वैष्वीकरण और आदिवासी
हरिराम मीणा
देश के जो प्राकृतिक संसाधन बचे हुए हैं, हजारों वर्षों से आदिवासी लोग उनके संरक्षक रहे हैं और भूमंडलीकरण का यह वह दौर चल रहा है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का फटाफट और अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए, हो सकता है फिर ऐसा सुनहरा अवसर इन कंपनियों को मिले या ना मिले। संभव है कि वैश्वीकरण का जो अमानवीय चेहरा सामने आ रहा है वो और स्पष्ट न हो जाए जो जगह-जगह आमजन को व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा कर दे। यदि ऐसा हुआ तो संभव है कि सन् 1989 में जो नई आर्थिक नीति देश में शुरू की गई थी जिसकी चरम परणति जनविरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आ रही है, उसमें जनपक्षधर संशोधन करने को सरकारें विवश न हो जाएं। यह सब कुछ भांपते हुए (और यह आप और हम भली भांति जानते हैं कि चालक लोग वक्त से पहले आगत के संकेतों को समझ लेने की क्षमता रखते आए हैं) बहुराष्ट्रीय निगमों, उनको माँडल मानने वाले देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचैलियों को यह सूट करता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें ठिकाने लगाया जाए और अपना रास्ता साफ किया जाए। यह सारा झंझट जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ने वाले राष्ट्रभक्तों बनाम देशी-विदेशी लुटेरे पूँजीपति के बीच का है। लोकतंत्र में राजनीति की अहम भूमिका होती है इसलिए पूंजी-नायक राज-नेताओं के माध्यम से बड़े फैसले करवाते हैं जिसमें बिकाऊ मीडिया की सक्रिय साझेदारी रहती है।गत 6मई, 2013 को सूचना प्रौद्योगिकी समिति ने पेड न्यूज से सम्बन्धित मुद्दे पर अपनी 47वीं रिपोर्ट संसद में पेश की। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह तथ्य परेशान करने वाला है कि पेड न्यूज व्यक्तिगत पत्रकारों के भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि इसने मीडिया कम्पनी के मालिकों, प्रबंधकों, निगमों, जनसम्पर्क कंपनियों, विज्ञापन एजेंसियों राजनीति से जुड़े हुए कुछ वर्गों को भी अपने चंगुल में ले लिया है। परिणामस्वरूप विज्ञापन, समाचार तथा सम्पादकीय को एक दूसरे में इस तरह घुला मिला दिया है कि इन्हें अलग अलग करना मुश्किल होता जा रहा है।
अब सवाल उठता है कि आदिवासी हजारों सालों से देश की प्राकृतिक सम्पदा के रखवाले (ध्यान रहे कि आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों के कस्टोडियन रहे हैं, उन्होंने कभी उनके मालिक होने का दावा नहीं किया)रहते आये और अब बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीनायकों की गिद्ध दृष्टि को देखते हुए प्राकृतिक सम्पदा तथा आदिवासी समाज कहां तक सुरक्षित हैं ?
उपनिवेशवाद काल में एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस कदर भारत को लूटा था यह समझदार लोगों की स्मृति से ओझल नहीं हुआ है और अब सैकड़ों बहुराष्ट्रिक कंपनियों की घुसपैठ हो चुकी है जिनका दुहरा मकसद है-एक, भारत के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और दूसरा, भारत को उनका बाजार बना देना।
भारत के आदिवासीजन भौगोलिक दृष्टि से मुख्य समाज से अलग-थलग रहते आए हैं। वे पूंजीसंचालित बाजार का हिस्सा धीरे-धीरे बनेंगे, लेकिन जहां तक प्राकृतिक संसाधनों की बात की जाती है तो आदिवासी अस्तित्व का सवाल गहरे रूप में जल, जंगल और जमीन से जुड़ा हुआ मिलता है जिसे दूसरे शब्दों में हम प्रकृति पर निर्भर जीवन कह सकते हैं। जंगल में आदिवासी लोग रहते आए हैं। जंगल प्रकृति का आधारभूत तत्व है। यदि जंगल है तो पहाड़ हैं, नदियां हैं, झीलें हैं, सरोवर हैं, वनस्पतियां हैं, जंगली जानवर हैं और धरती के गर्भ में संचयित खनिज सम्पदा। इसलिए जब-जब जंगल पर आंच आई तब-तब आदिवासीजन ने अपना मोर्चो संभाला। पूरा इतिहास उठाकर देखें तो पता लगता है कि आर्य-अनार्य संग्राम-शृंखला के बाद सीधा ब्रिटिश काल आता है जब जंगलों में बाहरी घुसपैठ हुई जिसका प्रतिरोध विद्रोह तथा संघर्षों के माध्यम से आदिवासियों ने किया और यह प्रतिरोध भारत के प्रत्येक अंचल में हुआ। मुझे नहीं लगता कि कोई अंचल अछूता रहा हो। ठेठ पूर्वोत्तर की नागारानी गाईदिल्ल्यू से सिद्दू-कानू, बिस्सा मुंडा, तिलका मांझी, टंट्या मामा, गोविन्द गुरु, जोरिया भक्त, ख्याजा नायक, अल्लूरि सीताराम राजू और केरल की आदिवासी किसान क्रांति। इसी क्रम में उच्च हिमालय के लेप्चा-भूटिया से अंडमान की अबेर्दीनकी लड़ाई को शामिल किया जाए। जिस अंचल में आदिवासी है ही नहीं,वहां की तो क्या बात की जाय। बहुराष्ट्रिक कम्पनियों, सत्ता और दलालों की गठबंधनी घुसपैठ के खिलाफ आज अकेला आदिवासी खड़ा है और वह स्वयं के लिये नहीं प्रत्युत् राष्ट्रीय प्राकृतिक संपदा एवं राष्ट्र के लिये। बहुत साफ तौर पर दिखायी दे रहे हैं ये दोनों मोर्चे आमने सामने। हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि राष्ट्र, प्रकृति और पृथ्वी के पक्ष में कौन खड़ा है तथा इन्हें बर्बाद करने पर कौन आमादा है।
भारत में वैश्वीकरण की नीतियों को लेकर पिछले करीब ढाई दशकों से जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि सब मर्जों की यही एकमात्र दवा है। अब यह बात स्पष्ट होती जा रही है वैश्वीकरण के सारे फायदे राष्ट्र-समाज के भद्र वर्ग को मिलते रहे हैं जिनके अधिकार में प्रमुख शक्तियां तथा साधन-संसाधन रहते आए हैं यथा राज-धन-ज्ञान-धर्म की शक्तियां, पूंजी, बाजार, तकनीकी, उच्च शिक्षा तथा अन्य सुविधाएं। इस दृष्टि से भारत के आम आदमी के समाज का विश्लेषण किया जाए तो गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अच्छी शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य की समस्याएं, पेयजल आपूर्ति का संकट तथा अन्य आधारभूत सुविधाओं का अभाव दिखाई देता है। इसी संदर्भ में जब आदिवासी समाज की दशा में सुधार की चर्चा की जाएगी तो उनकी दशा में नहीं के बराबर परिवर्तन हुआ है। इससे उलट आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों की जो लूट वैश्वीकरण के इस दौर में मची है उसने आदिवासी जीवन को नरकतुल्य बना दिया है जहां आधारभूत सुविधाओं, मानवाधिकारों, लोकतंत्र में साझेदारी आदि की बात बहुत दूर, आदिवासी समाज का अस्तित्व ही गहरे संकट में फंसता जा रहा है। दिनांक 29 मई 2013 को मेधा पाटेकर ने भोपाल में एक प्रेस कांफ्रेंस में जोर देकर यह कहा कि अगर आदिवासी अंचलों में सरकार विकास योजनाओं को लेकर अभी भी नहीं पहुंची तो नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा। इसी सप्ताह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर जबरदस्त नक्सली हमला हुआ जिसमें छत्तीसगढ़ के पूर्व गृहमंत्री महेन्द्र कर्मा सहित कई नेता हताहत हुए। नक्सलवाद के उभार को भी वैश्वीकरण के संदर्भ में देखा जा सकता है। प्रसिद्ध पत्रकार एवं आदिवासी विषयों के अध्येता रामशरण जोशी ने राजस्थान पत्रिका (28 मई 2013) छपे अपने लेख में हिंसा को नकारते हुए बस्तर की समस्या को व्यापक दृष्टि से देखने का आग्रह किया है। उन्होंने यह संकेत दिए कि सरकारें चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, उनके प्रति आदिवासी समाज में अविश्वास की एक मान्यता घर कर चुकी है, उसे दूर करने की आवश्यकता है। आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा, विकास के नाम पर उनका विस्थापन और विकास संबंधी सरकारी कदमों को अविश्वास की दृष्टि से देखना वह समस्या है जो विशेष रूप से आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती है। गत जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल में अगर महाश्वेता देवी यह कहती हैं कि ‘नक्सलियों के भी अपने सपने हैं‘ तो वे प्रकारान्तर से बहुत कुछ कह देती हैं जिसे समझने की जरूरत है। हंस पत्रिका के संपादक एवं प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र यादव ने अपने संपादकीय (जुलाई, 2013) में स्पष्ट लिखा है कि ‘बुद्धिजीवियों का नक्सलियों के लिये जो वैचारिक समर्थन है वह बना रहेगा-क्योंकि वह समर्थन अन्याय के खिलाफ, दमन के खिलाफ उठती आवाज का है। हिंसा कभी एकतरफा नहीं होती।‘ कोई भी हिंसा समाज ही क्या, सृष्टि की किसी भी योजना के विरुद्धअपराध है। सवाल यह उठता है कि हिंसा का समाधान प्रतिहिंसा है या विकास का सही विकल्प ?
भारतीय इतिहास व परंपरा में भारतीय समाज, राष्ट्र, लोकतंत्र व विकास के सभी प्रमुख क्षेत्रों की दृष्टि से आदिवासी समाज के स्वभाव का विश्लेषण किया जाएगा तो यह स्पष्ट होता है कि उपनिवेशवादकाल से पूर्व आदिवासी समाज भारतीय मुख्य समाज से अलग-थलग रहा, ब्रिटिशकाल में आदिवासी अंचलों में विकास व उपनिवेशवाद विस्तार की दृष्टि से हस्तक्षेप हुआ, लेकिन आदिवासी प्रतिरोध को देखते हुए अंग्रेजों ने आदिवासी समाज को अलग-थलग रखकर ही हस्तक्षेप करने की नीति को प्राथमिकता दी, साथ ही उनका नजरिया हिकारत से भरा हुआ था। सम्पूर्ण आदिवासी समाज को बाकायदा जंगली बर्बर लोगों के समुदाय के रूप चित्रित किये जाने का दुष्चक्र रचा गया।
प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ ने अपनी पुस्तक ‘हाउ द रिच आर डेस्ट्रोइंग प्लेनेट’ की प्रस्तावना में लिखा है -‘‘ इस दुनिया में पाए जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबलानहीं करते। इसलिए ऐसे समय में जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें ‘थिंक ग्लोबली एंड एक्ट लोकली’ के उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि ‘कंज्यूम लेस एंड शेयर बेटर।’’
हाल ही में दिवंगत वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज ने 20 सितंबर 2006 को काराकास में हुए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भाषण देते हुए विश्व जन-गण के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का संदर्भ देते हुए कहा था कि-‘‘मैं याद दिलाना चाहता हूं कि इस दुनिया की जनसंख्या का 7प्रतिशत अमीर लोग 50प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत 50 प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र 7 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।................ इस दुनिया के 500 सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब 41 करोड़ 60 लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का 40 प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग 2 डालर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं और यह 40 प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आय का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल 92 लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुँचने से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं । नवजात बच्चों की मृत्यु दर प्रति एक हजार में 47 है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में 5 है। मनुष्यों के जीवन में प्रत्याशा 67 वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा 79 वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र 40 वर्ष ही है। इन सबके साथ ही 1.1 अरब लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं है। 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। 80 करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और 1 अरब 2 करोड़ लोग भूखें हैं। ये है हमारी दुनिया की तस्वीर।’’
इन्हीं हालातों को देखते हुए क्यूबा के दिवंगत राष्ट्रपति फिदल कास्त्रो ने जोर देकर कहा था ‘‘एक प्रजाति खात्मे के कगार पर है और वह है मानवता’। रोजा लग्जमबर्ग का कहना है कि अगर पृथ्वी को बचाए रखना है तो बर्बर पूंजीवाद का एक ही विकल्प है वह है समाजवाद।
सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका की अगुवाई में एक मुहिम के तहत अग्रसर पूंजीवाद साम्राज्यवाद को करीब 25 वर्ष होने जा रहे हैं। इसी चैथाई शताब्दी में अमरीका ने जो बेलगाम दादागीरी की है उसके ज्वलंत उदाहरण इराक, अफगानिस्तान, मिस्र, लीबिया, सीरिया और लेटिन अमेरिका के राष्ट्रों की संप्रभुता में सेंध आदि है, लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रों के साम्यवादी-समाजवादी दलों की सदस्यता में वृद्धि, 2012 के चुनाव में ग्रीस में तेजी से उभरी रेडिकल वामपंथी पार्टी सिरिजा, अरब देशों में अमरीका के विरुद्ध शत्रुगत भावना का फैलाव, दक्षिणी अमरीकी देशों में अमरीका विरोधी माहौल तथा अमरीकी धमकी के खिलाफ उत्तरी कोरिया की चुनौती आदि को देखते हुए दुनिया के हर क्षेत्र में पंूजी के इस नवसाम्राज्यवाद के क्रूर यथार्थ का पर्दाफाशकरने व बेहतर विकल्प ढूंढने के प्रयास जारी हैं।
25 मई 2013 को जयपुर में हुए राज्य स्तरीय लघु पत्रिका सम्मेलन में बोलते हुए ‘उद्भावना’ के सम्पादक अजेय कुमार ने यह कहा कि वाशिंगटन में खबरों का एक म्यूजियम है जिसका नाम ‘न्यूजियम’ रखा हुआ है। वहां प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडियाके माध्यम से प्रचारित-प्रसारित ढेरों सारी खबरें हैं, लेकिन वियतनाम युद्ध, द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान हिरोशिमा-नागाशाकी पर परमाणु हमला, इराक, अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले जैसी अमरीकी बर्बरता की खबरों को म्यूजियम में स्थान नहीं दिया गया है। इससे जाहिर है कि यह अमरीकी द्वारा उठाए गए वे कदम हैं जिनसे अमरीका की बदनामी होती है न कि उसका महाशक्ति के रूप में प्रमाणित होना। उन्होंने नोम चोम्स्की की पुस्तक ‘क्राइसिस दिस टाइम’ में मजदूर स्टेग के उदाहरण से वैश्वीकरण के इस दौर के संकट से रूबरू कराने का प्रयास किया। अजेय कुमार ने यह भी कहा कि अमरीका की 30 करोड़ की आबादी के पास 31 करोड़ पंजीकृत हथियार हैं। जाहिर है कि अमरीका किस दुनिया में रह रहा है और किन आसमानों पर सोच रहा है और वह कुछ सोच व कर रहा है वह सबकुछ दुनिया के विकासशील व गरीब राष्ट्र-समाजों के सरोकार कतई नहीं।
अर्सा पहले महान दार्शनिक रूसेा ने यह प्रश्न उठाया था कि ‘‘क्या आप स्वतंत्रता का असमानता के साथ सामंजस्य बैठा सकते हैं और क्या लोग कानूनन बराबर हो सकते हैं जब भौतिक चीजों तक उनकी पंहुंच बराबर न हो ?’’
उल्लेखनीय है प्रख्यात चिंतक ऐजाज अहमद का यह कथनांश -
‘‘लोकतांत्रिक परियोजना में उत्पन्न हुए इस संकट ने इस विचार को विश्वसनीय बना दिया है कि भूमण्डलीकरण के आवरण में साम्राज्यवाद का जो मौजूदा दौर चल रहा है उसका सचमुच कोई विकल्प नहीं है। इस संकट में तमाम तरह की राजनैतिक प्रयोगशालाएं खड़ी कर दी हैं। मसलन, अमेरिका से लेकर पश्चिमी एशिया तथा स्वयं भारत तक कि धार्मिक पुनरूत्थानवाद, समूचे यूरोप में नस्ल तथा फासीवादी आंदोलन जिसमें पूर्वी यूरोप तथा रूस भी शामिल हैं। कट्टरवाद और बहुसंख्यकवाद, सभी को न्याय देने के खिलाफ विश्व भर के सम्पन्नों का विद्रोह , विश्व में सैनिक तथा आर्थिक दारोगागिरी करने वाले अमेरिका , नाटो तथा मुद्राकोष एवं विश्व व्यापार संगठन जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं की सरपरस्ती में विश्व सरकार का उभरना।’’
वैश्वीकरण का जो अमानवीय चेहरा उभर कर सामने आया है उसकी प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नानुसार हैं:-
प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-सनाप दोहन हुआ है जिसकी वजह से राष्ट्रीय संसाधनों का राष्ट्र-समाज के लिए उपयोग में नहीं कर सकने की विवशताएँ और नक्सलवाद जैसी चुनौतियां सामने आई हैं। आम आदमी का एक महत्वपूर्ण तबका आदिवासियों के रूप में अपने अस्तित्व के संकट से जूझने लगा है।
आर्थिक भ्रष्टाचार की चरम सीमा दिखाई दे रही है जिसमें सत्यम, आदर्श सोसाईटी, 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल आदि उदहारण हमारे सामने हैं जिन्होंने आम जनता व बुद्धिजीवियों के दिलोदिमाग को हिलाकर रख दिया हैं। यही वजह है कि अन्नाहजारे जैसे लोग किसी भी मकसद से आमरण अनषन पर बैठते हैं तो मीडिया व बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन उन्हें रातों रात मिलने लगता है।
आर्थिक मंदी के नाम पर आम आदमी के आर्थिक हितों की परवाह न करते हुए औद्योगिक घरानों को बहुत सारी सुविधाएं देने के लिए सरकार मजबूर होती है। इसी क्रम में जनता के धन का दुरूपयोग कार्पोरेट जगत द्वारा सरकारों के माध्यम से किया जाने लगता है।
जनसेवा व सुविधाओं के नाम पर महत्वपूर्ण क्षेत्रों का निजीकरण तेजी से होता है जिसमें प्रमुख रूप से षिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र है्रं जो जनसेवा की गुणात्मकता का बहाना लेकर अन्ततः निजी लाभ को सर्वोपरि रखता है। आम आदमी व जरूरतमंद के लिए इन क्षेत्रों से संबंधित सुविधाओं में कोई जगह नहीं मिलती। केवल ऐसी सुविधायें समर्थ वर्ग की पहुंच तक रह पाती हैं , चाहे नियमों में यह स्पष्ट प्रावधान हो कि एक निश्चित प्रतिशत अभावग्रस्त तबके के लिए आरक्षित रहेंगे। सामाजिक न्याय की संवैधानिक अपेक्षाओं के विरूद्ध यह सब होता जा रहा है। इसका एक उदहारण मुम्बई के ’सेवन हिल्स हास्पिटल’ का है जब नियम विरूद्ध कार्यवाही के मसले पर संसदीय समिति को भी वहां का प्रबन्धन ठेंगा दिखा सकने का दुस्साहस कर सकता है।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में आम आदमी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसकी पहुंच राष्ट्रस्तरीय सरकारी व प्राईवेट प्रबन्धन तक नहीं हो सकती। उसके लिए मीडिया, जन संचार माध्यम न होकर साधन सम्पन्न वर्ग का मीडिया बनकर रह जाता है। बाजार यद्यपि अपने स्वभाव के अनुरूप आम आदमी तक ना चाहते हुए भी पहुंचता है लेकिन जरूरतमंद चीजें उचित दामों पर उसे नहीं मिल पाती। उपभोग की वस्तुएं राष्ट्र के स्तर पर उपलब्ध होते हुए भी उसे मुहय्या नहीं हो पाती। जीवनयापन के जो प्रमुख तौर-तरीके या साधन आम आदमी के पास थे, उनका धीरे-धीरे उसके हाथों से खिसक जाना यथाः कृषि, शिल्प , कुटीर उद्योग व स्थानीय व्यापार व्यवसाय आदि। कुल मिलाकर भूमंडलीकरण में पूंजी व बाजार हावी होता है जिस पर एक चालाक वर्ग का आधिपत्य रहता है और आम आदमी धीरे-धीरे हाशिये पर चला जाता है।
इसलिए अब समय आ गया है जब पूंजी और उच्च तकनीकी के मिश्रण से विकास के जिस वैश्विक माडल को विकल्पहीन सर्वमान्य माना जाता रहा है, उस पर पुनर्विचार एवं विमर्श की आवष्यकता है ताकि समग्र रूप से बहतर भविष्य की सम्भावनाओं की तलाश सम्भव हो सके, चूंकि विकल्पहीन नहीं होता दुनिया के लिए कोई भी काल-खण्ड।
वैश्वीकरण बनाम प्रकृति और आदिवासी की अवधारणा को समझने के लिये जाने माने ग्लोबल इन्वेस्टर जेरेमी ग्रेंथम कहते हैं कि ‘सभी संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से हमारी ग्लोबल अर्थव्यवस्था ऐसे कई संकेत दर्शा रही है जिनके कारण हमसे पहले कई सभ्यताएं धराशायी हो चुकी हैं।‘माइक्रो सोफ्ट धनपति बिल गेट्स ने पिछले दिनों प्रयश्चित करते हुए कहा है कि ‘पूंजी को अब मानवीय चेहरे के साथ आना चाहिए।‘ स्पष्ट है कि पूंजी की वैश्विक भूमिका मनुष्यविरोधी रही है।
आज सवाल आदिवासी का होने के साथ साथ राष्ट्र का है और राष्ट्र के आगे प्रकृति तथा अंततः पृथ्वी का। इसलिये सवाल हम सब का है। जो तटस्थ हैं या रहेंगे वे भी बच नहीं सकते।
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