भविष्य के ब्लेक होल में समाता
अतीत का ज्योति-पुंज
क्षत-विक्षत चौतरफा माहोल
आतंकी जिन्न के कैदखाने में विवद्गा
समझ लिए गये उसी के भक्त
ज्ञात आदिमता का सजीव संग्रहालय
बरगद की जड़ों सी स्मृतियां
भविष्य की आद्गांकाओं से घिरे स्वप्न
अजनबी दिनों में बाँझ होती उम्मीदें
जादूई यथार्थ के तहखाने सा जीवन
झिझकता रहा हस्तक्षेप से
तंत्र-नियंताओं का अधिसंखयक
वही आदिजन का भूगोल
समय के पाटे पर निढाल
आसमान के शून्य में डूबी सूखी आँखें
तलाशती अपना कोई प्रतिरूपी नक्षत्र
सिसकता-चीत्कारता रोम-रोम
असहाय सदमे में अधनंगा-भूखा द्गारीर
बेहोद्गा दिमाग में घुस आती है
- अनामन्त्रित पाद्गाविकता
ग्लोबल विकास के पैकेज पर
प्रहार करने का स्वांग करते
प्रकृति-पुत्रों की आवाज निकालते
नेपथ्य में सुरक्षित द्गौतानों का समूह
विकास-घुसपैठ, आदिम चेतना-आतंक
सब गड्डमड्ड करती यात्रा -
बाल्को, हिंडाल्को, नेतरहाट
नंदीग्राम, सिंगरूर, लालगढ
राजधानी एक्सप्रेस से ग्रीन हंट - वाया दंतेवाड़ा
सामने हो लोक-सत्ता का सद्गास्त्र मूर्त्तरूप
या निकलता हो बन्दूक की नली में से
लाल-ध्वज
समर-भूमि के आसमान में
धूल धूसरित होते जन-स्वप्न
हवा के शहतीरों में अटका सर्वहारा
अपना ही मर्सिया पढता नक्सलबाड़ी का संदर्भ-ग्रंथ
मर गया कानू सान्याल अपूरा
चुप रहा वक्त का सिकन्दर
क्या इसलिए कि अव्यक्त रहा
दोनों ही का सच ?
खजूर के सेलों१ की तरह फूटे जो धरती से
उखाड़े गये वो ही छांट-छांट कर
कहाँ जाए आखिर
तिनका-तिनका घोंसला छोड कर भोला पंछी
हर कोई तो नहीं कर सकता
अपनी हर चीज से इस कदर प्यार
अछूते जंगलों के बीच
यहाँ-वहाँ खाली जमीन में उपजती आदिम जिजीविषा
हिंसक जानवरों की पीठ पर सवार नैसर्गिक मूल्य-सूत्र
ऋतुओं की मौलिकताओं के संग पली जिंदगी
आधुनिकता की किताब के भीतर
कई-कई खाली पृष्ठों सा ठहरा हुआ जीवन
भ्रमित लगती है भाषा और लिपि
मौन है भाग्य का देवता
चौतरफा भचीड में असंतुलित होते आदिम संस्कार
दारू के नद्गो में लड खड ाता विवेक
दबोच लिया सस्ते में खूँखार लाल पंजों ने
और दूसरी तरफ पहली बार भयावह दिखते
- 'ग्रेहाउण्ड', 'स्कॉर्पियन,' 'कोबरा'२
१. अंकुर। २. बिल-कुत्ते, बिच्छू व नाग। ऐसे जंगली जन्तु आदिवासियों के लिए पराये नहीं थे। जब से नक्सलियों से निबटने के लिए सद्गास्त्र बलों के ऐसे नाम रखे जाते गये, आदिवासी भी इनसे बिदकने लगे।
वीरान घोटुल,३ उजड़े हाट, उमंगहीन पर्व
थके मांदल और सिसकती बांसुरी को थामे
पथरायी आँखों के सहारे
अपने हरे-भरे आंगन में जीवन-अवलम्ब ढूँढता कोई
कैसे बचे वैद्गिवक वात्याचक्र से
दिक्कू४ और देसी दलालों के षड़यंत्र से ?
अपने बलबूते लड ते रहे
आकाश-गंगाओं सी लम्बी लड़ाई
जानकर अंततः सब कुछ अर्थहीन
सीख लिया जीना कानन-खोखरों में
जानते हैं अब भी लड ना
मगर नहीं जानते लडे़ं किस से
ये तो बांसुरी ही बजाते रहे जंगल में
मानकर कि 'हमारा ही है जंगल'
लड़ कौन रहे हैं इनके पक्ष की लडाई
- इधर भी, उधर भी
आधुनिक नहीं, रफ्तार आदिम ही सही
क्या नहीं रह सकते इनके बाँटे
थिरकते पाँवों वाले दिन
और चांद-तारों भरी रातें
घुसपैठिये जबड़ों में इनकी आवाज
खुदमुखत्यारों की मुट्ठी में इनकी धरती
पूँजी के प्रेत की आंतों में
चुपचाप पिघलते घने जंगल
खनिज सम्पदा
वन्य जीव
और इनके सपने
क्यों पोता जा रहा
इनके भाग्य पर गाढा तारकोल
कौन समझाये व्यवस्था के घुड सवारों को
कि नहीं होता कभी प्रकृति-पुत्र
-किसी धरा-समाज का बैरी ?
पैदा नहीं हुआ था जब आर्केस्ट्रा
किसी सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान व तकनीकी वगैरा का
वे बड़े हो चुके थे निकल कर धरती की कोख से
३. आदिवासी युवक-युवतियों का सामूहिक सह-आवास स्थल। ४. बाहरी शोषक।
दावा इतना ही रहता आया कि माँ है वह उनकी
बड़ी कितनी भी हो जाये
बिछुड कैसे सकती है संतान अपनी माँ से
दूर-दूर तक पसरा
विकल्पहीनता का रेगिस्तान
मृगमरीचिकाओं में क्रीड़ारत स्वयं-भू नायक
समय की धारा के विपरीत सिद्धान्तों की जिद्दी नाव
विकास के स्वप्नलोकी महल की नींव में कराहती
- निस्सहाय आदिमता
(याद रखा जाये -
हरी टहनी के कटजाने पर रोती है पेड की आँखें
धरती की आत्मा तक पहुँचते हैं ढलकते आँसू
काँपता है जैसे आसमान किसी तारे के टूट जाने पर
लामबन्द होती है पूरी कायनात
- यहाँ से वहाँ तक)
३१, शिव शक्ति नगर,
किंग्स रोड , अजमेर हाई-वे,
जयपुर - ३०२०१९
मोबाईल नं. 919414124101
जिसके कंठ से पृथ्वी के सारे वृक्ष एक साथ कविता पाठ करते थे : मिगुएल
हर्नान्देज़
-
मिगुएल हर्नान्देज़ ऐसा कवि नहीं था , जैसा हम अक्सर अपने आसपास के कवियों के
बारे में जानते-सुनते हैं. उसका जीवन और उसकी कवितायेँ , दोनों के भीतर
संवेदना, अनु...
9 वर्ष पहले
3 टिप्पणियां:
nice
Dhanyawad SARA SUCH team ke liye.
सुंदर कविताएं हैं...
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