पिछले दिनों अपने अध्ययन कक्ष की आलमारियों में रखे पुराने दस्तावेज खंगाल रहा था, तभी अखबारों के कुछ पुराने अंकों पर नज़र पड़ी। तारीख 7 दिसम्बर 2004 की ‘‘राजस्थान पत्रिका’’ में भरत झुन्झनवाला का सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘‘आदिवासियों का जंगल प्रेम एक भ्रम’’ षीर्षक से छपा लेख पढकर दुःखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने लिखा आदिवासी जंगलों को उजाड़ते रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया केन्द्र सरकार की इस प्रस्तावित योजना पर थी कि जंगलों को सुरक्षित रखना है तो आदिवासियों का सहयोग लिया जाय।
आदिवासियों की परम्परा में जंगलों को उजाड़ना नहीं, बल्कि उनकी हिफाजत करना रहा है। हरे वृक्षों को काटना पाप माना जाता रहा है। औषध वनस्पतियों के पौधों को समूल उखाड़ना प्रकृति की सत्ता के विरूद्ध अपराध माना गया है। अत्यावष्यक होने पर कोई हरी टहनी काटनी पडे़ तो उससे पहले वृक्ष से क्षमा याचना करने की प्रथा आदिवासियों में रही है। इमारती लकड़ी के नाम पर पत्तों और सूखी लकड़ियों का ही इस्तेमाल किया जाता है।
जंगलों को कौन उजाड़ता रहा है, इस सवाल का जवाब तलाषने के लिए इतिहास में जाना चाहिए। सबसे पहले कृषि योग्य भूमि तैयार करने के लिए आर्यो ने जंगलों को जलाना आरम्भ किया। इस कार्य को बाकायदा ‘यज्ञ’ का नाम दिया गया। खाण्डव वन-दहन इसका एक उदाहरण है। उस घटना का तीखा विरोध नाग जनजाति ने अपने मुखिया वासुकी के नेतृत्व में किया था। जंगलों के पक्ष में वह पहला आदिवासी प्रतिरोध था जो युद्ध तक पहुँचा और अनेक आदिवासी शहीद हुए। हालांकि उस जमाने में कृषि योग्य भूमि की आवश्यकता थी।
इस उदाहरण के बाद हम सीधे अंग्रेरज - काल में आते हैं, जहाँ से बाहरी व्यक्तियों अर्थात गैर आदिवासियों की घुसपैठ जंगलों में जबरदस्त तरीकों से शुरू हुई। वनोपज का अधिकाधिक दोहन, ठेकेदारों के मार्फत इमारत व फर्नीचर आदि के काम में आने वाली लकड़ी की बडे़ पैमाने पर कटाई और आदिवासियों पर अनेक प्रकार की पाबन्दियों का दौर यहीं से आरम्भ होता है। जंगलों में इस तरह की घुसपैठ का विरोध और किसी ने नहीं, प्रत्युत आदिवासी समूहों ने किया था। सन् 1770-71 के पलामू विद्रोह से इस विरोध की शुरूआत होती है जो सन् 1932-47(नागा रानी गाईदिल्ल्यू का नेतृत्व) तक निरन्तर जारी रहा। देष के विभिन्न आदिवासी अंचलों में यह विरोध अभी भी जारी हैं।
आदिवासियों को जीने के लिए बहुत ही सीमित साधन चाहिए। यह उनकी जीवन-संस्कृति की आदिम सोच रही है जिसमें अब तक बदलाव नहीं आया है। घास-फूस की झोंपड़ी, यहाँ-वहाँ कुछ खाली पड़ी जमीन में अत्यन्त कम मात्रा में खेती-बाड़ी और सहज उपलब्ध वनोपज को निकटवर्ती हाट-बाजार में बेच कर दैनिक उपयोग की कुछ आवश्यक वस्तुओं की खरीद से आगे उनकी मानसिकता नहीं बढी है। अगर ऐसा न होता तो आदिवासी आज भी फटे-हाल न रहकर जंगलों को नष्ट करने वाले ठेकेदारों की तरह साधन सम्पन्न होते।
जब हम जंगलों को बचाने की बात करते हैं तो निश्िचत रूप से वन्य-जीवों के संरक्षण के मुद्दे को भी शामिल करते हैं। आदिम अवस्था से जंगली जीवों के साथ आदिवासियों के आत्मीय और सह अस्तित्व के सम्बंध रहे हैं। ये तीतर-बटेर-खरगोश के छुटमुट शिकार की बातें छोड़ो। हाथी-शेर-चीतों-भालू जैसे वन्य जीवों का शिकार कर उनकी खाल व अन्य हिस्सों को बेचकर धनाढ्य होने वाले या शोकिया और तथाकथित बहादुरी दिखाने के लिए पर्सनल म्यूजियमों में वन्य जीवों के मुखोटों को टांगने वाले आदिवासी न होकर और ही लोग रहे हैं।
मैं यहाँ दुनिया के उन दो आदिवासी समूहों का जिक्र करना चाहूंगा जो अभी ठेठ आदिम अवस्था में जीवन जी रहे हैं। ये हैं अण्डमान के ‘जारवा’ और ‘सेंटेनली’ आदिवासी। सन् 1999 के जनवरी माह में मैं वहाँ गया था और उन पर संक्षिप्त अध्ययन किया गया था। मैं यह जानकर दंग रह गया कि ये आदिवासी अभी भी घरों में रहना नहीं सीखे हैं और छोटे-छोटे समूहों में वन्य जीवों की तरह की अपने टापुओं में यहाँ से वहाँ विचरते रहते हैं। आग को जानते हैं, लेकिन जो कुछ खाते हैं उसे कच्चा ही खाते हैं। सम्पत्ति की अवधारणा अभी विकसित नहीं हुई है। जब भूख लगी तो कन्द-मूल-फल या समुद्री जीवों से पेट भर लिया। सही मायने में धरती बिछौना और आसमान इनका ओढना है। कपडों के नाम पर लाइकूला पाम की छाल की रस्सी बनाकर कमर में लपेट लेते हैं और आगे नारियल का खोल लटकाते हैं। यह पता नहीं चलता कि नारियल का खोल गुप्तांगों को ढकने के लिए लटकाया जाता है या छोटा-मोटा आदिम औजार रखने के लिए। पर्यावरण सम्बंधी चेतना और किसी की क्या होगी, मुझे अचम्भा यह जानकर हुआ कि जो वहाँ बहुतायत में है उसका इस्तेमाल ये लोग करते हैं और जो कम तादाद में है उसका संरक्षण। हरियल (हरा कबूतर) इन आदिवासियों के टापूओं में कम हैं और ये लोग हरे कबूतरों में अपने मृत शिशुओं की आत्माओं का वास मानते हैं। इसी तरह नीले रंग की तारा मछली बहुत खूबसूरत होती है उसे रूपांतरित जलपरी मानकर हाथ भी नहीं लगते। वहाँ परी की एक मशहूर किंवदंती है कि एक परी रोज आकाश से उतरती थी। किसी ने उसके पंख तब छू लिए जब वह सागर में विहार करने उतरी। कहते हैं तभी से परी समुद्र में लीन हो गयी। अन्य वनस्पतियों हो हानि पहुँचाने की तो कोई सोच भी नहीं सकता।
आदिवासियों को लेकर फैली सारी भ्रांतियों को मिटा देने वाला एक उदाहरण और है। वह है रेड इन्डियन आदिवासियों के मुखिया सिएथल का जिसके नाम पर अमरीका का सिएथल शहर है। ब्रिटेन से सजायाफ्ता अंग्रेजों को बतौर सजा अमरीका भेजा गया था तब उन्होंने व उनके वंशजों ने जो जुल्म उन आदिवासियों पर ढाये थे और मजबूरन आदिवासी मुखिया को सन् 1854 में समझौता करना पड़ा था तब आदिवासी और प्रकृति के संबंधों पर सिएथल ने अपने लोगों के बीच एक अत्यंत मार्मिक वक्तव्य दिया था जो विश्व के कुछेक श्रेष्ठ वक्तव्यों में माना गया है। उस आदिवासी मुखिया के विचार पृथ्वी के समस्त आदिवासियों की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने प्रकृति को वास्तविक अर्था में माँ माना है।
सिएथल के मार्मिक वक्तव्य को देने से पूर्व सिएथल के बारे जानकारी देना यहाँ उचित होगा। सिएथल के पुरखे उत्तरी अमेरिका के उस क्षेत्र के मूल आदिवासी थे। उनकी मूल भाषा लषूत-सीड रही। सिएथल का पूरा नाम नोह सिएथल था। इतिहासकार क्लेरेंस बगले ने काफी खोजबीन कर सिएथल के माँ बाप का नाम तलाश। सिएथल के पिता का नाम स्वेब था जो सुक्वेमिस आदिवासी कबीले के थे और उनकी माता का नाम शालिजा था। उनकी माँ का कबीला डूवेमिश था। सिएथल पर कैथोलिक मिशनरीयों का प्रभाव पड़ा और वह बाबटिस्ट बन गया था। इन आदिवासियों का क्षेत्र प्यूजेट साउंड नाम से भी जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र में सबसे पहले बाहरी घुसपैठ सन् 1758 से 1798 की अवधि में हुई। साहसिक यात्री केप्टन जॉर्ज वेनकोवर ने सन् 1792 के मई माह में एक सप्ताह इस क्षेत्र के जूएन्डिफूका भू-भाग में बिताया। इस क्षेत्र के आदिवासियों का मुख्य व्यवसाय भेड़ पालन और उस पर आधारित कम्बल व्यवसाय था। जो यूरोपवासी उनके सम्पर्क में आये उनसे वस्तु विनिमय प्रणाली द्वारा छोटे स्तर पर व्यापार भी किया जाने लगा था।
सिएथल जन्म से ही बुद्धिमान एवं साहसिक व्यक्ति के रूप में उभरा था। इसी वजह से सिएथल अपने माँ-बाप से संबंध रखने वाले कबीलों का मुखिया बन गया था। बाहर से आने वाले यूरोपियों के साथ आदिवासी कबीलों ने उसके नेतृत्व में सफल लडाइयाँ लड़ी। इन लडाइयों के बाद सिएथल उत्तरी अमेरिकी आदिवासी कबीलों का सर्वसम्मति से नायक बन गया था। रेड इन्डियन आदिवासियों का यह सारा क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा की दृष्टि से अति समृद्धि था। बाद में उस क्षेत्र में स्वर्ण खनन का कार्य भी शुरू किया गया। प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता को देखते हुए अमरिकी सरकार व वहाँ के व्यवसायिओं की लगातार घुसपैठ शुरू हो गई। उस क्षेत्र का अमेरिकी गवर्नर इसाक स्टेवेंस (1818-1862) अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्देशाधीन उस क्षेत्र में गया और आदिवासियों पद दबाव डाला। उनकी पुस्तैनी भूमि हड़पने का स्पष्ट इरादा रखते हुए उसने इस षुरूआत को समझौता नाम दिया। उन आदिवासियों पर बाहरी व्यक्ति निश्चित रूप से ताकतवर थे और साधन सम्पन्न व विकसित भी थे। अतः आदिवासी मुखिया सिएथल ने यही उचित समझा कि हिंसक संघर्ष और तज्जन्य दुष्परिणाम को टालने के लिए पुष्तैनी जमीन का कुछ मांगा जाने वाला हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। यह सब उसने अत्यन्त भारी मन से किया था। उसकी मजबूरी यह थी कि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। सन् 1854 में यह तथाकथित संधि की गई। संधि से पूर्व सिएथल ने अपने लोगों के बीच यह वक्तव्य दिया। 7 जून 1866 को सिएथल की मृत्यु हुई। मृत्यु पर्यन्त वह मुखिया के रूप में स्थापित रहे।
उक्त संधि के बाद अमरीकियों ने भी आदिवासी मुखिया को प्रभावशाली व्यक्ति के रूप माना और मुखिया सिएथल के नाम पर उस आबादी क्षेत्र को सिएथल के नाम से जाना जाने लगा और आज भी सिएथल के नाम पर षहर है। इस संधि की प्रक्रिया भी बड़ी पेचीदा रही। अत्यन्त सीमित स्तर पर बोली जाने वाले चिनूक झारगन भाषा के माघ्यम से यह वार्ता हुई। संधि के प्रस्तावों को अमरीका ने मन से नहीं माना और आदिवासी क्षेत्रों में अनैतिक घुसपैठ जारी रखी। इस तरह के अमरीकी बर्ताव से क्षुब्ध होकर सिएथल को बड़ी पीड़ा पहुंची व संधि और उसके प्रावधानों के मुताबिक वांछित संशोधन के अभाव में संधि का विवाद काफी समय तक जारी रहा। सिएथल का वक्तव्य आदिवासी भाषा में था जिसका अंग्रेरजी अनुवाद 29 अक्टूबर 1887 में ‘‘सिएथल संडे स्टार’’ में डॉ0 हेनरी स्मिथ ने पहली बार प्रकाशित किया। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद इतिहास बोध पत्रिका के 35वें अंक में प्रकाशित हुआ। सिएथल के उसी अनुवाद की प्रस्तुति साभार यहाँ की जा रही है।
जिसके कंठ से पृथ्वी के सारे वृक्ष एक साथ कविता पाठ करते थे : मिगुएल
हर्नान्देज़
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मिगुएल हर्नान्देज़ ऐसा कवि नहीं था , जैसा हम अक्सर अपने आसपास के कवियों के
बारे में जानते-सुनते हैं. उसका जीवन और उसकी कवितायेँ , दोनों के भीतर
संवेदना, अनु...
9 वर्ष पहले
3 टिप्पणियां:
aadiwasi bharat ke mool niwasi hen isamen tanil bhi sandeh nahin hen isaki pushti sarvochya nyayalay ke dinak 05/01/2011 ke nirnaya se ho chuki he.profrlmeena,university of delhi,delhi.
सर इस आलेख का अंतिम अंश उपलब्ध नहीं है | आवश्यक सुझाब और मार्गदर्शन दीजिये |
सर, आलेख का अगला हिस्सा उपलब्ध नहीं है | आवश्यक सुझाब और प्रतिउत्तर दीजियेगा |
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