बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

बिरसा मुंडा की याद में

अभी-अभी
सुन्न हुई उसकी देह से
बिजली की लपलपाती कौंध निकली
जेल की दीवार लाँघती
तीर की तरह जंगलों में पहुँची
एक-एक दरख्त, बेल, झुरमुट
पहाड़, नदी, झरना
वनप्राणी-पखेरू, कीट, सरीसृप
खेत-खलिहान, बस्ती
वहाँ की हवा, धूल, जमीन में समा गई........
एक अनहद नाद गूँजा-
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्‍‍तैनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दाव मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!’
उलगुलान!!
उलगुलान!!!‘‘

जंगल की धरती की बायीं भुजा फड़की
हरे पत्तों में सरसराहट......
सूखों में खड़खड़ाहट......
फिर
मौन हो गया
कुछ देर के लिए सारा आंचल।

खेलने-कूदने की उम्र में
लोगों का आबा बन गया था वह
दिकुओं’’ के खिलाफ
बाँस की तरह फूटा था धरती से
जैसे उसी पल गरजा हो आकाश
और
काँपे हों सिंहों के अयाल।
----------
’ विद्रोह
’’ शोषक

नौ जून, सन.....उन्नीस सौ
सुबह नौ बजे-
वह राँची की आतताई जेल
जल्लादों का बर्बर खेल
अन्ततः.....
बिरसा की शान्त देह!

‘‘क्या किया जाए इसका?‘‘
हैरान थे,
दिकुओं के ताकतवर नुमाइंदे
जिन्दा रहा खतरनाक बनकर
मार दिया तो
और भी भयानक
अगर दफनाया तो धरती हिलेगी
जो जलाया-आँधी चलेगी।

वह मुंडारी पहाड़ों-सी काली काया
नसें, जैसे नीले पानी से लबालब खामोश नदियाँ
उभरे पठार-सी चैड़ी छाती
पथराई आँखें-
जैसे अभी-अभी दहकते अंगारों पर
भारी हिमखण्ड रख दिए हों।

कुछ देर पहले ही तो हुई थी खून की कै
जेल कोठरी के मनहूस फर्श पर
उसी के ताजा थक्के.....
नहीं!
थक्के न कहें,
वे लग रहे थे-
हाल ही कुचले पलाश के फूल
या
खौलते लावा की थोड़ी-सी बानगी।

चेहरे पर
मुरझाई खाल की सलवटों की जगह
उभर आया एक खिंचाव
जैसे,
रेशा-रेशा मोर्चाबन्द हो
गिलोल की मानिन्द
धनुष की कमान-सी तनी माँसपेशियाँ
रोम-रोम जैसे-
तरकस में सुरक्षित
असंख्य तीरों की नोंक
गोया,
वह निस्पन्द बिरसा न होकर
आजाद होने के लिए कसमसाता
समूचा जंगल हो।
उन्हें इन्तजार था
सूरज के डूब जाने का
दिनभर के उजास को
वे छुपाते रहे सुनसान अन्धी गुफा में
जिसके दूसरे छोर पर गहरी खाई
वहीं उन्होंने
बिरसा मंडा से निजात पाई।

कहते हैं-
काले साँप को मारकर गाड़ देने से
खत्म नहीं हो जाती यह सम्भावना कि
पुरवाई चले और वह जी उठे
यदि ऐसा हो तो
परिपक्व जीवन को
धरती अपने गर्भ में नहीं रखती।
बिरसा
उनके लिए
साँप से खतरनाक था
वह दिकूभक्षी शेर था
और
वह भी अभी जवान।
इसलिए
उसे दफनाया नहीं
जलाया था-रात के लिहाफ में छुपाकर
यह जानते हुए भी कि
दुनिया में ऐसी कोई आग नहीं जो
दूसरी आग को जलाकर राख कर दे।

रात के बोझिल सन्नाटे ने स्वयं को कोसा
आकाष के सजग पहरेदारों की आँखें सुर्ख हुईं
हवा ने दौड़कर-
मुंडारी अंचल को हिम्मत बँधाई.....
उन्होंने
आदमी समझकर बिरसा को मार दिया
मगर बिरसा आदमी से बढ़कर था
वह आबा
वह ष्भगवान्ष्
वह जंगल का दावेदार......

उसकी आवाज
जंगलों में अभी भी गूँजती है-
''मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्‍तेनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!श्

2 टिप्‍पणियां:

भंगार ने कहा…

बहुत सुंदर सोच है आप की

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

मन को सच की चोट से व्यथित कर देने वाली पंक्तियाँ लिखीं हैं आपने