मेरा जन्म एक मई सन् 1952 राजस्थान के सवाई माधोपुर जिला के बामनवास ग्राम के एक साधारण किसान आदिवासी परिवार में हुआ। मैंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव एवं निकटवर्ती कस्बा गंगापुर सिटी में प्राप्त की। तत्पश्चात राजस्थान कालेज एवं राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से क्रमशः स्नातक एवं स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की। स्नातक के विषय हिन्दी, इतिहास एवं नागरिक शास्त्र रहे और स्नातकोत्तर डिग्री राजनीति विज्ञान से प्राप्त की। संप्रति पुलिस विभाग में उप महानिरीक्षक के पद पर हूं। आरम्भ से ही लिखने पढने में रूचि रही। विशेष रूप में भारतीय दर्शन, परम्परा, साहित्य, संस्कृति व लोक से सम्बन्धित विशेष अध्ययन किया। गत कुछ अर्सा से आदिवासी जीवन के विभिन्न पक्षो एवं लोक गीतों पर शोध कर जानकारी जुटाने एवं चिंतन करने में रूचि ले रहा हूं। पर्यावरण चेतना, नशा मुक्ति एवं मानवाधिकार जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में भी मैंने कार्य किया है। वन्य जीव संरक्षण के लिए मुझे वर्ष 1999 में पदम् श्री साँखला अवार्ड नेचर क्लब आफ इंडिया द्वारा प्रदान किया गया। मेरा पहला कविता संग्रह वर्ष 1999 में जगतराम एण्ड संस दिल्ली से ‘‘हाँ चाँद मेरा है’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ जिसकी समस्त कविताएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में पूर्व में ही छप चुकी थी और इन रचनाओं ने मुझे कवि के रूप में पहचान दिलाई। इसी पुस्तक पर मुझे राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोच्च मीरा पुरस्कार वर्ष 2003 में प्रदान किया गया। इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण भी आया। मैंने अण्डमान के जारवा एवं सेन्टेनेली आदिवासियों पर अध्ययन किया जो मेरी यात्रा वृतान्त की पुस्तक ‘साईबर सिटी से नंगे आदिवासियों तक’ में प्रकाशित है। यह पुस्तक वर्ष 2001 में शिल्पायन प्रकाशन ,दिल्ली से प्रकाशित हुई है। मैंने भारतीय मिथकों पर भी कार्य किया है। इसी क्रम में कालिदास की ख्यातिप्राप्त कृति ‘मेघदूत’ के मिथकों को आधुनिक संदर्भ में पुर्नव्याख्यायित करते हुए मैंने चर्चित प्रबन्ध काव्य ‘रोया नहीं था यक्ष’ लिखा जिसे जगतराम एण्ड संस, दिल्ली ने छापा। वर्ष 2008 में इस कृति का दूसरा संस्करण भी आया है और साथ ही पेपर बेक में भी इसे प्रकाशित किया गया है। वर्ष 2000 से 2006 के मध्य यत्र-तत्र प्रकाशित कविताओं का दूसरा संकलन शिल्पायन से वर्ष 2006 में ‘सुबह के इंतजार में’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। ब्रिटिश कालीन आदिवासी संघर्षों पर मैंने महत्वपूर्ण कार्य किया है। मध्य भारत के राजस्थान एवं गुजरात की जलियांवाला जैसी तीन घटनाओं पर शोध किया है। इस शोध को मैंने यात्रा वृत्तान्तिक विधा में लिपिबद्ध किया जो वर्ष 2008 में ‘जंगल जंगल जलियांवाला’ शीर्षक से शिल्पायन दिल्ली ने छापा है। यह पुस्तक भी एक चर्चित कृति के रूप में सामने आयी है। इस पुस्तक में वर्णित घटनाएँ 1913 एवं 1922 की हैं जिनमें ब्रिटिश व सामंती फौजों से लोहा लेते हुए करीब साढे तीन हजार आदिवासी शहीद हुए। आदिवासी संघर्ष और बलिदान की उपरोक्त घटनाओं में से जिला बांसवाड़ा (राजस्थान) के मानगढ पर्वत पर 17 नवम्बर सन् 1913 के दिन घटी घटना पर आधारित मेरा महत्वपूर्ण उपन्यास साहित्य उपक्रम (करनाल-दिल्ली) से 2008 में प्रकाशित हुआ है जो हार्ड कवर व पेपर बेक दोनों में छपा है। पौने चार सौ पृष्ठों के ‘धूणी तपे तीर’ शीर्षक से यह उपन्यास छपा। यह कृति चर्चा का विषय बनी हुई है जो आदिवासी शोषण, संघर्ष व बलिदान के साथ साथ आदिवासी जीवन एवं संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को भी आधिकारिक व रोचकता के साथ प्रस्तुत करती है। लेखन के साथ मैंने संपादकीय कर्म में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आदिवासी केन्द्रित पत्रिका ‘अरावली उद्घोष’ का सह सम्पादन एवं ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘दस्तक’ एवं ‘अकार’ के आदिवासी विशेषाकों के सम्पादन में भी मैंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मेरी रचनाएँ यथा कविताएँ, कहानियां, यात्रा वृत्त, चिन्तनपरक लेख, साक्षात्कार, उपन्यास अंश आदि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, नई दुनिया, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पहल, हंस, कथादेष, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, इन्द्रप्रस्थ भारती, कथन, वर्तमान साहित्य, समकालीन सृजन तथा दूरदर्शन व आकाशवाणी आदि के माध्यम से प्रकाशित एवं प्रसारित होते रहे हैं। ऐसे ही जन संचार माध्यमों से उनकी पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित व प्रसारित होती रही हैं। सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन (सूरीनाम) में मैंने राजस्थान राज्य के लेखकों के आठ सदस्यीय दल के सदस्य के रूप में शिरकत की और अपनी भागीदारी दर्ज कराई। विश्व के प्रतिष्ठित ‘जयपुर लिटरेरी फेस्टीवल’ (विरासत फाउण्डेशन) जनवरी 21-25, सन् 2009 में मेरे को सम्मान के साथ बुलाया। मैं हिन्दी भाषा के मात्र छः साहित्यकारों में से एक था। ‘ धूणी तपे तीर ’ उपन्यास के अंष मैंने निर्धारित सत्र में पढे। इस फेस्टीवल का मंच स्वयं में प्रतिष्ठा की बात थी जहाँ अंग्रेजी के अलावा विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर चर्चा हुई। दिनांक 27 से 31 जनवरी तक, सन् 2009 में अंतर्राष्ट्रीय महात्मा गाँधी हिन्दी विश्व विद्यालय, वर्धा में ‘हिन्दी समय’ कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें मैंने सक्रिय भागीदारी निभायी। इससे पूर्व केन्द्रीय साहित्य अकादमी के तत्वावधान में दिल्ली (2001) एवं रांची (2003) में आयोजित अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक सम्मेलनों में भी मैंने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। दलित चेतना के क्षेत्र में कार्य करने के लिए श्री मीणा को वर्ष 2000 में डा0 अम्बेडकर राष्ट्रीय अवार्ड मिल चुका है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का अत्यन्त प्रतिष्ठित ‘महापंडित राहुल सांकृत्यान पुरस्कार - वर्ष 2007’ मुझे उनके खोजी साहित्य एवं हिन्दी भाषा को अवदान के लिए हाल ही दिनांक 16.02.2009 को राष्ट्रपति भवन में दिया गया है। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधावों के माध्यम से निरन्तर हस्तक्षेप करते रहने पर मेरी कृतियां एवं अन्य रचनाएँ एक अनूठे पक्ष, तासीर व पठनीयता के साथ आपके सामने आती रही हैं।
हरीराम मीणा 31,
शिवशक्ति नगर, किंग्स रोड़,अजमेर हाई-वे,
जयपुर,302019
जिसके कंठ से पृथ्वी के सारे वृक्ष एक साथ कविता पाठ करते थे : मिगुएल
हर्नान्देज़
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मिगुएल हर्नान्देज़ ऐसा कवि नहीं था , जैसा हम अक्सर अपने आसपास के कवियों के
बारे में जानते-सुनते हैं. उसका जीवन और उसकी कवितायेँ , दोनों के भीतर
संवेदना, अनु...
9 वर्ष पहले
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