सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

धर्म के स्तर पर भविष्य का बहतरीन विकल्प:

आदि धरम का मुद्दा आदिवासियों की अस्मिता और पहचान से जुड़ा हुआ है। जनगणना के दौरान उन्हें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या अन्य में डाल दिया जाता है। प्रथमतः, यह ‘अन्य‘ क्या है ? जो आदिवासी धर्मान्तरित नहीं होकर उनके मौलिक धर्म को मान रहे हैं ‍आने, जिन्हें सारना, सारि, संसारी, जाहेर, इत्यादि कई नाम से पहचाना जाता रहा हैं । उन्हें आदि धरम की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाता ? और जो धर्मान्तरित हैं वे भी पूरी तरह अपनी मौलिकता को नहीं छोड़ते। अगर वे परिवर्तित धर्म की तुलना में अपने मूल धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं व अनुष्ठानों को मानते हैं, तो क्यों न उन्‍हें भी ‘आदि धरम‘ की श्रेणी में माना जावे ? कुलमिलाकर इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है श्री रामदयाल मुण्डा की यह विचाराधीन कृति। ‘आदि धरम’ नामक इस पुस्तक की भूमिका में लेखक राम दयाल मुण्डा जी ने ठीक कहा है कि ’तथाकथित मुख्यधारा का आकर्षण भ्रांतिपूर्ण है। आदिवासी के लिए उसके अन्दर जाना अनंत काल के लिए गुलामी स्वीकार करना है।‘ धर्म के विभिन्न पक्षों को खोजने के लिए इस पुस्तक में लोक गीतों को प्रमुख आधार बनाया है। गीतों की मौलिकता सुरक्षित रहे इसलिए हिन्दी अनुवाद के साथ उन्हें लेखक ने अपनी मूल आदिभाषा मुण्डारी में भी प्रस्तुत करके अधिकारिक कार्य किया गया है। बहतर होता अगर आदिवासी लोक गीतों के साथ-साथ लोक किवदन्तियों, मिथकों, मिथक-कथाओं एवं अन्य संदर्भों को भी काम में लिया जाता। सृष्टि के बारे में हर अंचल के आदिवासियों के बीच कमोबेष एक जैसी मान्यता या कहें, मिथक चले आ रहे हैं। पहले जल ही जल था। ईष्वर ने मछली और केंकड़ा बनाया जो जलमग्न धरती को ऊपर लाये। फिर केंचुआ और कछुआ बनाया। फिर मानव भाई-बहन, जिन्हें बाद में पति-पत्नि का रूप दिया और अन्त में अन्य प्राणियों की रचना की। पंच महाभूतों की तरह आदिवासियों में भी सृष्टि के मूल तत्व मिटट्ी, पानी, हवा और ताप माने गये हैं। विश्‍व के सामने और विषेष रूप से हमारे देष के सामने आज ग्लोबल वार्मिंग एवं आंतकवाद और सबसे बड़ी चुनौतियां है। इस पुस्तक में इन समस्याओं के प्रति चिंता और आदि धरम के माध्यम से इनका समाधान सुझाया गया है। मुण्डा जी ने केवल झारखण्ड अंचल के आदिवासी मिथक का यहां जिक्र किया है। अन्य अंचल के आदिवासी मिथकों में सृष्टि-रचना के बारे में अलग-अलग तरह से कहा गया है। इस पुस्तक में मुण्डा जी ने पर्यावरण-संतुलन को लेकर एक उदाहरण दिया है, जो असुर आदिवासियों के औद्योगीकरण (शस्‍त्र निर्माण) और फलतः पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा जाने और ईश्‍वर (सिंगबोंगा) द्वारा दिन-रात के समय-चक्र का महत्व बताकर उन्हें रोकने से सम्बन्धित है। इस किंवदन्ती में शस्‍त्र निर्माण की फेक्ट्रियों में रात-दिन काम करने से तापमान में वृद्धि और विश्राम न करने से मनुष्यों की खोयी ऊर्जा की पुनःप्राप्ति न होने की समस्या का समाधान रात के महत्व को समझाकर किया गया है। एक रोचक कथा दिन-रात की रचना से सम्बन्धित है। कथा इस प्रकार है कि आदिवासी किसान द्वारा जंगली इलाके में झाड़-झखाड़ उखाड़ कर कृषि हेतु खेत तैयार किये जाते ईश्‍वर ने उससे खेत के बारे में पूछा और संवाद इस तरह चला-‘‘यह खेत कब तैयार किया ?’’’’आज ही,’’ मनुष्य ने कहा।’’और यह ? दूसरे खेत की ओर इशारा करते हुए परमेश्‍वर ने पूछा।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया। ’’और वो वाला ?’’ एक दूर खेत की ओर परमेश्‍वर इशारा कर रहा था।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया।’’तो तुमने ये सारे खेत आज ही बनाए ?’’’’जी’’ईश्‍वर ने सोचा मैंने केवल दिनों की ही रचना की है। मनुष्य विश्राम कब करेगा एवं इसी तरह अन्य प्राणी भी। यह दशा देखकर ईश्‍वर ने विश्राम के लिए रात की रचना की। आदि धरम प्रकृति पर आधारित धर्म है और प्रकृति तत्व सारी पृथ्वी के लिए जीवनदायनी तत्व है। यहां कोई साम्प्रदायिक कट्टरता को स्थान नहीं। यह धर्म सभी मनुष्यों की धार्मिक आस्थाओं का आधार या केन्द्रीय तत्व बनने की क्षमता रखता है। इसको स्वीकार करने या इसकी ताकत को पहचानने से अन्य धर्मो में कट्टर होने के जो सम्भावित तत्व हैं उन्हें समाप्त किया जा सकेगा जो साम्प्रदायिकता से गुजर कर अन्ततः आंतकवाद को जन्म देते हैं। आदि धरम के अनुसार मृत्यु के बाद मनुष्य किसी परलोकी स्वर्ग-नर्क में न जाकर अपने ही घर में वापस आता है और अमूर्त शक्ति के रूप में घरवालों को प्रेरणा देता रहता है। अगर वह महान कर्म करने वाला व्यक्ति रहा होता है तो लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। आदि धरम के अनुष्ठान बहुत सरल हैं पुजारी उनका अपना होता है। उसे हिन्दू वेद-मन्त्रों को सीखने की आवश्‍यकता अनुष्ठानिक सामग्री घर-गाँव में उपजी या बनी होती है। सारे धार्मिक आयोजन सामूहिक सहभागीदारी पर आधारित होते हैं। समानता की भावना महत्वपूर्ण होती है। सारे धार्मिक अवसर सांस्कृतिक रूप लिए हुए होते हैं। भारत में संथाल आदिवासी जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक हैं जो झारखण्ड व बिहार में रहते हैं। लेखक ने विस्तार से संथाल सहित अंचल में रहने वाले अन्य आदिवासियों में था, मुण्डा हो आदि के धार्मिक पक्षों के बारे में बताया है। उनके प्रमुख पर्वो में सरहुल है जिसे उनका बसंतोत्सव (प्रकृति पर्व) कहा जा सकता है। दूसरा बडा़ त्यौहार करमा है जो कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। मवेशी पर्व के रूप में सोहराई और वर्ष के अंत में आखेट पर्व जिसे फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पर्व के दौरान किये जाने वाले सामूहिक शिकार का बंटवारा सारे गाँव में किया जाता है। जिन परिवारों में पुरूष या शारीरिक दृष्टि से सक्षम सदस्य नहीं होते उन घरों में भी शिकार को बाँटा किया जाता है। भेलवा पूजन खरीफ की फसल की बुआई के बाद अगस्त-सितम्बर में होता है जिसमें भेलवा वृक्ष की टहनियों को धान के खेत में बीच-बीच गाड़ा जाता है। वैज्ञानिक शोध से निष्कर्ष निकले हैं कि भेलवा पेड़ में कीटनाशक तत्वों का जबर्दस्त समावेश होता है जो फसल के लिए हितकारी है। आयुर्वेद में भेलवा का तेल एक शक्तिशाली कीटनाशक के रूप में जाना जाता है।झारखण्ड-आदिवासियों के धर्म को सरना, छत्तीसगढ़ गांव के धर्म को गोंड़ी राजस्थान-गुजरात-मध्‍यप्रदेश के भीलों के धर्म को भीली कहा जाता है। इन धर्मों का हिन्दू या किसी अन्य धर्म से कोई वास्ता नहीं। आदिवासी समुदायों के सभी धर्म मिलकर आदिवासी धर्म अर्थात, आदि धरम बनते हैं। भारत के प्रमुख धर्मावलम्बियों में हिन्दू व मुसलमानों के बाद तीसरा स्थान जनसंख्या की दृष्टि से आदिवासियों (दस करोड़) का आता है। फिर भी इस आदि धरम को पृथक धर्म की मान्यता नहीं दी गयी है। यह असन्तोष आदिवासी समाज के भीतर व्याप्त है। गत 30 जुलाई, 2009 के दिन आदिवासी धर्म परिषद के तत्वाधान में संसद भवन के समक्ष आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों ने धरना दिया। यह एक दिवसीय धरना पूर्व मंत्री तथा आदिवासी धरम परिषद के सहसंयोजक देव कुमार धान की अध्यक्षता में सम्पन्न किया गया। यह बात जोर देकर उठायी गयी कि आदि धरम को मान्यता न मिलने के कारण आदिवासी समाज अपनी धार्मिक पहचान खो रहा हैं। निर्णय लेते हुए आदि धरम कोड और 2011 की जनगणना में धर्म सम्बन्धी कॉलम में आदि धरम को शामिल करने की मांग की गई। यह भी ऐलान किया गया कि यदि ऐसा न किया गया तो फरवरी 2011 में संसद का घेराव किया जाएगा और देशभर में आन्दोलन चलाया जाएगा। धरने के उपरांत केन्द्रीय गृहमंत्री पी। चिदम्बरम् को ज्ञापन दिया गया। इस धरने में देश के आदिवासियों के विभिन्न संगठनों एवं कई गैर सरकारी संगठनों ने हिस्सा लिया। समाज का जो भी तबका किसी भी तरह वंचित रहा, अल्प-संख्यक रहा, वर्चस्ववादी व्यवस्था से पृथक रहा उसके लिए अपनी पहचान व अस्मिता का संकट हमेशा रहा है, लेकिन अलग-अलग रहने या जागृति के अभाव में स्वयं की पहचान एवं अस्मिता या कहें स्वत्व या मान का अहसास नहीं कर पाया, वह अनेक प्रकार के भौतिक एवं भावनात्मक दबावों और तज्जनित समझ की वजह से चेतने लगा है। आज अगर दलित अपना मौलिक धर्म (जैसे धर्मवीर के ’आजीवका’) तलाशने का प्रयत्न करता है, या स्त्री अपनी मौलिकता सृजन की महत्‍ता में खोजने लगी है और अन्य पिछड़े सामाजिक घटक भी अपनी पहचान के लिए कुछ न कुछ ’मौलिक’ ढूँढने का प्रयन्त करने लगे हैं तो आदिवासियों के ’आदि धरम’ की ही तरह इन सभी तबकों की संस्कृति, भाषा, साहित्य, अतीत का वर्चस्व आदि से जुड़े सवाल उठेंगे। ये सारे सवाल इन घटकों की पहचान और अस्मिता से ही अतंतः जुड़े सिद्व होंगे। जब आदिवासी धर्म, संस्कृति या धरोहर की बात चलती है तो यही पहचान और अस्मिता केन्द्र में दिखेगी और इस वैश्विक वर्चस्ववादी दोर में सारे मुद्दे जोर-शोर से उठने शुरू होगें, जो कि हो रहे हैं।श्री रामदयाल मुण्डा एवं सह लेखक श्री रतन सिंह मानकी का यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुस्तक की सीमा कही जा सकती है कि इसमें झारखण्ड अंचल विषेष को आधार बनाया है। दूसरे, केवल लोक गीतों को केन्द्र में रखकर आदि धरम के विभिन्न पक्षों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। फिर भी तृतीय, किसी भी धर्म पर जब चर्चा की जाती है तो धर्म के मूल के दर्शन, धार्मिक आस्थाएँ और आनुष्ठानिक क्रियाकलापों को शामिल किया जाता है। मुण्डा जी ने इस पुस्तक में सृष्टि सम्बंधी मिथकों के अलावा पर्व, अनुष्ठानों पर गीतों के माध्यम से ही अधिक ध्यान दिया है। इन तीनों पक्षों का अंचलातीत विस्तार होता तो निस्संदेह यह कृति आदि धर्म के विमर्श में अमूल्य अवदान देती। साहित्य के क्षेत्र में आदिवासी धर्म एक नया एवं विशिष्ट स्थान रखने वाला विषय है इसलिए इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने शोधपूर्ण अनूठा कार्य किया है और भावी लेखकों के लिए एक प्रेरणादायक पथ प्रशस्त किया है ताकि यह कार्य और आगे बढ़े तथा आदि धरम की पहचान से भावी मानवता का प्रस्तुति से बहतरीन तालमेल के धर्म-सूत्र हमें उपलब्ध हो सके। राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन ने इस पुस्तक को छापा है इसलिए इस बारे में कुछ कहने की आवश्य‍कता नहीं है। अगर कीमत तय करते वक्त व्यावसायिकता को थोड़ी कम तवज्जो दी होती तो पाठकों की संख्या में विस्तार की सम्भावना को अधिक अवसर मिलता। निश्चित रूप से यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो पठनीय और संग्रहणीय है।

1 टिप्पणी:

अनुनाद सिंह ने कहा…

हरिराम जी,
आपका हिन्दी ब्लागजगत में स्वागत है।