मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

हरिराम मीणा द्वारा नन्हीं कविताएँ भाग एक

एक
जो जमीन से नहीं थे जुड़े
वो ही जमीनों को ले उड़े।
दो
षड़यंत्र-अष्व की ठोकर से मेरी प्रतिमा हो गयी नष्ट
मेरे भीतर सुकरात, बुद्ध, ईसा, गांधी
इसलिये सहज सह लिया कष्ट।
तीन
सर्द रात के पिछवाड़े में
जलता रहा सूरज का अलाव
और मैं उतरता चला गया सपनों के सागर में।
चार
हलका होने के लिये
बहुत बांटा गया दुनिया में दर्द को
मगर अलहदा है मेरा तजरूबा इस सबसे।
पाॅंच
जेठ की उस दुपहर तो
फट ही गया था आसमान का ज्वालामुखी
वह तो कवच था पसीने का
जो मैं चलता ही गया जानिबेमंजिल।

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