गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

आदिवासी लड़की

आदिवासी युवती पर
वो तुम्हारी चर्चित कविता
क्या खूबसूरत पंक्तियाँ-
‘गोल-गोल गाल
उन्नत उरोज
गहरी नाभि
पुष्ट जंघाएँ
मदमाता यौवन......‘
यह भी तो कि-
‘नायिका कविता की
स्वयं में सम्पूर्ण कविता
ज्यों
हुआ साकार तन में
प्रकृति का सौन्दर्य सारा
रूप से मधु झर रहा
एवं
सुगन्धित पवन उससे.....‘

अहा,
क्या कहना कवि
तुम्हारे सौन्दर्य-बोध का
अब इन परिकल्पित-ऊँचाइयों पर
स्वप्निल भाव-तरंगों के साथ उड़ते
कलात्मक शब्द-यान से नीचे उतर कर
चलो उस अंचल में
जहाँ रहती है वह आदिवासी लड़की

देखो गौर से उस लड़की को
जिसके गोल-गोल गालों के ऊपर
-ललाट है
जिसके पीछे दिमाग
दिमाग की कोशिकाओं पर टेढ़ी-मेढी़ खरोंचें
यह एक लिपि है
पहचानो,
इसकी भाषा और इसके अर्थ को

जिन्हें तुम उन्नत उरोज कहते हो
प्यारा-सा दिल है उनकी जड़ों के बीच
कँटीली झाड़ियों में फँसा हुआ
घिरा है थूहर के कुँजों से
चारों ओर पसरा विकट जंगल
जंगल में हिंसक जानवर
जहरीले साँप-गोहरे-बिच्छू
इस केनवास में
उस लड़की की तस्वीर बनाओ कवि

अपना रंगीन चश्‍मा उतार कर देखो
लड़की की गहरी नाभि के भीतर
पेट में भूख से सिकुड़ी उसकी आँतों को
सुनो उन आँतों का आर्तनाद
और
अभिव्यक्त करने के लिए
तलाशो कुछ शब्द अपनी भाषा में

उतरो कवि,
लड़की की ‘पुष्ट‘ जंघाओं के नीचे
देखो पैरों के तलुओं को
विबाइयों भरी खाल पर
छाले-फफोलों से रिसते स्त्राव को देखो
कैसा काव्य-बिम्ब बनता है कवि

और भी बहुत कुछ है
उस लड़की की देह में
जैसे-
हथेलियों पर उभरी
आटण से बिगड़ी उसकी दुर्भाग्य-रेखाएँ
सारे बदन से चूते पसीने की गन्ध
यूँ तो
चेहरा ही बहुत कह देता है
और आँखों के दर्पण में
उसके कठोर जीवन का प्रतिबिम्ब-है ही

बन्द कमरे की कृत्रिम रोशनी से परे
बाहर फैली कड़ी धूप में बैठकर
फिर से लिखना
उस आदिवासी लड़की पर कविता।

3 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

मीणा जी यह उन तमाम छद्म यथार्थ्वादियो के मुह पर तमाचा है जो कला के नाम पर अपनी वीभत्सता परोसते है ।

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

बहुत सौन्दर्यपूर्ण सच के सन्दर्भ याद दिलाती रचनाहै आपकी . सचमुच बहुत अच्छी लगी

L.Goswami ने कहा…

मित्र शरद जी ने सही कहा ..आपका ब्लॉग बढ़िया लगा ..कवितायेँ भी.