का उन्होंने सदा विरोध किया है। देखिये बनजारा गीत-
'' सुनो राजा मेरा कहना/मेरी सलामी तुझे नहीं मिलेगी।''
आज आदिवासी अस्तित्व का संकट गहरा रहा है। मनुष्य ने मनुष्य को बहुत सताया है। स्त्री के रूप में आधी मानवता और दलितों के रूप में एक बडा वर्ग जीता जागता उदाहरण है हमारे सामने। (अब तक) बहुत कुछ लिखा और बोला गया है, इस बडे शोषित दलित वर्ग के लिए। इसी में हम अब तक मानते रहे आदिवासियों को भी। चीजों को सामान्यीकृत करने से पहले हम प्रत्येक स्वतन्त्र घटकों का अध्ययन करते हैं-उनकी विशिष्टता के आधार पर। इसलिए ''विविधता में एकता और एकता में विविधता'' एक स्वीकृत सत्य है। इस सूत्र को पकड कर अगर बात की जाए तो इस बडे, और अर्सा से सताए गए वर्ग की एकजुटता में आडे नहीं आते हुए, हमें आदिवासियों पर कुछ अलग और सही दृष्टि से चर्चा करनी चाहिए। गैर आदिवासी व्यापक समाज की स्त्रियों ने पुरूष वर्चस्व की त्रासदी भोगी है। शब्द के सीमित अर्थ में दलित वर्ग ने छुआ-छूत, जूठन, बेगार और मैला ढोने तक की अनेक त्रासदियों के बावजूद दुत्कार-फटकार-अस्वीकार झेला है। इस वर्ग की मूल समस्या समाज में रहकर भी सम्मान, गरिमा और अस्मिता के नकार की रही है, जबकि आदिवासियों की मूल समस्या अंततः अस्तित्व के संकट की बन चुकी है। दलित वर्ग अपने साथ हुए अन्याय और अन्यायकर्ताओं को भली-भांति पहचानता है और इसी आक्रोश को वह दलित साहित्य में व्यक्त कर रहा है। इस प्रक्रिया में उनके संकट से उबरने की प्रबल संभावनाएं हैं- संगठित प्रतिरोध की ताकत के साथ। आदिवासियों को तो यह भी पता नहीं कि उन पर यह अस्तित्व का संकट क्यों है ? वे भौंचक्का हैं, किन्तु मौन। इसलिए आदिवासी साहित्य के तेवर अलग होंगे। अस्तित्व के संकट की चरम सीमा मैंने अंडमान में देखी है। कविता में कुछ इस तरह-
''........जिन्होंने हमें गोलियों से भूना/वे इंसान थे/जिन्होंने हमें टापुओं से इधर-उधर खदेड़ा/वे इंसान हैं/और जो हमारी नस्ल को उजाडेंगे/ वो इंसान होंगे....।''
अस्तित्व का संकट है तो उसका विरोध विद्रोह के रूप में प्रकट होगा। ग्रेस कुजूर लिखती है-
''हे संगी/सम्भालो अपना तरकस/नहीं हुआ है भोंथरा अब तक/
बिरसा आबा का तीर/.......और अगर/अब भी तुम्हारे हाथों की/ अंगुलियां थरथराई/ तो जान लो/मैं बनूंगी एक बार और/सिनगी दई।''
आदिवासी कविता को विश्वास है अपने पर। वह शब्दों का नटी खेल नहीं है। वह शास्त्रीयता और जार्गन में छुपी बांझ रचना नहीं होगी। पुनः ग्रेस कुजूर के शब्द-
''......देखा कलम की धार/तुम्हारे लिए/हां तुम्हारे लिए/कलम मौसम बदलेगी/ कलम मौसम बदलेगी।'' वक्त की रफ्तार के साथ उन्हें पहाड़ों-जंगलों में धंसा दिया गया। फिर भी कोई बात नहीं, हजारों सालों से प्रकृति से अटूट रिद्गता जोडे रहे। उसे प्रगाढ करते चले गए। अब वहां से भी किसी न किसी योजना के बहाने खदेड ने की खतरनाक साजिशों, किसी बडे राजमार्ग या जनपथ में रोडा बना 'पत्थर' किसी समुदाय की भावना बन कर ताकतवर सरकार से नहीं हटता। प्रशासन अपनी छेडखानी की मनसा पर लमलेट होकर माफी मांग कर पीछा छुडाता दिखता है और यहां लाखों की तादाद में बिना किसी पूर्व सूचना, बिना पर्याप्त विकल्प के इन आदिवासियों को विस्थापित कर ही दिया जाता है। कोई मेधा पाटेकर बोले तो उसे विदेशी साजिशों का हिस्सा या राष्ट्रीय विकास विरोधी करार दिया जाता है। आदिवासी कुछ नहीं मांगते। उनके नाम पर चल रही योजनाओं के हिस्से को कौन डकार रहा है-वे तो कोई प्रश्न भी नहीं पूछते और उन्हें उनकी पुश्तैनी जमीनों से और जीवन में रची-रमी प्रकृति से इस कदर खदेडा जाए-यह कहां का न्याय है? इन साजिशों के खिलाफ आदिवासी कविता ही बोलेगी। ग्रेस कुजूर के यहां झारखण्ड है तो भुजंग मेश्राम के यहां महाराष्ट्र में भी वैसा ही दर्द अभिव्यक्त होता दिख रहा है-
''........उठो कि अपने अंधेरे के खिलाफ उठो/उठो अपने पीछे चल रही साजिशों के खिलाफ/अब उन्हें पता लग गया है/.........आज ना घने बीहड हैं/ना तू है/है केवल बीहडों में फैलता अंसतोष/........सच बताऊं/ अब हमें जल्दी है/ नहीं चाहते अब हम ओढी हुई सभ्यता/..........बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा।''
शेष अगली बार.....
1 टिप्पणी:
आपका यह आलेख बहुत ही सुंदर हे ,आदिवासयों का जीवन ओर संस्कार , समस्याएं,समाज में उनके स्थान के बारे में आप के विचार जमीन से जुडॆ हुए हे.
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