गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

आदिवासी लड़की

आदिवासी युवती पर
वो तुम्हारी चर्चित कविता
क्या खूबसूरत पंक्तियाँ-
‘गोल-गोल गाल
उन्नत उरोज
गहरी नाभि
पुष्ट जंघाएँ
मदमाता यौवन......‘
यह भी तो कि-
‘नायिका कविता की
स्वयं में सम्पूर्ण कविता
ज्यों
हुआ साकार तन में
प्रकृति का सौन्दर्य सारा
रूप से मधु झर रहा
एवं
सुगन्धित पवन उससे.....‘

अहा,
क्या कहना कवि
तुम्हारे सौन्दर्य-बोध का
अब इन परिकल्पित-ऊँचाइयों पर
स्वप्निल भाव-तरंगों के साथ उड़ते
कलात्मक शब्द-यान से नीचे उतर कर
चलो उस अंचल में
जहाँ रहती है वह आदिवासी लड़की

देखो गौर से उस लड़की को
जिसके गोल-गोल गालों के ऊपर
-ललाट है
जिसके पीछे दिमाग
दिमाग की कोशिकाओं पर टेढ़ी-मेढी़ खरोंचें
यह एक लिपि है
पहचानो,
इसकी भाषा और इसके अर्थ को

जिन्हें तुम उन्नत उरोज कहते हो
प्यारा-सा दिल है उनकी जड़ों के बीच
कँटीली झाड़ियों में फँसा हुआ
घिरा है थूहर के कुँजों से
चारों ओर पसरा विकट जंगल
जंगल में हिंसक जानवर
जहरीले साँप-गोहरे-बिच्छू
इस केनवास में
उस लड़की की तस्वीर बनाओ कवि

अपना रंगीन चश्‍मा उतार कर देखो
लड़की की गहरी नाभि के भीतर
पेट में भूख से सिकुड़ी उसकी आँतों को
सुनो उन आँतों का आर्तनाद
और
अभिव्यक्त करने के लिए
तलाशो कुछ शब्द अपनी भाषा में

उतरो कवि,
लड़की की ‘पुष्ट‘ जंघाओं के नीचे
देखो पैरों के तलुओं को
विबाइयों भरी खाल पर
छाले-फफोलों से रिसते स्त्राव को देखो
कैसा काव्य-बिम्ब बनता है कवि

और भी बहुत कुछ है
उस लड़की की देह में
जैसे-
हथेलियों पर उभरी
आटण से बिगड़ी उसकी दुर्भाग्य-रेखाएँ
सारे बदन से चूते पसीने की गन्ध
यूँ तो
चेहरा ही बहुत कह देता है
और आँखों के दर्पण में
उसके कठोर जीवन का प्रतिबिम्ब-है ही

बन्द कमरे की कृत्रिम रोशनी से परे
बाहर फैली कड़ी धूप में बैठकर
फिर से लिखना
उस आदिवासी लड़की पर कविता।

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

बिरसा मुंडा की याद में

अभी-अभी
सुन्न हुई उसकी देह से
बिजली की लपलपाती कौंध निकली
जेल की दीवार लाँघती
तीर की तरह जंगलों में पहुँची
एक-एक दरख्त, बेल, झुरमुट
पहाड़, नदी, झरना
वनप्राणी-पखेरू, कीट, सरीसृप
खेत-खलिहान, बस्ती
वहाँ की हवा, धूल, जमीन में समा गई........
एक अनहद नाद गूँजा-
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्‍‍तैनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दाव मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!’
उलगुलान!!
उलगुलान!!!‘‘

जंगल की धरती की बायीं भुजा फड़की
हरे पत्तों में सरसराहट......
सूखों में खड़खड़ाहट......
फिर
मौन हो गया
कुछ देर के लिए सारा आंचल।

खेलने-कूदने की उम्र में
लोगों का आबा बन गया था वह
दिकुओं’’ के खिलाफ
बाँस की तरह फूटा था धरती से
जैसे उसी पल गरजा हो आकाश
और
काँपे हों सिंहों के अयाल।
----------
’ विद्रोह
’’ शोषक

नौ जून, सन.....उन्नीस सौ
सुबह नौ बजे-
वह राँची की आतताई जेल
जल्लादों का बर्बर खेल
अन्ततः.....
बिरसा की शान्त देह!

‘‘क्या किया जाए इसका?‘‘
हैरान थे,
दिकुओं के ताकतवर नुमाइंदे
जिन्दा रहा खतरनाक बनकर
मार दिया तो
और भी भयानक
अगर दफनाया तो धरती हिलेगी
जो जलाया-आँधी चलेगी।

वह मुंडारी पहाड़ों-सी काली काया
नसें, जैसे नीले पानी से लबालब खामोश नदियाँ
उभरे पठार-सी चैड़ी छाती
पथराई आँखें-
जैसे अभी-अभी दहकते अंगारों पर
भारी हिमखण्ड रख दिए हों।

कुछ देर पहले ही तो हुई थी खून की कै
जेल कोठरी के मनहूस फर्श पर
उसी के ताजा थक्के.....
नहीं!
थक्के न कहें,
वे लग रहे थे-
हाल ही कुचले पलाश के फूल
या
खौलते लावा की थोड़ी-सी बानगी।

चेहरे पर
मुरझाई खाल की सलवटों की जगह
उभर आया एक खिंचाव
जैसे,
रेशा-रेशा मोर्चाबन्द हो
गिलोल की मानिन्द
धनुष की कमान-सी तनी माँसपेशियाँ
रोम-रोम जैसे-
तरकस में सुरक्षित
असंख्य तीरों की नोंक
गोया,
वह निस्पन्द बिरसा न होकर
आजाद होने के लिए कसमसाता
समूचा जंगल हो।
उन्हें इन्तजार था
सूरज के डूब जाने का
दिनभर के उजास को
वे छुपाते रहे सुनसान अन्धी गुफा में
जिसके दूसरे छोर पर गहरी खाई
वहीं उन्होंने
बिरसा मंडा से निजात पाई।

कहते हैं-
काले साँप को मारकर गाड़ देने से
खत्म नहीं हो जाती यह सम्भावना कि
पुरवाई चले और वह जी उठे
यदि ऐसा हो तो
परिपक्व जीवन को
धरती अपने गर्भ में नहीं रखती।
बिरसा
उनके लिए
साँप से खतरनाक था
वह दिकूभक्षी शेर था
और
वह भी अभी जवान।
इसलिए
उसे दफनाया नहीं
जलाया था-रात के लिहाफ में छुपाकर
यह जानते हुए भी कि
दुनिया में ऐसी कोई आग नहीं जो
दूसरी आग को जलाकर राख कर दे।

रात के बोझिल सन्नाटे ने स्वयं को कोसा
आकाष के सजग पहरेदारों की आँखें सुर्ख हुईं
हवा ने दौड़कर-
मुंडारी अंचल को हिम्मत बँधाई.....
उन्होंने
आदमी समझकर बिरसा को मार दिया
मगर बिरसा आदमी से बढ़कर था
वह आबा
वह ष्भगवान्ष्
वह जंगल का दावेदार......

उसकी आवाज
जंगलों में अभी भी गूँजती है-
''मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्‍तेनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!श्

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

आर्य व द्रविड़ प्रजाति - यथार्थ या भ्रम

हाल ही में सेंटर फार सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायोलोजी के पूर्व निदेशक लालजी सिंह एवं इसी संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक कुमारस्वामी थंगराजन ने आर्य व द्रविड़ प्रजातियों को लेकर शोध किया है जिसका आधार जीनस् के अध्ययन को बनाया । उनका निष्कर्ष है कि आर्यो एवं द्रविड़ों का भेद एक भ्रान्ति है और इन दोनों प्रजातियों के आधार पर उत्तर एवं दक्षिण भारत को अलग अलग देखने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, चूंकि आर्यजन के भारत में प्रवेश के हजारों वर्ष पहले उत्तर व दक्षिण भारत में पृथक मानव प्रजातियां निवास कर रही थी ।
दोनों वैज्ञानिकों ने उत्तर एवं दक्षिण के 13 प्रातों के 25 मानव समूहों के कुल 1300 व्यक्तियों को सेम्पल के रूप में अध्ययन में शामिल किया । इस शोध में 5 लाख जैनेटिक संकेतकों ;उंतामतेद्ध पर विश्‍लेषण किया गया । अध्ययन में शामिल सभी व्यक्ति भारत की प्रमुख 6 भाषा परिवारों से सम्बंध रखते हैं। साथ ही परम्परागत रूप से जिन्हें उच्च व निम्नवर्ग कहा जाता है उनका भी प्रतिनिधित्व रखा गया ।
यह अध्ययन हार्वर्ड मेडीकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और एम0आई0टी0 के सहयोग से किया गया । शोधार्थियों का मानना है कि वर्तमान भारत के लोग उनके उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय पूर्वजों के वंषज हैं । भारत में आदिकाल में 65 हजार वर्ष पहले अंडमान एवं दक्षिण भारत में मानव समूह अन्यत्र से आकर रहने लगे एवं 40 हजार वर्ष पहले उत्तर भारत में । कालान्तर में दोनों भू-भागों के वे आदिमानव आपस में घुले मिले और उनके मध्य पैदा हुए सम्बंधों से मिश्रित जनसंख्या सामने आई । यह जनसंख्या दोनों पूर्वजों से भिन्न पैदा हुई ।
यही जनसंख्या आज के भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस निष्कर्ष के बावजूद जैनेटिक रोगों की दृष्टि से आंचलिक विशेषताएँ सामने आई जो यह संकेत देती हैं कि भारत की जनसंख्या का करीब 70 प्रतिषत हिस्सा जैनेटिक असंतुलन ;कपेवतकमतद्ध से ग्रसित हैं और इसी वजह से आंचलिक एवं मानव समुदाय विशेष के स्तर पर जेनेटिक रोग पाये जाते हैं यथा पारसी महिलाओं में स्तन-कैंसर, चित्तूर व तिरूपति के निवासियों में मोटर न्यूरोन बीमारी और पूर्वोत्तर तथा मध्य भारत के आदिवासियों में ‘स्किल सैल एनीमिया’।
करीब 1,35,000 से 75,000 वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका भू-भाग में बाढ़ आने से वहां की करीब 95 प्रतिशत जनसंख्या विस्थापित हुई और उनमें से कुछ ने दक्षिण समुद्री तट होते हुए अंडमान तक का रास्ता लिया जो इस क्षेत्र के आदिपूर्वज पाये गये ।
शोधार्थियों के अनुसार इस मत में कोई दम नहीं है कि प्राचीन भारत में कोई मानव समूह मध्यपूर्व यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया अथवा आस्टेलिया से भारत आये। उल्लेखनीय है कि इस अध्ययन का आधार जेनेटिक्स है लेकिन इस सीमा के बावजूद इस विषय पर विमर्श की संभावनाएँ हैं जिनका स्वागत है।

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

सृष्टि सम्बन्धी आदिवासी मिथक

विकसित समाजों में सृष्टि की उत्पति के संबंध में चले आ रहे मिथक प्रगति की प्रक्रिया में धीरे धीरे समाप्त होते जा रहे हैं और जहां कहीं सुरक्षित हैं तो उनका परिमार्जित संशोधित व परिवर्तित रूप ही मिलता है। मौलिक स्वरूप कहीं न कहीं अपभ्रष्ट होता दिखाई देता है। इससे इतर आदिवासी समाजों के सृष्टि सम्बन्धी मिथकों में अधिकांश मौखिक परम्परा का हिस्सा बने हुए हैं । चूंकि इनके व्यवस्थित लिपिबद्ध प्रयास अपेक्षित स्तर पर नहीं हुए । यही वजह है कि समूह एवं अंचल के स्तर पर इन मिथकों में काफी विविधताएं पाई जाती हैं । यहां तक कि एक ही आदिवासी घटक़ में भी सृष्टि के उद्भव संबंधी एक से अधिक मिथक दिखाई देंगे । विभिन्न आदिवासी समुदायों में प्रचलित मिथकों को समेटने का यहां प्रयास किया गया है।

पूर्वोत्तर भारत

वैदिक ग्रंथो से लेकर हिन्दू परम्पराओं में पंच महाभूत के सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है। इसी तरह सृष्टि की उत्पति को लेकर आदिवासी मिथकों में भी आधारभूत तत्वों का जिक्र मिलता है। जब हम पूर्वोत्तर भारत की बात करते हैं तो उदाहरणार्थ अरूणाचल प्रदेश में सृष्टि सृजन में जल, अण्डा, बादल, चट्टान, लकड़ी जैसे आधारभूत तत्वों को सृष्टि सृजन में सहायक माना गया है। इन तत्वों का सृष्टि से पूर्व स्वतः अस्तित्व बताया गया है। ये सब प्रथम सोपान के सृष्टिक्रम माने गये हैं। दूसरे चरण में पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि एवं अन्य सजीव रचनाओं को शामिल किया गया है। तीसरे चरण में रंग, दिशा, रूप, गंध माने गये हैं तथा चौथे-चरण में विवेक को शामिल किया गया है।
सृष्टि से पहले की अवस्था के बारे में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासियों की यह मान्यता रही है कि पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल था। आसमान में दो आदि-बंधु रहते थे। एक दिन उन्होंने आपस में बातचीत करते हुए यह सोचा कि अगर मनुष्य की उत्पत्ति की जावे तो वे जीवित कैसे रहेंगे क्योकि यहां तो पानी ही पानी है ? आकाश में कमल का एक फूल था। दोनों भाइयों ने उस फूल को नीचे फैंक दिया। फूल की पंखुडियां अन्नत जल राषि पर बिखर गई। फिर उन दोनों भाइयों ने चारों दिशाओं से वायु का आह्नान किया। पूर्वी दिशा से आने वाली वायु अपने साथ सफेद धूल लाई जिसे फूल की पंखुडियों पर बिखेर दिया। पश्चिमी हवा पीले रंग की धूल लाई, दक्षिणी हवा लाल तथा उत्तरी हवा काली धूल लेकर आई। यह सभी धूल आपस में कमल के फूल की पंखुड़ियों पर बिखर गई और इस तरह बहुरंगी पृथ्वी का सृजन हुआ।
एक मिथक कथा यह चलती है कि बाह्मण्ड में आरम्भ में केवल दो अण्डे थे। वे नरम तथा सोने की तरह चमकने वाले थे। वे एक जगह टिकने के बजाय चक्कर लगा रहे थे। अन्ततः वे आपसे में टकराये और फूट गये। एक अण्डे से पृथ्वी और दूसरे अण्डे से आकाश का सृजन हुआ। यह दोनों पत्नी और पति के रूप में सामने आये। दोनों के संभोग से वनस्पतियों तथा अन्य प्राणियों की रचना हुई।
अन्य मिथक-कथा यह है कि आरम्भ में पहले बादल थे। कोई पृथ्वी या आकाश नहीं था। बादल इनसे एक स्त्री पैदा हुई। वह बादल जैसी थी। उसने एक बालक व एक कन्या को जन्म दिया। वे दोनों बर्फ जैसे थे। जब वे जवान हुए तो दोनों ने शारीरिक सम्बंध बनाया जिससे इतंगा नामक कन्या का जन्म हुआ जो पृथ्वी कहलाई और एक पुत्र पैदा हुआ जो यूम अर्थात आकाश कहलाया। पृथ्वी कीचड़ तथा आकाश बादल जैसा था । इन दोनों ने भी शादी करली तथा इनबुंग नामक पुत्र को जन्म दिया जो वायु कहलाया इसके जन्म से तेज हवायें चली जिससे उसका पिता बादल उड़ता हुआ आसमान में चला गया और कीचड़नुमा पृथ्वी को सुखा दिया जो क्रमश: स्वर्ग और पृथ्वी के रूप में आविर्भूत हुए।
एक अन्य मिथक कथा के अनुसार आरम्भ में केवल एक चट्टान थी और चट्टान के चहू और जल ही जल था। वह चट्टान सजीव थी जो नरम ओर इधर उधर चलने फिरने की क्षमता रखती थी। इन चट्टानो से एक मादा चट्टान पैदा हुई जो जिससे एक अन्य चट्टान पैदा हुई जो नर चट्टान। दोनों के मध्य यौन संबंध स्थापित किये जाने पर इन दोनों की प्रथम सन्तान मछली के रूप में पैदा हुई तत्‍पश्‍चात उन्होंने एक बड़े मैंढक, फिर एक छोटे मैंढक और फिर एक थलचर मेंढक को जन्म दिया। इसके बाद उसने पानी में रहने वाले एक कीट को जन्म दिया और अन्ततः दूसरी मछली। फिर चट्टान माता नक्षत्रांे के बीच बने गगन ग्राम में चली गई। वहां भी उसने एक नक्षत्र से शादी की और कई बच्चे पैदा किये और उसके बाद मृत्यु को प्राप्त हो गई। उसके बच्चों ने अपनी मां के अन्तिम संस्कार के लिये चावल की लापसी बनाई। इस प्रक्रिया के दौरान उठी भाप से एक बादल उठा जिससे मिथुन (क्रोन बोस).... पैदा हुआ। मिथुन ने अपने सींगों से गढ्ढा खोदा जिससे सूखी धरती प्रकट हुई। तभी से वे नरम चट्टानें कठोर चट्टान बन गईं। और पृथ्वी पर अन्य सजीव निर्जीव रचनाएँ सृजित र्हुइं।
एक और मिथक पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित है जिसके अनुसार सृष्टि से पूर्व सर्वत्र जल ही जल था। पानी के ऊपर सर्व प्रथम एक वृक्ष पैदा हुआ जिसे पैरीकामुला कहा गया। समय के साथ एक कीडा उस पेड़ पर जन्मा और उसने पेड़ की लकड़ी को खाना षुरू किया। लकड़ी के कण पानी पर फैले और उसके बाद संसार की सृष्टि हुई। तद्पष्चात वह पेड़ बूढा होकर जमीन पर गिर गया। उसके नीचे के हिस्से की छाल से संसार की त्वचा और ऊपर की हिस्से वाली छाल से आकाश की त्वचा बनी। पेड़ का तना चट्टानों में परिवर्तित हो गया ओर शाखाएं पर्वतों में।
एकल मानव प्राणी से पैदा हुई सृष्टि की मिथक एक अन्य कथा सामने आती है जिसके अनुसार क्रतमचालटू नामक पृथ्वी मनुष्य जैसी थी जिसके सिर, भुजाएं, पैर और बड़ा पेट था। उसके पेट पर नवजात मनुष्य रहने लगे। पृथ्वी ने सोचा इन प्राणियों की वजह से हिलडुल भी नहीं सकती। ऐसा करूंगी तो ये गिर कर मर जायेंगे। उसने स्वयं मरना तय किया। उसके शरीर के पृथक-पृथक अंग संसार के अलग अलग खण्ड बने तथा दोनों आंखें सूरज व चांद।
पूर्वोत्तर प्रान्तों के आदिवासियों में सृष्टि संबंधी एक बात सामान्यतः पाई जाती है कि वे सब सृष्टि की पंच सोपानी उत्पत्ति में विश्‍वास करते हैं। यह भी एक सामान्यीकृत निष्कर्ष कहा जा सकता है कि कमोबेश सभी मनुष्यों की उत्पत्ति पृथ्वी व आकाश के पत्नी व पति रूप से पैदा होना पाया गया है।
यह भी एक किंवदन्ती चली आ रही है कि प्रथम मानव प्रजाति को नष्ट कर दिया था। फिर सम्पूर्ण पृथ्वी को बारिश में अच्छी तरह धोया तब जाकर मानव जाति की पुनः रचना हुई। पूर्वोत्तर के सभी आदिवासियों में यह मिथक पूरी तरह बसा हुआ है कि आदि काल से मनुष्य, अन्य प्राणियों तथा अदृष्य आत्माओं के बीच गहरा सम्बंध था। कहा जाता है कि एक स्त्री ने मानव शिशु और बाघ शिशु के जुड़वां बच्चों की तरह जन्म दिया। उस जमाने में जानवर भी आपस में खुल कर बातें किया करते थें। इस तरह की कई कहानियां सुनी जाती हैं कि मनुष्यों द्वारा देवताओं की आत्माओं व अन्य प्राणियों यहां तक कि पेडों और पत्तियों से भी शादी की जाती थी। यह भी विष्वास चला आ रहा है कि आदि-युग में विवेक केवल मनुष्य के पास ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के पास भी था। शास्त्रविदियों से प्रथम शास्त्रीय स्थापनाओं से अलग आदिवासियों की यह मान्यता है कि किसी एक ईश्‍वर ने सृष्टि की रचना नहीं की, बल्कि अस्तित्व में रहे भौतिक पदार्थों से सृष्टि उपजी। अर्थात भौतिक तत्वों से सजीव व निर्जीव दोनो किस्‍म की रचनाएं सामने आईं जो प्रारम्भ में एक ही थी। उल्लेखनीय है कि जल की महिमा प्रमुखता से सामने रही है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है कि भौतिक पदार्थ से ही सजीव संसार सृजित हुआ। ऐसा ही वैज्ञानिकों का मत भी है।
खासी आदिवासियों में जब भी कोई भावनात्मक या विचलन के क्षण आते हैं तो वे एक अनुष्ठान करते हैं, जिसमें कोड़ी, चावल, अण्डा व मुर्गी का इस्तेमाल करते हैं। इन सभी को अनाभिव्यक्त सृष्टि के प्रमुख तत्व माने गये हैं यथा अण्डे को आधार तत्व, कोड़ी को जल, मुर्गी को पृथ्वी तथा चांवल को प्राण। अंडमान के औंगी आदिवासियों में हड्डी को पूर्वजों की निशानी के रूप में मानते हुए उसे आभूषण की तरह गले में धारण किया जाता है। उनकी मान्यता है कि इसकी अस्थि-गंध से ही उनका अस्तित्व उनके रिहायशी टापू पर और प्रेतात्माओं का वास उनके आसमान में रहता है, जो उनकी रक्षा करती हैं। प्रेतात्मा को वे अपना सृष्टा मानते हैं। नागा एवं मिरि आदिवासी दो लोकों की अवधारणा में विश्‍वास करते हैं-एक, जीवित लोक तथा दूसरा मृतकों का लोक। सृष्टि के बारे में उनकी अवधारणाएँ पूर्वानुसार ही हैं ।
(उक्त जानकारी श्री बैद्यनाथ सरस्वती के आलेख पर आधारित है)

गोंड

इन आदिवासियों का मिथक है कि कमल के पत्तों पर ‘बड़ादेव‘ बैठा हुआ था तभी उसके मन में सृष्टि की रचना का विचार आया। दुनिया रचने के लिये उसे मिट्टी चाहिये थी । उसने नीचे देखा तो ब्रहमाण्ड में सर्वत्र जल ही जल दिखाई दिया। उसने अपनी छाती मसली । छाती रगडने़ से जो मैल इकट्ठा हुआ उससे उसने एक कौआ बनाया। कौए को उसने मिट्टी की तलाश में भेजा। कौआ मिट्टी की तलाश में इधर उधर उड़ने लगा। उसने सब जगह छान मारा लेकिन उसे अनन्त दूरियों तक जल ही जल फैला हुआ दिखायी दिया । वह थक गया था । उसे कहीं बैठने की जगह भी नहीं मिली । तभी उसे एक सूखी लकड़ी नजर आई जिस पर वह बैठ गया। अचानक एक आवाज सुनाई दी -
‘‘ यह मेरे पंजे पर कौन बैठा है ?‘‘
वह आवाज केकड़ा की थी । कौआ ने मिट्टी तलाश संबंधी बात उसे बताई । केकड़ा ने कहा कि ‘सारी मिट्टी पाताल लोक में चली गई है और उसे केंचुआ खा रहा है ।‘ कौआ ने केकड़ा से विनती की कि केंचुआ को पाताललोक से बाहर लाए । केकड़ा ने पानी में से केंचुआ को बाहर निकाला । जब केंचुआ से पूछा कि ‘मिट्टी सौंपो‘ तो उसने जवाब दिया कि ‘मिट्टी तो मेरा भोजन है इसलिये मैं नहीं दे सकता ।‘ तब केकडा ने केंचुआ को पकड़ा और उलटा करके उसे झटका दिया तो केचुआ ने सारी मिट्टी बाहर उगल दी । कौआ ने वह मिट्टी चोंच में दबाई और बड़ादेव के पास आ गया ।
बड़ादेव ने मकड़ा को आदेश दिया कि विराट जलाशय के चारों ओर एक जाला फैला दे। उसने ऐसा कर दिया। बड़ादेव ने जाला को पानी के उपर फैलाया और मिट्टी को उसके उपर बिखेर दिया। इसके पश्‍चात बड़ादेव ने पशु पक्षी तथा अन्य जानवर बनाकर पृथ्वी पर भेज दिये। उन्हीं में मानव की भी रचना की। मनुष्य ने बड़ादेव से पूछा कि-
‘‘ मैं मेरे बच्चों को क्या खिलाउं ?‘‘
बड़ादेव ने अपने माथे के बालों में से तीन बाल उखाड़े और उन्हें पृथ्वी पर फैंक दिया। उन बालों से आम, सागवान तथा कासी के पेड़ बन गये । बड़ादेव ने मनुष्य को एक कुल्हाड़ी देते हुए कहा कि इन वृक्षों की लकड़ी काटे और कुछ बनाये।
जैसे ही मनुष्य ने पेड़ों की लकड़ी काटना शुरू किया तभी कठफोड़वा ने कुल्हाड़ी के आघातों जैसी आवाज निकालते हुए पेड़ों की टहनियों पर अपनी चोंच से शाखाओं को पोली करना आरम्भ कर दिया । मनुष्य को कठफोड़वा की हरकत पर गुस्सा आया । मनुष्य ने कुल्हाड़ी कठफोड़वा के उपर फैंकी । कठफोड़वा आकाश में उड़ गया और मनुष्य की कुल्हाड़ी भी गायब हो गई।
मनुष्य बड़ादेव के पास मदद के लिये वापिस गया । बड़ादेव ने अपने अलाव में से थोड़ी सी राख मनुष्य को दी और उससे कहा कि इसे पेड़ों की जड़ों में गाड़ देना।
जैसे ही मनुष्य ने पेड़ों के पास आकर राख को उनकी जड़ों में डाला तो पेड़ों में शाखाएं व फल-फूल उत्पन्न हो गये और सारी पृथ्वी हरे जगलों से भर गई । उसने पहले काटी हुई लकड़ियों में से एक पोली लकड़ी दूर फैंकी । जिस जगह उसने लकड़ी फैंकी वहां बांस का पेड़ उग आया । बांस के झुरमुटों में से अन्न की देवी प्रगट हुई जिसने मनुष्य को लकड़ी का बना हुआ एक हल दिया । यह वही लकडी थी जिसे मनुष्य ने फेंका था और जहां बांस उगे थे । इस तरह मनुष्य ने हल से अन्न उपजाना आरम्भ किया । अन्न की देवी को गायब होने से बचाने के लिये गोंड पुरूष की स्त्री ने मिट्टी की एक कोठी बनाई और उपजे हुए अन्न को सुरक्षित रख दिया जिससे वह पूरे संसार के मनुष्यों का पोषण़ करने लगी।
इस मिथक कथा को सौहेल हाशमी ने व्याख्यायित करते हुए कहा है कि इन आदिवासियों का आदिदेव अर्थात बड़ादेव व्यस्तता या अन्य किसी वजह से रोज स्नान नहीं करता था, इसलिये उसके बदन पर मैल जम गया। भद्र समाज के देवों की तरह वह रोज स्नान व श्रृंगार नहीं करता था । इस तरह वह वैसा ही देव था जैसे कि उसके अनुयायी आदिवासी । भद्र समाज में सामान्यतः कौआ, केकड़ा और मकड़ा को बुरा मानते हैं जबकि इस मिथक में उनका सृष्टि रचना में महत्वपूर्ण अवदान बताया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि आदिवासी समाज पर्यावरण संतुलन के प्रति कितना सचेत रहा है।



सहरिया

सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी किंवदन्ती यह है कि सृष्टिकर्ता ने संसार की रचना के समय मनुष्य की विभिन्न प्रजातियों व समुदायों के लिए अलग-अलग स्थान निष्चित किये। सबसे पहले सहरिया की रचना की और उसे नियत स्थान अर्थात् पत्थर के पाटे पर बिचांे-बीच बैठा दिया। उसके बाद अन्य मनुष्यों का निर्माण किया उन्हें खाली स्थान पर बैठाया, मगर वे एक के बाद एक सहरिया को एक ओर खिसकाने लगे। सहरिया के बजाय अन्य सभी लोग चतुर व चालाक थे। खिसकते-खिसकते सहरिया पाटे के सिरे तक पहुंच गया। ईष्वर ने सबका निर्माण करने के बाद जब सहरिया से यह सवाल किया कि ’तुझको जब बीच में बैठाया था तो तू बगल में क्यों खिसकता गया?’ सहरिया ने कोई जवाब नहीं दिया। ईश्‍वर नाराज हुआ और उसने सहरिया को श्राप दिया कि ’तू अन्य मनुष्यों के साथ रहने लायक नहीं है और हमेशा जंगलो में अलग-थलग बसेगा’। खूंटीया नामक एक मिथक कथा यह पाई जाती है कि भगवान् ने पृथ्वी की रचना के बाद पहला गांव बसाया। उस गांव का खूंटा (चिह्नित करना) जिस आदमी ने गाढा वह सहरिया आदिवासियों का आदि पुरूष खूंटीया पटेल कहलाया।
तुलनात्मक दृष्टि से आधिकारिक प्रतीत होने वाली कथा इस प्रकार है कि पृथ्वी की रचना के बाद ईश्‍वर ने जल, वायु, अग्नि और वनस्पतियों की रचना की। सृष्टि रचयिता ने यह सोचा कि इन चीजों का उपयोग क्या है, तब उसने आदमी की उत्पत्ति की। आदमी एकल पुरूष था उसने कहा कि ’मुझे कोई साथी चाहिए।’ उसके आग्रह पर भगवान् ने स्त्री सृष्टि की। इसके बाद अन्य मानव समुदायों की रचना की। इसके बाद इस कथा में पूर्व पूर्वोक्त किंवदन्ती के अनुरूप अन्य मनुष्यों द्वारा सहरिया जोड़ा को मुख्य स्थान से एक कोने में खिसकाने की बात दौहराई गई है। कथा आगे इस प्रकार बढती है कि ईश्‍वर ने तत्पष्चात् सभी मनुष्यों में काम करने के लिए वस्तुओं का वितरण किया। किसी को हल दिया, किसी को पोथी, किसी को अन्य औजार आदि। सबको वस्तुओं का बटवारा करने के पश्चात् ईश्‍वर सन्तुष्ट होकर बैठा ही था कि उसकी दृष्टि सहरिया जोड़ा पर पड़ी जो चुपचाप एक कोने में सिमटा हुआ बैठा था। ईश्‍वर ने सोचा कि ऐसा सुस्त आदमी जीवनयापन कैसे करेगा। उसने सहरिया की परीक्षा लेने के आशय से कहा कि यह लम्बा चौड़ा जंगल है इसमें से कुछ भी खोज कर लाओ। सहरिया जंगल में से कन्दुरी नामक बेल के फल को ढूंढ लाया ईश्‍वर ने उस फल को चखा जो उसे अच्छा लगा। ईष्वर ने सहरिया को कहा कि तू कुछ नहीं कर पायेगा और जंगली कंद-मूल खाकर ही जीवन गुजारेगा। सहरिया मनुष्यों में प्रथम रचना थी। जंगल को सहरा भी कहा जाता है इसलिए उसका नाम सहरिया पड़ा।
सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर तथा सहरियाओं में प्रचलित एक मिथक कथा1 के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में महादेव ने धरती पर अन्न उपजाना चाहा। इसके लिए उन्होनें एक हल बनाया और अपने बैल नन्दी को उसमें जोता, परन्तु धरती पर घना जंगल था इसलिए धरती जोती नहीं जा सकी और अन्न नहीं उपजा। फिर महादेव ने मनुष्य की रचना की जिसका नाम सवर रखा। (रसेल व हीरालाल ने अपनी कृति में ’सहरिया’ संज्ञा का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन उनके द्वारा वर्णित बहुत सारी बातें सहरिया-किंवदन्तियों से मेल खाती हैं।) यही मनुष्य सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर या सहरिया के नाम से जाना गया। महादेव ने इस मनुष्य से जंगल साफ करवाया। जंगल साफ करने में जो मेहनत हुई, उसके बाद उसे भूख लगी। खाने को कुछ नहीं था तो उसने नन्दी को मारकर खा लिया। जब महादेव लौटे तो जंगल को साफ देखकर वे प्रसन्न हुए और सहरिया को जड़ी-बूटियों और अन्य कन्द-मूल आदि का ज्ञान दिया। लेकिन नन्दी को मरा हुआ देखकर उन्हें क्रोध आया। नन्दी को तो उन्होंने अभिमन्त्रित जल छिड़क कर जीवित कर दिया लेकिन सहरिया को श्राप दिया कि ’तुम हमेशा इसी तरह असभ्य बने रहोगे और जंगलों में भोजन के अभाव में जीवन बिताओगे।’
पूर्वोक्त मिथक कथाओं से यह प्रमाणित होता है कि सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर तथा सहरिया आदिवासी एक प्राचीन मानव समाज है जिसका गहरा सम्बन्ध जंगलो, जड़ी-बूटियों और सामूहिक जीवन शैली से रहा है।

मीणा

प्राप्त जानकारी के अनुसार मीणा आदिवासियों के बीच सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी किंवदन्तियां एवं मिथक कथाएं प्रत्यक्ष रूप से नहीं पायी जाती। यह मान्यता प्रायः रही है कि वे स्वयं को विष्णु के मत्स्य अवतार से जोड़ते हैं। मीणा लोक में प्रचलित कथानुसार बदरीकाआश्रम में एक बार वैवस्वत मनु के घोर तप करते समय चारिणी नदी में स्नानोपरान्त एक छोटी मछली ने निवेदन किया कि ’हे भगवन मुझे इन बडे़-बडे़ मच्छों से बचाइये अन्यथा ये मुझे खा जायेंगे। आपके इस उपकार का मैं कभी अवश्‍य बदला चुकाऊंगी।’ मछली के निवेदन पर मनु को दया आ गई और उन्होंने उस मछली को एक चन्द्र-धवल घडे़ में डाल दिया। मनु की परवरिश में मछली बड़ी होने लगी। बड़ी होने पर मछली का उस घड़े में रहना मुष्किल होने लगा। तत्पष्चात् मछली ने मनु से पुनः निवेदन किया कि ’मुझे किसी बड़ी जगह पर रखने का कष्ट करें।’ इस बार मनु ने उसे दो योजन लम्बे तथा एक योजन चौड़े एक जलाशय में रख दिया। कुछ समय पश्चात मछली ने एक भारी मच्छ का रूप ले लिया। इस पर मछली ने फिर मनु से प्रार्थना की कि ’मुझे इस जलाशय में भी हिलने-डुलने में कठिनाई होती है; अतः मुझे समुद्र की पत्नी गंगा में छोड़ दें।’ मनु ने उसके कहे अनुसार ही किया किन्तु कुछ दिनांे पश्चात उसका गंगा में रहना भी मुष्किल हो गया। उसने एक बार फिर मनु से कहा कि ’यहँा भी मेरे लिए स्वच्छन्द विचरण करना कठिन हो रहा है; अतः मुझे समुद्र में डाल दिया जाये।’ मनु ने जब उसे समुद्र में डालने के लिए उठाया तो वह मच्छ इतना हल्का हो गया कि मनु ने उसे आसानी से उठा लिया।
वैदिक परम्परा विशेष रूप से वैष्णव अवधारणा के अनुरूप उक्त मिथक कथा मीणा आदिवासियों में प्रचलित रही है लेकिन यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि मीणा आदिवासी हैं और जब वे आदिवासी हैं तो वैदिक अर्थात आर्य मान्यताओं से उनका मूलतः कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। यह वैसा ही आत्मसातीकरण है जैसा कि प्रायः समाज के तथाकथित वर्गो या जातियों द्वारा अपनी उत्पत्ति के सूत्र तथाकथित उच्च वर्ण में प्रचलित सिद्धान्तों में तलाशना। स्पष्ट है कि जो आदिवासी हैं वे आर्य नहीं हो सकते। अतः मीणा आदिवासियों का विष्णु के मत्स्यावतार से कोई लेना-देना नहीं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीन काल में मीणा आदिवासियों का शासन वर्तमान राजस्थान के कई क्षत्रों में था जिनमें वर्तमान जयपुर का तत्कालीन ढूंढाड़ राज्य। मीणा राजाओं ने पूर्व मध्यकाल तक शासन किया तत्पष्चात् बाहर से आये राजपूतों से उनका संघर्ष हुआ और वे अन्ततः सत्ताच्युत हुए। सम्भव है उथल-पुथल के उस दौर में संस्कृति व धर्म के स्तर पर वे बाहर से प्रभावित हुए हों, चूंकि मध्यकाल से पहले उनकी धार्मिक आस्थाएं लोक देवताओं के साथ-साथ षिव व शक्ति से जुड़ी हुई तो प्रमाणित होती है लेकिन वैष्णव धर्म से नहीं। जहंा तक मत्स्य या मीन से मीणा आदिवासियों का सम्बन्ध है तो इस सम्बन्ध में यह स्थापना देना उचित होगा कि मत्स्य या मीन इन आदिवासियों का गणचिह्न रहा है जैसा कि वैदिक ग्रंथों में प्राप्त सन्दर्भों यथा मत्स्य गणराज्य तथा मोहन जो दड़ा में प्राप्त अवषेषों यथा मिट्टी की मुद्राओं पर मछली के चिह्न। आदिवासियों के गणचिह्नों के बारे में यह सच्चाई है कि जिस आदिवासी घटक का जो गणचिह्न होगा उसे वह घटक संरक्षित भी करेगा और साथ-साथ उसका उपयोग या उपभोग भी करेगा जैसे भीलों का गणचिह्न महुआ, नागों का नाग आदि।

रावत सारस्वत द्वारा रचित ’मीणा इतिहास’ में लेखक यह सिद्ध कर चुके हैं कि-

1. मीणा लोग सिन्धु सभ्यता के प्रोटो द्रविड़ लोग हैं जिनका गण चिह्न मीन (मछली)।
2. ये लोग आर्यो से पहिले ही भारत में बसे हुए थे और इनकी संस्कृति-सभ्यता काफी बढ़ी-चढ़ी थी। रक्षा के लिए ये दुर्गो का उपयोग करते थे।
3. धीरे-धीरे आर्यो तथा बाद की अन्य जातियों से खदेड़े जाने पर ये सिन्धु घाटी से हटकर ’आडावळा’ पर्वत-शृंखलाओं में जा बसे, जहां इनके थोक आज भी हैं।
4. संस्कृत में ’मीन’ शब्द की व्युत्पत्ति संदिग्ध होने के कारण इन्हें ’मीन’ के संस्कृत पर्याय ’मत्स्य’ से संबोधित किया जाने लगा, जब कि ये स्वयं अपने आपको ’मीना’ ही कहते रहे।
5. आर्यो से भी प्राचीनतर समझी जाने वाली तमिल संस्कृति में ’मीन’ शब्द मछली के लिए ही प्रयुक्त हुआ है, जिससे इन लोगो का तमिल साम्राज्य के समय में होना सिद्ध होता है।
6. सिंधु-घाटी सभ्यता के नाश तथा वेदों के संकलन के बीच का समय निष्चित नहीं होने के कारण ऐसा सम्भव हो सकता है कि पर्याप्त समय बीत जाने पर ’मीनो’ को वैदिक साहित्य में आर्य मान लिया गया हो, जहंा आर्य राजा-सुदास-के शत्रुओं में इनकी गिनती की गई है।
7. मत्स्यों का जो प्रदेश वेदों, ब्राह्मणों तथा अन्यान्य भारतीय ग्रन्थों में बताया गया है वहीं आज की मीणा जाति का प्रमुख स्थान होने के कारण आधुनिक मीणे ही प्राचीन मत्स्य रहे होंगे।
8. सीथियन, शक, क्षत्रप, हूण आदि के वंशज न होकर ये लोग आदिवासी ही हैं, जो भले ही कभी बाहर से आकर बसे हों, ठीक उसी तरह जिस तरह आर्य बाहर से आकर बसे हुए बताये जाते हैं।
9. स्वभाव से ही युद्धप्रिय होने और दुर्गम स्थलों में निवास करने के कारण यह जाति भूमि का स्वामित्व भोगने वाले शासक वर्ग में ही रही है।

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

धर्म के स्तर पर भविष्य का बहतरीन विकल्प:

आदि धरम का मुद्दा आदिवासियों की अस्मिता और पहचान से जुड़ा हुआ है। जनगणना के दौरान उन्हें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या अन्य में डाल दिया जाता है। प्रथमतः, यह ‘अन्य‘ क्या है ? जो आदिवासी धर्मान्तरित नहीं होकर उनके मौलिक धर्म को मान रहे हैं ‍आने, जिन्हें सारना, सारि, संसारी, जाहेर, इत्यादि कई नाम से पहचाना जाता रहा हैं । उन्हें आदि धरम की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाता ? और जो धर्मान्तरित हैं वे भी पूरी तरह अपनी मौलिकता को नहीं छोड़ते। अगर वे परिवर्तित धर्म की तुलना में अपने मूल धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं व अनुष्ठानों को मानते हैं, तो क्यों न उन्‍हें भी ‘आदि धरम‘ की श्रेणी में माना जावे ? कुलमिलाकर इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है श्री रामदयाल मुण्डा की यह विचाराधीन कृति। ‘आदि धरम’ नामक इस पुस्तक की भूमिका में लेखक राम दयाल मुण्डा जी ने ठीक कहा है कि ’तथाकथित मुख्यधारा का आकर्षण भ्रांतिपूर्ण है। आदिवासी के लिए उसके अन्दर जाना अनंत काल के लिए गुलामी स्वीकार करना है।‘ धर्म के विभिन्न पक्षों को खोजने के लिए इस पुस्तक में लोक गीतों को प्रमुख आधार बनाया है। गीतों की मौलिकता सुरक्षित रहे इसलिए हिन्दी अनुवाद के साथ उन्हें लेखक ने अपनी मूल आदिभाषा मुण्डारी में भी प्रस्तुत करके अधिकारिक कार्य किया गया है। बहतर होता अगर आदिवासी लोक गीतों के साथ-साथ लोक किवदन्तियों, मिथकों, मिथक-कथाओं एवं अन्य संदर्भों को भी काम में लिया जाता। सृष्टि के बारे में हर अंचल के आदिवासियों के बीच कमोबेष एक जैसी मान्यता या कहें, मिथक चले आ रहे हैं। पहले जल ही जल था। ईष्वर ने मछली और केंकड़ा बनाया जो जलमग्न धरती को ऊपर लाये। फिर केंचुआ और कछुआ बनाया। फिर मानव भाई-बहन, जिन्हें बाद में पति-पत्नि का रूप दिया और अन्त में अन्य प्राणियों की रचना की। पंच महाभूतों की तरह आदिवासियों में भी सृष्टि के मूल तत्व मिटट्ी, पानी, हवा और ताप माने गये हैं। विश्‍व के सामने और विषेष रूप से हमारे देष के सामने आज ग्लोबल वार्मिंग एवं आंतकवाद और सबसे बड़ी चुनौतियां है। इस पुस्तक में इन समस्याओं के प्रति चिंता और आदि धरम के माध्यम से इनका समाधान सुझाया गया है। मुण्डा जी ने केवल झारखण्ड अंचल के आदिवासी मिथक का यहां जिक्र किया है। अन्य अंचल के आदिवासी मिथकों में सृष्टि-रचना के बारे में अलग-अलग तरह से कहा गया है। इस पुस्तक में मुण्डा जी ने पर्यावरण-संतुलन को लेकर एक उदाहरण दिया है, जो असुर आदिवासियों के औद्योगीकरण (शस्‍त्र निर्माण) और फलतः पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा जाने और ईश्‍वर (सिंगबोंगा) द्वारा दिन-रात के समय-चक्र का महत्व बताकर उन्हें रोकने से सम्बन्धित है। इस किंवदन्ती में शस्‍त्र निर्माण की फेक्ट्रियों में रात-दिन काम करने से तापमान में वृद्धि और विश्राम न करने से मनुष्यों की खोयी ऊर्जा की पुनःप्राप्ति न होने की समस्या का समाधान रात के महत्व को समझाकर किया गया है। एक रोचक कथा दिन-रात की रचना से सम्बन्धित है। कथा इस प्रकार है कि आदिवासी किसान द्वारा जंगली इलाके में झाड़-झखाड़ उखाड़ कर कृषि हेतु खेत तैयार किये जाते ईश्‍वर ने उससे खेत के बारे में पूछा और संवाद इस तरह चला-‘‘यह खेत कब तैयार किया ?’’’’आज ही,’’ मनुष्य ने कहा।’’और यह ? दूसरे खेत की ओर इशारा करते हुए परमेश्‍वर ने पूछा।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया। ’’और वो वाला ?’’ एक दूर खेत की ओर परमेश्‍वर इशारा कर रहा था।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया।’’तो तुमने ये सारे खेत आज ही बनाए ?’’’’जी’’ईश्‍वर ने सोचा मैंने केवल दिनों की ही रचना की है। मनुष्य विश्राम कब करेगा एवं इसी तरह अन्य प्राणी भी। यह दशा देखकर ईश्‍वर ने विश्राम के लिए रात की रचना की। आदि धरम प्रकृति पर आधारित धर्म है और प्रकृति तत्व सारी पृथ्वी के लिए जीवनदायनी तत्व है। यहां कोई साम्प्रदायिक कट्टरता को स्थान नहीं। यह धर्म सभी मनुष्यों की धार्मिक आस्थाओं का आधार या केन्द्रीय तत्व बनने की क्षमता रखता है। इसको स्वीकार करने या इसकी ताकत को पहचानने से अन्य धर्मो में कट्टर होने के जो सम्भावित तत्व हैं उन्हें समाप्त किया जा सकेगा जो साम्प्रदायिकता से गुजर कर अन्ततः आंतकवाद को जन्म देते हैं। आदि धरम के अनुसार मृत्यु के बाद मनुष्य किसी परलोकी स्वर्ग-नर्क में न जाकर अपने ही घर में वापस आता है और अमूर्त शक्ति के रूप में घरवालों को प्रेरणा देता रहता है। अगर वह महान कर्म करने वाला व्यक्ति रहा होता है तो लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। आदि धरम के अनुष्ठान बहुत सरल हैं पुजारी उनका अपना होता है। उसे हिन्दू वेद-मन्त्रों को सीखने की आवश्‍यकता अनुष्ठानिक सामग्री घर-गाँव में उपजी या बनी होती है। सारे धार्मिक आयोजन सामूहिक सहभागीदारी पर आधारित होते हैं। समानता की भावना महत्वपूर्ण होती है। सारे धार्मिक अवसर सांस्कृतिक रूप लिए हुए होते हैं। भारत में संथाल आदिवासी जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक हैं जो झारखण्ड व बिहार में रहते हैं। लेखक ने विस्तार से संथाल सहित अंचल में रहने वाले अन्य आदिवासियों में था, मुण्डा हो आदि के धार्मिक पक्षों के बारे में बताया है। उनके प्रमुख पर्वो में सरहुल है जिसे उनका बसंतोत्सव (प्रकृति पर्व) कहा जा सकता है। दूसरा बडा़ त्यौहार करमा है जो कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। मवेशी पर्व के रूप में सोहराई और वर्ष के अंत में आखेट पर्व जिसे फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पर्व के दौरान किये जाने वाले सामूहिक शिकार का बंटवारा सारे गाँव में किया जाता है। जिन परिवारों में पुरूष या शारीरिक दृष्टि से सक्षम सदस्य नहीं होते उन घरों में भी शिकार को बाँटा किया जाता है। भेलवा पूजन खरीफ की फसल की बुआई के बाद अगस्त-सितम्बर में होता है जिसमें भेलवा वृक्ष की टहनियों को धान के खेत में बीच-बीच गाड़ा जाता है। वैज्ञानिक शोध से निष्कर्ष निकले हैं कि भेलवा पेड़ में कीटनाशक तत्वों का जबर्दस्त समावेश होता है जो फसल के लिए हितकारी है। आयुर्वेद में भेलवा का तेल एक शक्तिशाली कीटनाशक के रूप में जाना जाता है।झारखण्ड-आदिवासियों के धर्म को सरना, छत्तीसगढ़ गांव के धर्म को गोंड़ी राजस्थान-गुजरात-मध्‍यप्रदेश के भीलों के धर्म को भीली कहा जाता है। इन धर्मों का हिन्दू या किसी अन्य धर्म से कोई वास्ता नहीं। आदिवासी समुदायों के सभी धर्म मिलकर आदिवासी धर्म अर्थात, आदि धरम बनते हैं। भारत के प्रमुख धर्मावलम्बियों में हिन्दू व मुसलमानों के बाद तीसरा स्थान जनसंख्या की दृष्टि से आदिवासियों (दस करोड़) का आता है। फिर भी इस आदि धरम को पृथक धर्म की मान्यता नहीं दी गयी है। यह असन्तोष आदिवासी समाज के भीतर व्याप्त है। गत 30 जुलाई, 2009 के दिन आदिवासी धर्म परिषद के तत्वाधान में संसद भवन के समक्ष आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों ने धरना दिया। यह एक दिवसीय धरना पूर्व मंत्री तथा आदिवासी धरम परिषद के सहसंयोजक देव कुमार धान की अध्यक्षता में सम्पन्न किया गया। यह बात जोर देकर उठायी गयी कि आदि धरम को मान्यता न मिलने के कारण आदिवासी समाज अपनी धार्मिक पहचान खो रहा हैं। निर्णय लेते हुए आदि धरम कोड और 2011 की जनगणना में धर्म सम्बन्धी कॉलम में आदि धरम को शामिल करने की मांग की गई। यह भी ऐलान किया गया कि यदि ऐसा न किया गया तो फरवरी 2011 में संसद का घेराव किया जाएगा और देशभर में आन्दोलन चलाया जाएगा। धरने के उपरांत केन्द्रीय गृहमंत्री पी। चिदम्बरम् को ज्ञापन दिया गया। इस धरने में देश के आदिवासियों के विभिन्न संगठनों एवं कई गैर सरकारी संगठनों ने हिस्सा लिया। समाज का जो भी तबका किसी भी तरह वंचित रहा, अल्प-संख्यक रहा, वर्चस्ववादी व्यवस्था से पृथक रहा उसके लिए अपनी पहचान व अस्मिता का संकट हमेशा रहा है, लेकिन अलग-अलग रहने या जागृति के अभाव में स्वयं की पहचान एवं अस्मिता या कहें स्वत्व या मान का अहसास नहीं कर पाया, वह अनेक प्रकार के भौतिक एवं भावनात्मक दबावों और तज्जनित समझ की वजह से चेतने लगा है। आज अगर दलित अपना मौलिक धर्म (जैसे धर्मवीर के ’आजीवका’) तलाशने का प्रयत्न करता है, या स्त्री अपनी मौलिकता सृजन की महत्‍ता में खोजने लगी है और अन्य पिछड़े सामाजिक घटक भी अपनी पहचान के लिए कुछ न कुछ ’मौलिक’ ढूँढने का प्रयन्त करने लगे हैं तो आदिवासियों के ’आदि धरम’ की ही तरह इन सभी तबकों की संस्कृति, भाषा, साहित्य, अतीत का वर्चस्व आदि से जुड़े सवाल उठेंगे। ये सारे सवाल इन घटकों की पहचान और अस्मिता से ही अतंतः जुड़े सिद्व होंगे। जब आदिवासी धर्म, संस्कृति या धरोहर की बात चलती है तो यही पहचान और अस्मिता केन्द्र में दिखेगी और इस वैश्विक वर्चस्ववादी दोर में सारे मुद्दे जोर-शोर से उठने शुरू होगें, जो कि हो रहे हैं।श्री रामदयाल मुण्डा एवं सह लेखक श्री रतन सिंह मानकी का यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुस्तक की सीमा कही जा सकती है कि इसमें झारखण्ड अंचल विषेष को आधार बनाया है। दूसरे, केवल लोक गीतों को केन्द्र में रखकर आदि धरम के विभिन्न पक्षों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। फिर भी तृतीय, किसी भी धर्म पर जब चर्चा की जाती है तो धर्म के मूल के दर्शन, धार्मिक आस्थाएँ और आनुष्ठानिक क्रियाकलापों को शामिल किया जाता है। मुण्डा जी ने इस पुस्तक में सृष्टि सम्बंधी मिथकों के अलावा पर्व, अनुष्ठानों पर गीतों के माध्यम से ही अधिक ध्यान दिया है। इन तीनों पक्षों का अंचलातीत विस्तार होता तो निस्संदेह यह कृति आदि धर्म के विमर्श में अमूल्य अवदान देती। साहित्य के क्षेत्र में आदिवासी धर्म एक नया एवं विशिष्ट स्थान रखने वाला विषय है इसलिए इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने शोधपूर्ण अनूठा कार्य किया है और भावी लेखकों के लिए एक प्रेरणादायक पथ प्रशस्त किया है ताकि यह कार्य और आगे बढ़े तथा आदि धरम की पहचान से भावी मानवता का प्रस्तुति से बहतरीन तालमेल के धर्म-सूत्र हमें उपलब्ध हो सके। राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन ने इस पुस्तक को छापा है इसलिए इस बारे में कुछ कहने की आवश्य‍कता नहीं है। अगर कीमत तय करते वक्त व्यावसायिकता को थोड़ी कम तवज्जो दी होती तो पाठकों की संख्या में विस्तार की सम्भावना को अधिक अवसर मिलता। निश्चित रूप से यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो पठनीय और संग्रहणीय है।