मंगलवार, 21 अप्रैल 2015






अलख प्रकाशन 
   31, शिवशक्तिनगर, किंग्स रोड,अजमेर हाई-वे, जयपुर-302019
   मोबाईल 094141 24101/09799665522
   ई-मेल hrmbms@yahoo.co.in

अलख प्रकाशन की पुस्तक-सूची
क्र.सं पुस्तक का नाम                               ले./सं.                            मूल्य     पृ०
१.मानगढ़ धाम                                 हरिराम मीणा (ले.)                    ९५     १६०
२.समकालीन आदिवासी कविता                    हरिराम मीणा  (सं)                    ७०      ९६
३.आदिवासी भारत (संस्मरण आदि)                टी.सी.डामोर एवं धनपतसिंह (सं.)         ७०      ९६
४.आदिवासी दस्तक (विमर्श)                      रमेशचंद मीणा (सं.)                   १००    १४४
५.आदिवासी कहानियां                           केदारप्रसाद मीणा (सं.)                 १००    १५०
६.आदिवासी लोकगीत                           भंवरलाल मीणा                       ८५     ११२
७.सी के जानू की जीवनी                        सुमित पी.वी. (अनु.)                   ५६       ५६
८.आक्रोश (मराठी उपन्यास)                      बाबाराव मडावी(ले.)लक्ष्मण पोतान्ना (अनु.) ६५       ८८
९.चित्रलेखा (भगवतीचरणवर्मा) एकमूल्यांकन                रमेशचंद मीणा एवं आदित्य कुमार गुप्ता   ७५   ११६
१०.मानगढ़ केन्द्रित साहित्य                     पिंटू कुमार मीणा (ले.)                       ९०       १२८
११.आदिवासी उपन्यास                          रमेश चंद मीणा (सं.)                   १००       १४८
१२.जंगल जंगल जलियांवाला (यात्रा वृत्तांत)         हरिराम मीणा (ले.)                   ७०          ११६
१३. साक्षात्कारों में आदिवासी                     दुर्गाराव (स.)                              १२०                   १६७  
१४.संस्मरणों में आदिवासी                रमेशचंद मीणा                       ९५             १२८  
१५. खाकी में कलमकार (संस्मरण)         हरि राम मीणा                       १००           १५८
१६. आदिवासी दस्तक (द्वितीय संस्करण)   रमेशचंद मीणा                        १००           १४४ 











शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

आदिवासी साहित्य की अवधारणा

                                                                      हरिराम मीणा
       जब हम समाज के किसी वर्ग को केन्द्र में रखकर उससे संबंधित साहित्य की बात करते हैं तो प्रथमदृष्ट्या यह सैद्धांतिक प्रष्न खड़ा होने की संभावना बनती है कि साहित्य साहित्य होता है उसका घटकीय वर्गीकरण करना गलत होगा। इस दृष्टि से नारीवादी साहित्य, दलित या आदिवासी चेतना का साहित्य या इससे आगे अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों के साहित्य की आवाज को यह कहकर नकारने की चेष्टा की जाती है कि इस कदर का बंटवारा साहित्यिक विखंडनवाद के सिवा कुछ नहीं। जब मुंषी प्रेमचंद साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं तो इसका अर्थ है कि साहित्य समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति का नाम है। विषेष रूप से भारतीय परिप्रेक्ष्य में, सवाल यह उठता है कि क्या साहित्य की परंपरा में जो कुछ अब तक सृजित किया जाता रहा है और वह भी लिपिबद्ध स्तर पर (चाहे बात हिन्दी, अंग्रेजी या संविधान में अनुसूचीबद्ध अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की हो) उसमें समग्र राष्ट्र-समाज की अभिव्यक्ति किस हद तक हुई है अर्थात् क्या समाज की सभी श्रेणियों को पर्याप्त और आधिकारिक स्थान दिया जाता रहा है? इस सवाल का जवाब कहीं न कहीं नकारात्मक रूप ग्रहण करता है। इसलिए स्त्री, दलित, आदिवासी व अन्य घटकों में साहित्यिक चेतना या आंदोलन की पक्षधरता सामने आती है। 
       उक्त पृष्ठभूमि में जब सीधे आदिवासी साहित्य की अवधारणा को समझने का प्रयास किया जाता है तो साहित्यिक परंपरा में स्थान की पर्याप्तता और आधिकारिता की बात उठती है। आखिर आदिवासी साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समांतर या पृथकत्व के स्तर पर किस तरह देखा और समझा जाए? आदिवासी साहित्य को समझने से पहले हमें आदिवासी समाज को समझना होगा कि वह तथाकथित मुख्यधारा के समाज से अलग क्या विषिष्टताएं रखता है? यहां यह बात भली भांति स्वीकार करनी चाहिए कि विष्व की समस्त मानवता आरंभिक अवस्था में आदिमशैली का जीवन जिया करती थी। धीरे-धीरे विकास की यात्रा के साथ अधिकांष जन-समूह आदिम अवस्था से आगे निकलते चले गए। जो मानव समुदाय अभी भी आदिम जीवनषैली की कुछ विषिष्टताएं संजोए हुए हैं वे मिलकर आदिवासी समाज के रूप में हमारे सामने दिखाई देते हैं। इन विषिष्टताओं में सबसे प्रमुख हैं प्रकृति की गोद में जीवन यापन, मानवेतर प्राणी जगत के साथ सहअस्तित्व की भावना, सामूहिकता का महत्व तथा निजी सम्पŸिा की अवधारणा का विकसित नहीं होना या उसका शैषवकाल में होना आदि। यहां आदिवासी समाज शेष समाज से पृथक होता है और यह पृथकत्व सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिकता के स्तर पर स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है। आदिवासी समाज के इस स्वरूप को साहित्य में कितना तथा कैसा स्थान दिया गया है, इस निकष पर ही आदिवासी साहित्य को परखा जा सकता है। 
       आदिवासी समाज को अब तक जिस नजरिए से देखा गया है उसमें एक नजरिए ने उस समाज को जंगली-बर्बर मानव समुदाय के रूप में देखा है। यह नजरिया हमें भारतीय वर्चस्ववादी मिथकों व इतिहास से लेकर उपनिवेषवाद के दौर से गुजरते हुए वर्तमान भद्रवादी मानसिकता तक में दिखायी देता है। यही वजह है कि हम आदिवासी समाज को मिथकैतिहास में राक्षस, असुर व दानव के रूप में चित्रित होता हुआ पाते हैं, ब्रिटिषकाल में ‘एक्सक्लूडेड‘ समुदायों के रूप में पहचाने जाने के लिए विवष किए जाते हैं और वर्तमानकाल में वनवासी या गिरिजन के रूप में परिभाषित करते हैं। यही नहीं, प्रत्युत् विकास विरोधी नक्सलियों के साथ जोड़ कर भी देखने की गलतफहमी कर देते हैं। दूसरा दृष्टिकोण आता है रोमांटिक अंदाज का। इस नजरिए से हम आदिवासी समाज को गणतंत्र दिवस की झांकियों या अन्य आयोजनों में होने वाली कौतुक-प्रस्तुतियों, ड्राइंगरूम सजावट, फिल्मों में आइटम दृश्यों के रूप में देखते हुए अंततः यह सामान्यीकृत प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भूल कर बैठते हैं कि ‘समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासी मस्ती से नाचता-गाता रहता है,’ यह ना समझते हुए कि आदिवासी की यह मस्ती उसका नैसर्गिक स्वभाव है न कि भौतिक दषा। बहरहाल, यह दोनों ही दृष्टिकोण आदिवासी समाज को समझने या समझाने में सफल नहीं होते।
       जब हम साहित्य में आदिवासी अथवा आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो आदिवासी समाज के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति उपरोक्त दोनों ही दृष्टिकोणों से प्रभावित नजर आती है। मुख्यधारा के लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति स्पेस के स्तर पर बहुत कम और आधिकारिता के स्तर पर सतही नजर आती है। जिन साहित्यिक रचनाओं में आदिवासी जीवन की गहन अनुभूति है वहां आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति साहित्य में हुई है और जहां अनुभव की गहनता नहीं या कम रही वहां यह अभिव्यक्ति सतही अथवा भ्रांति पैदा करने वाली दिखती है।  
       आदिवासी समाज की साहित्यिक अभिव्यक्ति को परखने के लिए विषयवस्तु के स्तर पर जो विषिष्टताएं पहचानी जानी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रकृति तत्वों में जंगल, पहाड़, नदी-नाले, वन्य जीवों में पशु-पक्षी-सरीसृप, मानवीय जीवन के आदिम सरोकार यथा सामूहिकता, कृषिकर्म के साथ आखेट व वनोत्पाद पर निर्भरता, अपने में खुलापन लेकिन बाहरी लोगों से झिझक, नैसर्गिक भोलापन, समृद्ध संस्कृति के विभिन्न उपांग आदि शामिल हांेगी। वहां महानगरीय दृष्य, स्वार्थ लोलुपता, गलघोंटू स्पर्धा, पूंजी, बाजार-तकनीक-विज्ञापन, मीडिया का नटी खेल, राजनीतिक-प्रषासनिक षड्यंत्र, मध्यवर्गीय मानसिकता के परिवर्तनकामी बौद्धिक बांझ विमर्ष व नारेबाजी, ग्लोबलाइजेषन के तिलिस्मी सब्जबाग वगैरहा-वगैरहा नहीं दिखाई देंगे।
       अंग्रेजी व संविधान की आठवीं सूची में शामिल भाषाओं में रचे गए लिपिबद्ध साहित्य में आदिवासी जीवन की अभिव्यक्ति के दायरे में रहकर जब इस विषय पर चर्चा की जाती है तो यह प्रतीत होता है कि आदिवासी साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। स्त्री मुक्ति व दलित चेतना के साहित्य की तुलना में यह बात काफी सीमा तक सही हो सकती है, लेकिन आदिवासी साहित्य को समझने के लिए हमें इस दायरे से बाहर निकलकर मौखिक परंपरा के साहित्य की जांच-पड़ताल करनी होगी। आज किसी भी भाषा में जो लिपिबद्ध साहित्य मौजूद है उस सबका आधार साहित्य की मौखिक परंपरा रही है जिसे हम प्रायः लोक की साहित्यिक परंपरा के नाम से चिन्हित करते रहे हैं। 
       मौखिक साहित्य के बारे में निम्न बिन्दुओं पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। 
1. हिन्दी, अंग्रेजी, अन्य प्रान्तीय भाषाओं की बजाय आदिवासी भाषाओं में यह साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
2. आदिवासी बोलियों को आदिवासी भाषा के रूप में जब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा तब तक आदिवासी साहित्य को उचित स्थान नहीं मिल सकेगा। 
3. इस साहित्य की विषयवस्तु में प्रकृति, मनुष्य एवं मानवेतर प्राणी जगत से संबंधित जीवन की समग्रता षामिल है।
4. आदिवासी साहित्य संविधान की पाँचवी एवं छठी सूची में सम्मलित आदिवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, प्रस्तुत इसमें घूमंतू एवं अन्य कबीले भी शामिल माने जाने चाहिए।
5. प्रायः आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य के वृहद् दायरे में ही माना जाता है। आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज का हिस्सा नहीं रहा जबकि दलित जातियां मुख्य समाज का हिस्सा रही हैं जहां उनका स्थान निम्न स्तर का रहा है। ऐसे सामाजिक परिपे्रक्ष्य में आदिवासी साहित्य को पृथक से देखा जाना चाहिए।
6. इस साहित्य में स्त्री का स्थान किसी भी स्तर पर पुरूष से कम नहीं पाया जाता  है। बाहरी तत्वों द्वारा आदिवासी स्त्रियों काष्षोषण पृथक विषय होता है।
7. आदिवासी मौखिक साहित्य में आदिवासी मिथक, किवदन्तियां व लोकोक्तियां पाई जाती हैं जिनके मूल यथार्थ को समझने के लिये अतीत एवं गहराई में जाना पड़ता है। इस संदर्भ में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी आदिवासी मिथकों को देखा जा सकता है। 
8. यह साहित्य प्रमुख रूप से करीब 100 आदिवासी भाषाओं में उपलब्ध है जिनमें भीली, गांेडी, मिजो, गारो, सन्थाली, किन्नोरी, गढ़वाली, बारली, खासी, बन्जारी प्रमुख हैं। 
लोक साहित्य की मौखिक परंपरा का मौलिक स्वरूप अभी भी आदिवासी वाचिक परंपरा के साहित्य में देखा जा सकता है जो लोकगीतों के विभिन्न रूपों, गल्प, कथावाचन, किंवदंतियां, पहेलियां, नाटक की विभिन्न विधाओं यथा लीला, स्वांग, बहुरूपिया कला आदि के रूप में उपलब्ध मिलता है।
आदिवासी लिपिबद्ध साहित्य का इतिहास पुराना नहीं है। यह अभी षैषव अवस्था में है जिसे गत करीब दो दषकों में देखा जा सकता है। इससे जुड़े प्रमुख मुद्दे निम्न प्रकार हैं - 
1. हिंदी में व्यवस्थित लिपिबद्ध साहित्य का संकलन ’युद्धरत आम आदमी’ के आदिवासी विषेषांकों में वर्ष 2002 में प्रथम बार किया गया।
2. इसके बाद अन्य पत्रिकाओं ने सहयोग दिया जिनमें दस्तक, अकार, कथाक्रम, इस्पातिका, सबलोग आदि प्रमुख हैं। 
3. गत करीब 25 वर्ष से निकल रही त्रैमासिक पत्रिका ’अरावली उद्घोष’ केवल आदिवासियों को समर्पित रही है जिसका आरम्भ उदयपुर, राजस्थान से स्वर्गीय श्री वी0पी0 वर्मा पथिक ने किया। 
4. इस साहित्य की दृष्टि से आदिवासी साहित्य सम्मेलनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। दो राष्ट्रीय सम्मेलन अब तक दिल्ली एवं राची में हो चुके हैं। 
5. इसी क्रम में अखिल भारतीय आदिवासी लेखक मंच की स्थापना के महत्व को देखा जा सकता है। 
6. इस साहित्य में परम्परागत विषयवस्तुओं से पृथक नये विषयों का समावेष हो रहा है जिसकी वजह आदिवासी क्षेत्रों पर बाहरी दबाव, विकास बनाम विस्थापन, वैष्वीकरण, राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के तथाकथित प्रयास एवं आधुनिकरण आदि शामिल हैं। 
7. चैतरफा दबावों के चलते साहित्य की सहज, सरल व स्वाभाविक विषय-वस्तु के स्थान पर दबाव, अन्तर्विरोध, आषंका, चिन्ता, भय, प्रतिरोध जैसी मनोदषा की अभिव्यक्ति प्रमुखता से सामने आ रही है। 
       आदिवासी साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र का जहां तक प्रष्न है तो यह कहना उचित होगा कि लिपिबद्ध आदिवासी साहित्य अभी नया नया है इसलिए इसका मूल्यांकन, प्रतिमान-विष्लेषण, प्रवृत्तियों की पहचान, षिल्प एवं सौन्दर्ययषास्त्र संबंधी अन्य विषयों पर षोध कार्य, विमर्ष एवं चिन्तन किया जाना षेष है, फिर भी कुछ प्रवृत्तियांे पर चर्चा की जानी चाहिए।
1. अभिव्यक्ति की भाषा एवं मुहावरा आदिवासी परम्परा की मौलिकता से जुड़ा हुआ है। बाहरी प्रभाव कम मात्रा में है। यह स्थिति आदिवासी लेखकांे के संदर्भ में विषेष रूप से स्पष्टतः देखी जा सकती है। 
2. जहाँ तक आदिवासी विषयों पर गैर आदिवासी साहित्यकारों के लेखन का प्रष्न है तो उनके यहां परिष्कृत भाषा व मुहावरा है जो राष्ट्रीय मुख्य धारा से संबंध रखता है चाहे वह लेखन हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में किया जा रहा हो। उदाहरण के तौर पर महाष्वेता देवी, अरूणधति राय, सुदीप बनर्जी, चन्द्रकान्त देवताले आदि के लेखन में देखा जा सकता है।
3. आदिवासी साहित्य के षिल्प व सौन्दर्य बोध को समझने के लिये मुख्य धारा के प्रचिलित प्रतिमान काम नहीं आयेंगे। इस साहित्य को समझने के लिए आदिवासी समाज के अतीत, लम्बी परम्परा, संस्कृति, समग्र जीवन, भविष्य की आपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं आदि को समझना होगा।  
4. आदिवासी साहित्य अपने षिल्प व भाषिक मुहावरा के साथ सामने आयेगा। इसे समझने के लिए जापानी कविता के प्रेरणा-पुरूष इषिकावा ताकुबोको के इन शब्दों को यहां उद्धृत किया जाना ठीक होगा - ’’षिल्प और भाषा, वस्तु और जीवन-दृष्टि के अनुरूप स्वयं बदलते चलते हैं, उन्हें अलग से बदलने की जरूरत नहीं पड़ती।’’
दरअसल, होता यह है कि जब हम चीजों को गहरायी में नहीं देखते तो कई भ्रांतियों के षिकार हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ आदिवासियों के जीवन और उस पर लिखे गये साहित्य के साथ होता आया है। उदाहरणार्थ, आदिवासी कुम्भ के रूप में विख्यात बेणेष्वर धाम के सालाना मेले में लाखों आदिवासी इकट्ठा होते हैं तो सैलानी वहाँ जाकर अर्द्धनग्न नहाती हुई युवतियों के फोटो खींचने का मानस बनाते हंै। आदिवासी युवतियों की देह में उन्हें गोल-गोल गाल, उन्नत उरोज, पुष्ट जंघाएँ, मदमाता यौवन और न जाने क्या-क्या नजर आने लगता है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि आदिवासी लोगों का असल जीवन कैसा है। वहाँ सौ तरह के अभाव हैं - अषिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी, दुर्गम रास्ते, अपर्याप्त आवास, दिनभर की थकान और रातों का अंधेरा ..............। कितनी तकलीफें हैं उनके जीवन में, यह कोई नहीं देख पाता। ऐसे ही पूर्वाग्रहों और भ्रमों से युक्त अभिव्यक्ति आदिवासियों पर लिखे गये साहित्य में हुई।
       इसका तात्पर्य यह नहीं कि आदिवासी जीवन पर गैर आदिवासी रचनाकारों ने अब तक जो लिखा है वह सब खारिज करने लायक है। 
       आदिवासी मौखिक साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य में शामिल करने के लिए हमें दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रथम, विभिन्न आदिवासी भाषाओं में रचे हुए साहित्य का संकलन अपने आप में एक बड़ा कार्य है। इसके लिए संबंधित आदिवासी भाषा की आधिकारिक जानकारी आवष्यक होगी ताकि मौखिक साहित्य से जुडे़ हुए लोगों से जानकारी प्राप्त की जा सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि आदिवासी वाचिक परंपरा में जो साहित्यिक रचना सृजित की गई है वह सब सामूहिक स्वरूप में दिखायी देती है। यह पता लगाना मुष्किल है कि किस रचना या उसके किसी अंष का सृजन किस व्यक्ति द्वारा किया गया। इस परंपरा में रचनाकर्म के स्तर पर व्यक्ति विषेष महत्वपूर्ण नहीं होता और ना ही उसकी पहचान आसानी से की जा सकती है। रचना निष्चित रूप से व्यक्ति के स्तर की भावभूमि से पैदा होने की संभावना रखती है, लेकिन वह सामूहिक कर्म में शामिल होती जाती है। इस सामूहिक सृजनात्मक के साथ रचनाकर्म की गत्यात्मकता अन्य महत्वपूर्ण तत्व है और यही तत्व मौखिक साहित्य को नैरंतर्य देता हुआ परंपरावाही बनाता है जो स्वतः ही समय के साथ नित-नया बनने की संभावना और क्षमता रखता है। इस दृष्टि से विषय-वस्तु, षिल्प, भाव व मुहावरा आदि के साथ इस मौखिक साहित्य को समझते हुए संकलित करना या संकलन की प्रक्रिया में समझते हुए सामने लाना अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है। 
       दूसरे, आदिवासी मौखिक साहित्य को मूल भाषा में संकलित करने के बाद उसका हिन्दी-अंग्रेजी या अन्य आंचलिक (संविधान में अनुसूचीबद्ध) भाषाओं में अनुवाद की बड़ी चुनौती हमारे सामने प्रस्तुत होती है। आदिवासी जैसे ‘स्वयं में खुले’ लेकिन बाहरी दुनिया के लिए ‘बंद समाजों’ की भाषा में रची वाचिक परंपरा की साहित्यिक रचनाओं को दीगर भाषाओं में अनूदित करना अनुवाद की चुनौती को और पेचीदा बना देता है। यहां द्विभाषिक ज्ञान के साथ-साथ साहित्य से अधिक जानकारी उस समाज की भी अपेक्षित हो जाती है। इसलिए अनुवाद केवल साहित्यिक कर्म तक सीमित नहीं रहता, प्रत्युत् वह रचनाकर्म की परंपरा-भाव-पृष्ठभूमि की गहरायी में उतरने की मांग भी करता है। 
       आदिवासी साहित्य चाहे वह वाचिक परंपरा से संबंध रखता है या सीधा-सीधा लिपिबद्ध रूप में हमें उपलब्ध हो रहा है, दोनों ही दषाओं में उसकी परख का सवाल एक बड़े सवाल के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। यहां आलोचना के स्थापित प्रतिमान शायद निकष के रूप में ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो। साहित्यिक मूल्यांकन के लिए स्थापित प्रतिमानों के कुछ स्थायी सूत्र काम में आ सकते हैं जिसे हम ‘आलोचना की समझ’ कह सकते हैं अन्यथा विषयवस्तु, षिल्प, भाव पक्ष व मुहावरा इन सभी स्तरों पर आदिवासी साहित्य तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य से इतर अपनी विषिष्टताएं रखता है। उसे समझने के लिए एक सही दृष्टि की दरकार रहेगी जो जरूरी नहीं कि साहित्य के हर किसी प्रतिष्ठित समीक्षक या विद्वान के पास हो। यह दिक्कत स्त्री व दलित साहित्य की परख के क्षेत्र में भी पैदा होती रही है पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री व दलित चेतना का साहित्य समाज के उन वर्गों का साहित्य है जो मुख्य समाज का हिस्सा रहे चाहे सामाजिक स्तर पर हाषिए या दोयम दर्जे पर ही क्यों न रखे गए। आदिवासी समाज उस रूप में शेष समाज का हिस्सा न रहकर वह संस्कृति, परंपरा व भौगोलिकता के स्तर पर पूरी तरह अलग-थलग रहता आया, इसलिए उसकी तल्खी, तासीर व तेवरों को समझने के लिए ‘आलोचना की समझ’ की दृष्टि के साथ आदिवासी नजरिए का चष्मा भी जरूरी होगा। 
       आदिवासी समाज को समझने के लिए जिस कदर भ्रांतियां पैदा होती या की जाती रही हैं उस प्रकार की भ्रांतियां आदिवासी साहित्य की परख की प्रक्रिया में पैदा न हों, इसलिए हमंे बहुत सावधानी और सतर्कता बरतनी होगी। 
       यहां मैं एक उदाहरण देना समीचीन समझता हूॅं। आदिवासी साहित्यिक विषयों पर शोध के इच्छुक छात्रों के साथ मुझे विमर्ष करने का मौका पिछले दिनों केन्द्रीय विष्वविद्यालयों हैदराबाद, गुजरात, अमरकंटक व राज्य विष्वविद्यालयों राजस्थान व इन्द्रप्रथ दिल्ली में मिला। पांचों ही जगह जब मैंने छात्रों से आदिवासी समाज की छवि के बारे में पूछा तो प्रारंभिक जानकारी प्राप्त की तो मुझे बताया गया कि ‘आदिवासी अंचलों में शोध के लिए फील्ड सर्वेक्षण हमारे लिए कठिन होगा, चूंकि 1. आदिवासी लोग बाहरी लोगों पर अकारण हमला कर देते हैं, 2. आदिवासी लोग मांसाहारी होते हैं जो हमें मांस खाने के लिए विवष करेंगे, 3. आदिवासी लोग शराबी होते हैं, वे हमारे साथ कुछ भी अप्रिय घटित कर सकते हैं।’ मैं यह सब धैर्य से सुनता रहा और अंत में मैंने यह जोड़ा कि ‘आपने यह भी तो सुना होगा कि आदिवासी लोग नरभक्षी भी होते हैं!’ विषेष रूप से अंडमान के आदिवासियों के बारे में नरभक्षण की भ्रांतियां पैदा की जाती रही हैं जबकि वहां का यथार्थ यह रहा है कि वे अपने क्षेत्र में घुसने वाले बाहरी लोगों पर यदा-कदा हमला करते रहे हैं, यहां तक कि एकाध दृष्टांत मारकर जलाने के भी बताए जाते हैं। नरभक्षण का कोई उदाहरण अभी तक हमारे सामने नहीं है। हमला करने, मारने या जलाने की घटनाओं की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी होगा। यह समझ तब होगी जबकि हमें अंडमान में हुई अबेर्दीन की उस लड़ाई का ज्ञान हो जब अंग्रेजी फौजों ने सन् 1859 में अंडमान के आदिवासियों को अपनी आजादी की लड़ाई लड़ते हुए गोलियों से करीब ढाई हजार की संख्या में भूना था। तभी से अंडमान के आदिवासी बाहर के लोगों से घोर घृणा करते रहे हैं। 
       तो विमर्ष के दौरान छात्रों द्वारा मुझे वो बताया गया जो उन्होंने अब तक सुन रखा था और जो सही नहीं था। जब आदिवासी समाज के बारे में इस तरह की भ्रांतियां फैली हुई हंै तो आदिवासी साहित्य को समझने का सवाल उठेगा। 
       
                                                        31,षिवषक्तिनगर, किंग्सरोड़, 
                                                       अजमेर हाई-वे, जयपुर-302019
                                                        ई-मेल ीतउइउे/लंीववण्बवण्पद
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मंगलवार, 31 मार्च 2015



'जनसत्ता' अखबार में देखिये.


:epaper.jansatta.com/46…/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-2932015…
‘डांग’ उपन्यास का संक्षिप्त परिचय
राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश के सीमा के पठारी-बीहड़ी क्षेत्र को ‘डांग’ के नाम से जाना जाता है. इसी इलाके में होकर बहती है चम्बल नदी जिसे दस्यु प्रसूता नदी भी कहा जाता है. रोबिनहुड किस्म के डाकू मानसिंह तोमर से लेकर सुल्तानसिंह, माधोसिंह, पुतली बाई, मोहरसिंह, फूलन देवी और जगन गूजर तक की लम्बी दस्यु समस्या और औरतों की खरीद फ़रोख्त के लिए बदनाम रहे इस अंचल को केंद्र में रखकर यह उपन्यास हरिराम मीणा द्वारा रचा गया है. कथाकार ने इस अंचल के भरतपुर एवं धौलपुर जिलों में करीब एक दशक तक की अवधि फील्ड पुलिस अफसर के रूप में यहाँ गुजारी है.
दस्यु एवं महिलाओं की खरीद फ़रोख्त तथा वैश्यावृत्ति जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उजागर करते हुए इस कृति में अंचल की अन्य समस्याओं यथा गरीबी, कन्या वध, खनन स्थलों की समस्या, दलित एवं जातिवाद, गुजर-मीणा विवाद, राजनीति, विकास, पर्यटन आदि को छूते हुए संस्कृति के विभिन्न पक्षों को स्थान देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.
लेखक ने बहुत गहराई में शोध करने के पश्चात् इस पुस्तक को अंजाम दिया है. यह रचना समस्यामूलक आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में वर्गीकृत की जा सकती है. इस उपन्यास में समाहित आंचलिक मुद्दों को इससे पूर्व किसी लेखक ने इस कदर अभिव्यक्त नहीं किया है.
उल्लेखनीय है कि लेखक का पहला उपन्यास ‘धूणी तपे तीर’ शीर्षक से वर्ष दो हजार आठ में प्रकाशित हुआ था जिसके तीन संस्करण अब तक आ चुके हैं. वह ऐतिहासिक उपन्यास उपनिवेशवाद विरोधी आदिवासी संघर्ष पर केन्द्रित है. बिड़ला प्रतिष्ठान के बिहारी पुरष्कार से सम्मानित वह कृति काफी चर्चा में रही है. प्रस्तुत कृति उससे आगे की यात्रा कही जा सकती है.

हरिराम मीणा – परिचय
राजस्थान के जिला सवाईमाधोपुर के ग्राम बामनवास में एक मई उन्नीस सौ बावन में जन्म. राजस्थान विश्व विद्द्यालय से राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री.
सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक.
अब तक दो कविता संकलन, एक प्रबंध काव्य, दो यात्रा वृत्तान्त, एक उपन्यास, आदिवासी विमर्श की एक पुस्तक और समकालीन आदिवासी कविता (सम्पादित). विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व दूरदर्शन से रचनाएँ, वार्ता आदि का प्रकाशन एवं प्रसारण.
जयपुर दूरदर्शन के ‘गश्त पर’ सीरियल में भूमिका एवं ‘रूबरू’ सीरियल के लिए तथा ब्रिटिशकालीन आदिवासी संघर्षों पर शोध. भारतीय मिथकों के डिकोडीकरण व आदिवासी विषयों पर विशेषरूप से कार्यरत.
इनके साहित्य पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के करीब चार दर्ज़न शोधार्थी एम्.फिल. तथा पी.एच.डी. कर रहें हैं. इनकी पुस्तकें रांची, वर्धा, हैदराबाद, दिल्ली, जोधपुर एवं राजस्थान विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में शामिल हैं.
वन्यजीव संरक्षण के लिए पद्मश्री सांखला अवार्ड, डा० आंबेडकर राष्ट्रीय पुरष्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोच्च मीरां पुरष्कार, केन्द्रीय हिंदी संस्थान द्वारा महापंडित राहुल सम्मान एवं बिरला प्रतिष्ठान के बिहारी पुरष्कार से सम्मानित.

सम्प्रति-
अध्यक्ष, अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच, नई दिल्ली
निदेशक, सोसाइटी फॉर स्टडीज इन दा एरियाज ऑफ़ ट्रेडीशन एंड ह्यूमन डिगनिटी
माननीय राज्यपाल, राजस्थान के प्रतिनिधि, बोर्ड ऑफ़ मेनेजमेंट, जनजातीय विश्व विद्द्यालय, उदयपुर
विजिटिंग प्रोफ़ेसर, केन्द्रीय विश्व विद्द्यालय, हैदराबाद

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बंजारा आदिवासियों से रूबरू- पहचान की तलाश 


बंजारा आदिवासी समाज पर सोचते हुए मुझे इस वक्त याद आ रहा है बंगलुरु जब वहां अखिल भारतीय बंजारा भाषा सेमिनार आयोजित किया गया था. बंजारा समाज के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से मेरा परिचय वहीँ हुआ था. वैसे मैं उनमें से कुछ को पहले से जानता था. सेमिनार के जिस सत्र में मुझे अपनी बात कहनी थी तब मेरे मन में यह बात बैठी हुई थी कि बंजारा लोग मूलत: राजस्थान से ताल्लुक रखते हैं. उसी प्रांत से उनका निकास है जो अलग अलग काल-खण्डों में हुआ जिसकी खास वज़ह आर्य-अनार्य संग्राम श्रृंखला, अकाल तथा अन्यथा रोजी रोटी की तलाश रही. तभी से शायद उनका नाम घूमंतू बंजारा पड़ा, अन्यथा किसी ज़माने में वे भी अन्य आदिवासी समुदायों की भांति फलवती धरा के मालिक हुआ करते थे. आदिवासियों के विस्थापन के प्राचीन और आधुनिक इतिहास का मुद्दा अलग से महत्वपूर्ण विमर्श की दरकार रखता है जिस पर पृथक से बात की जानी चाहिए. यहाँ इतना ही कि भारतीय जन समुदायों में यही एक ऐसी कौम मुझे दिखती है जो कहीं भी चले गये हों मगर अपनी  संस्कृति विशेष रूप से भाषा और पहनावा परंपरागत ही रखते गये. इनकी भाषा को ‘गोरबोली’ के नाम से जाना जाता है. और वस्त्राभूषण तो चिरपरिचित अंदाज़ में हम देखते ही रहे हैं खासकर घाघरा-लूगड़ी और चूड़ियाँ. इनका विख्यात गीत ‘बंजारा’ ‘चमचम चमके चूनड़ी बंजारा रे.... आ थोड़ो सो म्हारे संग नाच ले बंजारा रे...’ सुनने वालों को भाव विभोर कर ही देता है.
बंगलूरु के उसी सेमिनार में मेरी मुलाकात हुई थी दिल्ली से आये भाई राधेश्याम मालचा से जो अपने वक्तव्य के दौरान इतने भावुक हो गये थे कि उनसे बोला ही नहीं गया. जो बंजारा समाज किसी ज़माने में वर्तमान दिल्ली के राष्ट्रपति भवन व संसद तथा हैदराबाद के बंजारा हिल्स के इलाके का मालिक था वह आज अपनी बस्तियों जिन्हें ‘टांडा’ कहा जाता है, को गाँव का दर्ज़ा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है. जिस मानवता की बस्तियों को पहचान नहीं दी जाये उससे बड़ी अस्मिता की त्रासदी क्या होगी. यही तो दुःख था राधेश्याम मालचा का. उसी ने मुझे बताया था लक्खीशाह बंजारा के बारे में जिसका नाम लक्खीशाह लाख टकों के मालिक होने से सम्बन्ध नहीं रखता बल्कि लाख की संख्या में बैलों के रेवड़ के मालिक होने से सम्बन्ध रखता था. वह हुआ था सिख गुरू गोविन्द सिंह के ज़माने में. जब औरंगजेब के हुकुम से गुरू गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों की हत्या कर दी थी तब यही लक्खीशाह बंजारा था जो बादशाही बहशियाना से उन दो किशोरों को तो नहीं बचा सका लेकिन उनके कटे हुए शीशों को अपनी बैल गाड़ियों में छिपाकर गुरू गोविन्द सिंह तक पंहुचा सकने का साहस कर सका था.
राधेश्याम मालचा स्वयं को उसी बंजारा महापुरुष का वंशज मानता है. उसी राधेश्याम ने मुझे लक्खीशाह बंजारा की कब्र का ठिकाना बताया था जो राष्ट्रपति भवन के पिछवाड़े में सुरक्षित जंगल में अवस्थित है. बंगलूरू से आने के बाद जब मुझे दिल्ली जाने का अवसर मिला तो मैं सीधा गया था लक्खीशाह बंजारे की उसी कब्र को तलाशने. मैंने वह स्थान देखा है. राधेश्याम ने ही मुझे बताया था कि अंग्रेजों द्वारा अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करने से पूर्व राजधानी का खास क्षेत्र अर्थात राष्ट्रपति भवन, संसद, नार्थ-साऊथ ब्लोक्स वाली जगह पर लक्खीशाह बंजारा का टांडा (बस्ती) हुआ करता था जहाँ उसका कबीला एक लाख की तादात में बैलों के साथ रहा करता था. इर्द गिर्द अन्य गाँव थे. जहाँ तक मेरी जानकारी है इक्कीस गांवों की भूमि पर कब्ज़ा करके अंग्रेजों ने नई दिल्ली को बसाया था. वैसे दिल्ली सन सौलह सौ उनचास से अठारह सौ सत्तावन तक मुगल बादशाहों की राजधानी रही थी मगर वह आज की पुरानी दिल्ली हुआ करती थी जिससे ग़ालिब को बेहद मुहब्बत थी.
ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मेरी के दिल्ली आगमन के अवसर अर्थात दिनांक बारह दिसम्बर उन्नीस सौ ग्यारह के दिन आयोजित दिल्ली दरबार में दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा की गयी थी. राधेश्याम ने मुझे यह जानकारी भी दी कि उन्नीस सौ ग्यारह में लक्खीशाह के वंशजों से दिल्ली की वह हृदय-भूमि सौ साल के पट्टे के आधार पर अधिगृहित की बताई. मैं दो हजार बारह के किसी दिन पुन: दिल्ली में था जब मैंने फोन पर राधेश्याम से कहा था कि ‘अब दिल्ली पट्टे के सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं. अपनी पुश्तैनी जमीन वापस लेने का वक्त आ गया है.’ हम सब जानते हैं ग्लोबलाईजेशन और हाई-टैक के इस युग में बंजारा समाज से दिल्ली बहुत दूर हो गयी है. अब तो भूमि अधिगृहण के नवीन अध्यादेश के बाद किसानों और आदिवासियों की बचीखुची जमीनों पर भी तथकथित विकास के नाम पर सरकार तथा देशी विदेशी पूंजी-कंपनियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है. कब कहाँ बिना नोटिस कब्ज़ा कर लिया जाये और वासिंदों को विस्थापित कर दिया जाये, कहा नहीं जा सकता.
हैदराबाद की बंजारा हिल्स के करीब से तो मैं दर्ज़नों दफा गुजारा हूँ जहाँ कभी बंजारों की बस्ती हुआ करती थी अब सेठों, राजनेताओं, फ़िल्मी हस्तियों के आलीशान भवन हैं. लेकिन सब चीजों का फ़ैसला वक्त ही करता रहा है. इस बार जब मैं हैदराबाद गया तो पता चला कि बंजारा हिल्स कोलोनी में जलापूर्ति की विकट समस्या आ पड़ी है. जल जैसी अनिवार्य वस्तु के अभाव में ‘बड़े आदमियों’ की कोठियों के लान, बगीचों व बाथरूमों की रौनकें फीकी पड़ती जा रही हैं. लोग उन भवनों को बेचने लगे हैं. सुना है वहां जमीनों एवं भवनों की कीमतें काफी कम हो गयी हैं. बंजारा समाज तो इस दशा में है नहीं कि अपनी जमीनों को खरीदकर वहां पुन: डेरा डाल सके. अब भी खरीदने वाले कोई और ही होंगे. यहाँ मुझे मेरी एक नन्हीं कविता याद आ रही है. ‘जो लोग नहीं थे जमीनों से जुड़े, वे ही जमीनों को ले उड़े.’
बंजारा लोग बड़े ईमानदार होते हैं यह मैंने बचपन में सुना था. तभी से  बंजारा समाज के प्रति मेरी रूचि रहती आई है. मेरे गाँव में बंजारा समाज की दोनों खांप आया करती थी जिनमें प्रमुख ‘बड़द’ बंजारे जो बड़द अर्थात बैलों का व्यापार करते थे. दूसरे थे लमाना या लम्बाना अथवा लम्बानी जो लवण यानी कि नमक का कारोबार वस्तु विनिमय पद्दति के आधार पर किया करते थे. मेरे गाँव के दो तीन साहूकार बंजारों को ब्याज पर रकम दिया करते थे. तभी मैंने यह सुना था कि बंजारों को दिया गया पैसा कभी नहीं डूबता. हमारे इलाके में बंजारों के बहुत सारे कुँए अभी भी मिल जायेंगे. जहाँ उनका अस्थायी डेरा लगता था वहां पानी के प्रबंध हेतु वे लोग कुँए खुदवा दिया करते थे जो उनके जाने के बाद इलाके के वाशिंदों के उपयोग में आया करते थे. यह भी खबरें, अफवाहें अथवा चर्चाएँ हुआ करती थीं कि अमुक जगह पर बंजारों का गढा हुआ खजाना मिला. लोगों की ज़बान पर हुआ करता था कि जहाँ बंजारे अपना डेरा डालते थे उनमें से कुछ स्थानों पर वे अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए जमीन में गाड़ दिया करते थे. ये बातें बड़द बंजारों से ज्यादा ताल्लुक रखा करती थीं.
मैं बंजारा समाज द्वारा बोली जाने वाली गोरबोली से थोड़ा बहुत परिचित हूँ चूँकि यह मेरे राजस्थान की भाषा है. मैं कहीं भी बस गये बंजारे भाइयों से जब बातें करता हूँ तो अपनी बोली में बातें कर सकता हूँ. वे खूब समझते हैं रामराम सा, टाबर, बड़द जैसे शब्दों को. गोरबोली की बानगी के लिए यहाँ एक पैराग्राफ दे रहा हूँ जो बंजारा संत सेवालाल से सम्बंधित है-
‘संत सेवाभाया अपणे जीवने मा बंजारा न केतो कि सदा सासी बोलणु. हर वाते न सोंच समझन केवणु. गोर-गरीबु र दखदाल दूर करणु. घरबार आच्छो रखाडाणु. दूसरे न न सतावणु. पापे तीं छेटी रेवणु. नशाबाजी करणु छोड़ो. चोरी मत करो. सदा प्रभु न हरदेमा रकाड़ो.’
बंजारा समाज में संत सेवालाल का बड़ा ऊंचा स्थान है. वे बड़े संत और समाज सुधारक थे. एक और महान विभूति इस समाज में हुई थी जिनका नाम है गोविन्द गुरू. राजस्थान के जिला डूंगरपुर के बासिया गाँव के रहने वाले उस महापुरुष ने अंग्रेजी और सामंती शोषण के खिलाफ अलख जगाने का काम किया था. उनके संगठन का नाम था सम्पसभा. उस आन्दोलन में ब्रिटिश व सामंती गठजोड़ी फौजों से टक्कर लेते हुए सत्रह नवम्बर सन उन्नीस सौ तेरह के दिन करीब डेढ़ हजार आदिवासी शहीद हुए थे. ‘धूणी तपे तीर’ नामक मेरा उपन्यास गोविन्द गुरू के इसी अवदान और आदिवासी बलिदान पर केन्द्रित है.
राजस्थान से निकलकर बंजारे समूह विभिन्न काल-खंडों में बाहर निकलते हैं. एक दल गुजरात होता पहुंचता है महाराष्ट्र, आन्ध्र-तेलंगाना और आगे कर्नाटक. आज आंध्र-तेलंगाना राज्यों में 32 लाख, कर्नाटक में 29 तथा महाराष्ट्र में 24 लाख बंजारा हैं. दूसरा धड़ा गया मध्यप्रदेश होता पंजाब जहाँ क्रमश: 22 और 20 लाख की संख्या में हैं. राजस्थान में रह गये उनकी जनसँख्या 23 लाख है. गुजरात, मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश में बसने वाले बंजारों में से काफी तादात में इस्लाम धर्म के प्रभाव में भी आये जो वहां मुस्लिम बंजारों के नाम से जाने जाते हैं. उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर, बिजनौर, पीलीभीत, बरेली, अलीगढ़, मुज़फ्फ़रनगर, इटावा, मुरादाबाद, मथुरा, एटा, आगरा, मध्यप्रदेश के जबलपुर, छिन्दवाड़ा, मंडला तथा गुजरात के पंचमहाल, खेड़ा, अहमदाबाद व साबरकांठा क्षेत्रों में इनकी जनसँख्या पायी जाती है.
जो समूह पंजाब तक गये उनमें से कई समूह आगे कश्मीर के खैबर का दर्रा पार करते हुए निकल गये अफगानिस्तान और वहां से आगे यूरोप और अमरीका तक जिन्हें रोमा, रोमानी या जिप्सी जैसे नामों से जाना जाता है. यह विस्थापन छठी से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य हुआ. यूरोप एवं अमरीका में इनकी कुल जनसँख्या साठ लाख के आस पास बताई जाती है जिसमें दस लाख संयुक्त राज्य अमरीका, आठ लाख ब्राज़ील, पचास हजार मेक्सिको, साढ़े छ: लाख स्पेन, इतनी ही रोमानिया में, पांच लाख के करीब टर्की में, इतनी ही फ़्रांस में, पौने चार लाख बल्गारिया, दो लाख हंगरी, दो लाख ग्रीस, पौने दो लाख स्लोवाकिया, दो लाख रूस, डेढ़ लाख सर्बिया, सवा लाख इटली, इतनी ही जर्मनी में, नब्वे हजार ब्रिटेन, पचास हजार मेसीडोनिया, पचास से एक लाख के बीच स्वीडन, पचास हजार यूक्रेन, तीस हजार पुर्तगाल तथा दस हजार के इर्द गिर्द फिनलैंड में बताई जाती है. इस समुदाय का पृथक से अपना झंडा है जिसे सन उन्नीस सौ तेतीस में तैयार किया गया. सन उन्नीस सौ इकहत्तर में विश्व रोमानी कांग्रेस का आयोजन किया गया था तब उस झंडे को बाकायदा अंगीकार किया गया था. रोमानी लोगों की संस्कृति विशेषकर भाषा एवं वेशभूषा अभी भी काफी कुछ हिंदी पट्टी व राजस्थान की परंपरा से मिलती जुलती है जैसे कुछ शब्द यथा एक को रोमानी में इख या जेख, दो को रोमानी में दूज कहा जाता है. उच्चारण का तरीका और घाघरानुमा रंगीन स्कर्ट भी मेल खाते हैं. प्रथाओं में बाल विवाह, दुल्हन पक्ष को भुगतान, बुजुर्ग पुरुष व महिलाओं का सम्मान, अंतिम संस्कार के रूप में मृतक दफ़न तथा दहन दोनों शामिल होते हैं.
बंजारों के मूल उद्गम स्थल के बारे में जे जे रायबर्मन ने अपनी पुस्तक ‘एथनोग्राफी ऑफ़ ए डीनोटीफाइड ट्राइब दा लमान बंजारा’ में बंजारा विद्वान मोतीराज राठौड़ के हवाले से यह कहा है कि बंजारा मूलत: अफगानिस्तान से ताल्लुक रखते हैं. वहां गोर नामक एक गाँव है जो अपने आप में अफगानिस्तान का एक प्रान्त भी है. गोर गाँव से सम्बन्ध रखने की वज़ह से ही यह संभव है कि इनकी भाषा ‘गोरबोली’ नाम से जानी जाती हो. मोतीराज राठौड़ ने उसी गाँव से बंजारों का निकास बताया है जो कालांतर में राजस्थान में आकर बस गये और फिर पूर्वोक्तानुसार अन्य भू-भागों की ओर चले गये.
समृद्ध संस्कृति का धनी यह समाज होली जैसे पर्व को पूरे महीना भर उत्साह व उमंग के साथ मनाता है जिसमें औरत तथा मर्द शामिल होते हैं. तीज के त्यौहार को भी काफी महत्त्व दिया जाता है. अपने परंपरागत लोक देवी-देवताओं के साथ हनुमान, शिव तथा माँ जगदम्बा इन लोगों के अराध्य देव-देवी हैं. नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना, चित्रकारी इनकी प्रमुख कलाभिव्यक्तियाँ हैं.
मैं जयपुर की जिस कालोनी में वर्तमान में रहता हूँ उसके आसपास घूमंतू बंजारों के कई डेरे हैं जो मूलत: पश्चिमी राजस्थान के वासी हैं. जयपुर में अन्यत्र भी ये लोग इसी कदर रह रहे हैं. इनका मुखिया भैरू बंजारा मेरा अच्छा परिचित है. उससे एवं अन्य बुजुर्गों से मैंने बंजारा समाज के अतीत के विषय में खूब बातचीत की है. इनका मानना है कि ये राजपूतों के वंशज हैं. मुझे इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला. मैंने अक्सर यह देखा है कि बंजारों की ही तरह कई अन्य आदिवासी समुदाय अपना नाता राजपूत वंशों के साथ जोड़ने का आग्रह करते हैं जिनमें गरासिया आदिवासी भी हैं जो चौहान राजपूतों से अपना उद्भव बताते हैं. इसी तरह मीणा आदिवासियों के जागाओं की पोथियों में मीणा समुदाय की उत्पत्ति अग्निकुंड के चार राजपूत वंशजों में से एक चौहान वंश से बता रखी है जिसका कोई नृतत्ववैज्ञानिक अथवा ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है. वैसे देखा जाये तो किसी भी आदिवासी समुदाय की उत्पत्ति का कोई सम्बन्ध राजपूतों अर्थात क्षत्रिय वंशों से नहीं हो सकता चूँकि आदिम समाज वर्णाश्रमी व्यवस्था का हिस्सा कभी नहीं रहा. यूँ राज करने वाले समुदायों की दृष्टि से देखें तो बात भिन्न होगी. इसकी वज़ह यह रही कि अनेक आदिवासी समुदाय अपने इलाकों में शासक रहे हैं. उनके राजवंशों के विषय में ऐतिहासिक जानकारी हमारे समक्ष उपलब्ध हैं जिनमें गोंड, संताल, भील, मीणा शामिल हैं. क्षत्रिय वंशों से जोड़ने की एक प्रवृत्ति हमें उन कई कौमों में मिल जाएगी जो सामाजिक पिरामिड में नीचे के स्तर पर रख दिये गये. भारतीय समाज को हम या तो वर्णाधारित जाति प्रणाली से निर्मित सामाजिक घटकों के रूप में पहचान सकते हैं जहाँ पहचान का एक मात्र आधार जाति होता है अथवा आदिम समुदायों के रूप में जिनमें जाति की अवधारणा नहीं होती. वहां गणचिह्न के आधार पर समूहों को पहचाना जाता है. इसी सिद्धांत के आधार पर हमें बंजारा आदिवासी समाज को देखना चाहिए.

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