सोमवार, 31 अगस्त 2009

यात्रा वृतान्त-पल्चित्रिया के बहाने आदिवासी बलिदान तक:

सड़क मार्ग द्वारा दिनांक 10 जुलाई 2006 को मैं जयपुर से चलकर शाम उदयपुर पहुँचा। दरअसल, राजस्थान के बाँसवाड़ा जिला के मानगढ़ पर्वत पर सन् 1913 में हुए महान् आदिवासी बलिदान-स्थल एवं इर्द-गिर्द के अंचल की यात्रा के दौरान मुझे जानकारी मिली थी कि उदयपुर सीमावर्Ÿाी गुजरात में अवस्थित पालचिŸारिया गाँव में भी मानगढ़ की ही तरह अंग्रेेजी व रियासती फौजों से लड़ते हुए काफी संख्या में आदिवासी शहीद हुए थे। मानगढ़ की यात्रा अगस्त सन् 2001 में की थी। गत पाँच वर्षो से यह प्रबल इच्छा थी कि मैं आदिवासियों के उस बलिदान स्थल की यात्रा करूँ, लोगों से मिलूँ और जो कुछ भी प्रामाणिक व आधिकारिक तथ्य सामने आये, उन्हंे इकट्ठा करूँ। राजकीय सेवा और घर-परिवार की व्यस्तताओं के चलते यात्रारम्भ का संयोग इस तरह अब जाकर बना। सावन के इन दिनों के जैसे पंख लगे हुए थे और मानसून के बादलों के पाँवों में मेंहदी। इस बार भी राजस्थान में यत्र-तत्र हल्की फुहारें पड़ी। मानसून की व्यापक वर्षा का अभी भी इन्तजार ही था। यूँ मुम्बई मे दो बार भीषण बारिष ने जन-जीवन अस्त-व्यस्त किया मगर वहीं से मानसून का वह जोर दोनों ही बार न जाने कहाँ गायब हो गया। उदयपुर की शाम मेरे एक मित्र डी.एस. पालीवाल के साथ गुजरी। हम दोनों ने आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर खूब चर्चा की। डी.एस. काफी अर्से से आदिवासियों में जागृति के लिए प्रतिबद्ध होकर उदयपुर अंचल में कार्य कर रहे हैं। डी.एस से मेरी पहली मुलाकात करीब साढ़े चार साल पहले जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में हुई थी। तब मैंने महसूस किया कि वैचारिक धरातल पर हम दोनों काफी निकट हैं। करीब छः माह बाद उनसे जयपुर में ही दूसरी भेंट हुई तब वे जापान की फुकुई यूनिवर्सिटी में भूगोल के सहायक प्रोफेसर सुकिहारा तोषीहीरो के साथ मिले थे। तोषीहीरो पष्चिमी राजस्थान के भेड़ पालकों पर शोध के सिलसिले में भारत आये थे। इस सन्दर्भ में उनकी प्रमुख रूचि भेड़ पालकों के यायावरी जीवन और दूरदराज के इलाकों में भेड़ों के विचरण तथा इस दरम्यान आने वाली कठिनाईयों मे थी। इस का एक पहलू सरकारी दृष्टिकोण व नीति तथा स्थानीय लोगों द्वारा बाहरी भेड़ों के आवागमन का विरोध भी था। तोशीहीरो और डी.एस. के साथ भेड़ों पर हुई चर्चा के दौरान मैंने भी अपनी ननिहाल के गाँव का अस्सी बरस पुराना एक वाकिया बताया था, जिसे तोशीहीरो ने ध्यानपूर्वक सुना और उसे नोट भी किया। किस्सा कुछ इस तरह था कि मारवाड़ के रेबारी भेड़ों का रेवड़ लेकर उस गाँव से गुजर रहे थे। भेड़ों द्वारा घास एवं कुछ हद तक फसलों को नुकसान पहुँचा दिया। इस पर ग्रामीणों एवं भेड़ पालकों के बीच जमकर लाठियां चली। दोनों ओर से करीब आधा दर्जन आदमी मारे गये और इससे कई गुना घायल हुए। अकाल के दिनों में तो भेड़पालक मध्यप्रदेश के मालवा अंचल और उधर ,उत्तरप्रदेश में गंगा के मैदानों तक चले जाते हैं। पराई भौम में इन भेड़पालकों को कैसे-कैसे खतरे झेलने पड़ते हैं, उक्त घटना का महत्वपूर्ण पक्ष यह था, जिसे तोशीहीरो ने अपने अध्ययन में समाविष्ट करने के लिए आत्मसात् किया। आदिवासियों के परिप्रेक्ष्य में अगर भेड़पालक रेबारियों के जीवन-दर्शन पर तनिक सोचा जाय तो निष्कर्ष निकलेगा कि भेड़पालक अपनी भेड़ों के भरण-पोषण के लिए अपनी जन्म-भूमि से सैंकड़ो- सैंकड़ों कोस दूर जाकर जान जोखिम में डालने का खतरा मोल लेते है और इधर, आदिवासी अपनी भौम को छोड़कर मरे-मारे कहीं भी न जायंे। ये लोग अपने जल-जंगल-जमीन के लिए किसी भी तरह का खतरा उठाने को तैयार रहते हैं। जल और जमीन तो जंगल का ही हिस्सा है इसलिए महत्वपूर्ण तो जंगल ही है और आदिवासी जंगल के एकमात्र हकदार। देर रात तक उदयपुर के सर्किट हाउस में मेरी और डी. एस. की चर्चा का केन्द्रीय विषय ब्रिटिश कालीन आदिवासी संघर्ष रहा। सौ ना-नुकर के बावजूद मैंने आखिर डी. एस. को पालचित्तरिया साथ चलने के लिए राजी कर लिया। अगले दिन सुबह सात बजे के आसपास हम दोनों कार द्वारा उदयपुर से रवाना हो गये। साथ में था, कार टैक्सी चालक ड्राइवर राजू, जो उदयपुर से आगे आदिवासी बेल्ट में पहली बार निकला था। उदयपुर से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर हमारी कार तेजी से दौड़ रही थी। यह सारा पहाड़ी क्षेत्र है लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग होने की वजह से सड़क काफी हद तक सीधी व सपाट थी। कहीं-कहीं घुमाव भी थे तो वहाँ दुर्घटना से बचने के लिए चेतावनी-पट्ट रोपे हुए थे। इस यात्रा-मार्ग के दोनो तरफ दूर-दूर छोटी-छोटी पहाड़ियां थी। अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़ इस अंचल में नहीं थे। रास्ते में आये आबादी क्षेत्रों में गेैर आदिवासी जनसंख्या प्रमुख रूप से थी। आदिवासी-जन की बसावट पहाड़ी ढलानों पर एकल झोंपड़ियों के रूप में दिखाई दी। करीब घण्टा भर में हम खेरवाड़ा कस्बे में पहुँच गये। खेरवाड़ा वह जगह है, जहाँ सन् 1841 में अँग्रेजों ने फौजी छावनी स्थापित की थी। उन दिनों विशेष रूप से सन् 1820 और 1830 के दशकों में हुए आदिवासी विद्रोहों की पृष्ठभूमि में विद्रोहों की सम्भावनाओं को देखते हुए वागड़ और मेवाड़ अंचल में ंजगह-जगह इस तरह की फौजी छावनियां स्थापित की गई थी और उनमें आदिवासी युवकों को भर्ती किया जाकर आदिवासी विद्रोहों को दबाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। अँग्रेजों और रियासती गठजोड़ी सŸाा की यह वह रणनीति थी, जिसके तहत भाई को भाई के विरूद्ध लड़ाकर उस कौम की ताकत को कमजोर किया जा सके और शोषणकारी सŸाा की यथास्थिति को बरकरार रखा जा सके। ऊबड़-खाबड़ पठारी क्षेत्र में बनी हुई मेवाड़ भील कोर के मुख्यालय परिसर में हमने प्रवेश किया। यहाँ के कमाण्डेंट भंवरसिंह को हमने उदयपुर से पूर्व में फोन पर हमारे कार्यक्रम की सूचना दे दी थी और बीच में यात्रा के दौरान मोबाइल फोन से हम सम्पर्क में थे। कमाण्डेंट भंवरसिंह अपने कार्यालय में हमारा इन्तजार कर रहे थे। इस अंचल में गत 1 जुलाई को अच्छी बरसात हो गई थी और तीन चार दिन से रूक-रूक कर सावनी फुहारें भी पड़ी थी। आज भी सुबह हल्की फुहारें पड़ी, जिससे जमीन गीली हो गई। चारों ओर परिसर में हरी घास और जंगली पौधे उगे हुए थे। शीशम, नीम, जामून, बरगद, इमली, महुआ, आम के दरख्त अपनी सघनता की छवि बिखेरते यहाँ-वहाँ खड़े थे। बिना वक्त गँवाये, ‘चाय-पानी की बाद में देखेंगे’, कहकर हमने छावनी परिसर का राउण्ड लिया। कमाण्डेंट भंवरसिंह व उनके सहयोगी डी.वाई.एस.पी. प्यारेलाल ने हमें कोर की विभिन्न शाखाओं के भवनों को दूर से दिखाया। हम इन भवनों को बड़े गौर से देख रहे थे। सभी भवन ब्रिटिश कालीन निर्माण-शैली से बने हुए थे और अधिकांश छावनी-स्थापना काल के थे। बाद में अर्थात् उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो भी विस्तार हुआ, वह भी शिल्प के उसी तारतम्य में था। पत्थर की पक्की दीवारें , उन पर लकड़ी का जाल और जाल पर कोल्हू की छत। सभी भवनों की छतें तीखे ढलान वाली। आवासीय भवनों के आगे जो बरामदे, या पोर्च थे, उनके खम्भे भी सागोन की लकड़ी के थे। ऐसे ही भवनों के लिए ब्रिटिश काल में यहाँ के जंगलों को काट कर भारी मात्रा में लकड़ी यहाँ इस्तेमाल की गई थी और उस लकड़ी का निर्यात भी इंग्लैण्ड व अन्य देशों में किया गया था। मेवाड़ भील कोर के म्यूजियम में सन् 1892 का बांगड़, भौमट व मेवाड़ क्षेत्र का एक बड़ा मानचित्र दीवार पर टंगा हुआ था। यद्यपि गाँवों के अक्षर बारीक थे लेकिन सम्पूर्ण क्षेत्र की प्राकृतिक, भौगोलिक व राजनैतिक जानकारी उपलब्ध थी। गुजरात की तत्कालीन विजयनगर रियासत दर्शायी हुई थी, जो उदयपुर राज्य का सीमावर्ती क्षेत्र था, मगर पालचित्तरिया कहीं नजर नहीं आ रहा था। बालेटा और कोडियावाड़ा के नाम लिखे हुये थे। कोर के एक हवलदार बंशीलाल ने हमे बताया कि ‘पालचित्तरिया कोडियावाड़ा के निकट है। छोटा गाँव होने की वजह से शायद इस नक्शे में उसका नाम अंकित नहीं हुआ होगा।’ इस म्यूजियम में कोर द्वारा विगत अर्से में जीती हुई विभिन्न खेल-कूद प्रतियोगिताओं की ट्राॅफी रखी हुई थी। पुराने जमाने में पहनी जाने वाली वर्दी के नमूने लटकाये हुये थे। अब तक के बैज एवं मैडलों के नमूने भी सजा-सँवार कर रखे हुए थे। मेवाड़ भील कोर का कलर प्रमुखता से प्रदर्शित किया हुआ था। ब्रिटिश काल में संधारित की जाने वाली ‘परमानेंट आर्डर बुक’ यहाँ उपलब्ध थी। हमने उसे बहुत ध्यान से देखा। सन् 1891 से 1938 तक की कुछ एण्ट्रीज इसमें लिखी हुई थी। लैटिन लिपि में अंगे्रजी भाषा की सुन्दर हस्त-लिखावट, लेकिन पालचित्तरिया के बारे में कोई जिक्र यहाँ नहीं मिला। मैं यह जानता था कि उस घटना में जो आदिवासी हताहत हुए , उनका तो जिक्र नहीं होगा चूँकि घटना के तथ्यों को दबाया गया था लेकिन फौज की तादाद और हथियार-गोला-बारूद की रवानगी और आमद का जिक्र जरूर मिलना चाहिए और अगर यह मिल जाता है तो यह पता लगाना संभव होगा कि कितना असलाह काम में लिया गया। प्रयुक्त गोला-बारूद से हताहतों की संख्या का अनुमान संभव है पर ऐसा कुछ नहीं मिला। डी.वाई.एस.पी. प्यारेलाल ने बताया कि ‘साहब, परमानेंट आॅडर बुक में तो विशेष आदेशों का विवरण होता था , जैसे वर्तमान में डिस्ट्रिक्ट आॅडर बुक डी.ओ.बी. में अंकित किया जाता है ; यथा नियुक्ति, स्थानान्तरण-पदस्थापन, प्रशंसा-पत्र, सजा, निलम्बन, सेवा-च्युति, सेवानिवृति आदि। फोर्स की रवानगी वगैरह तो रूटीन का काम है, जो रोजनामचा आम में अंकित किया जाता होगा।’ ‘‘प्यारेलालजी, आर यू श्योर कि ब्रिटिश काल में रोजनामचा आम संधारित किया जाता था ?’’ ‘‘ऐसा कोई रिकार्ड तो यहां नहीं मिला लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था जरूर रही होगी’’ -प्यारेलालजी ने अत्यंत विश्वास के साथ मेरे सवाल का जवाब दिया, जिसको कमाण्डेंट भंवरंिसंह ने भी यह कहकर समर्थन किया कि- ‘‘सर, जैसे वर्तमान में हमारे यहाँ संधारित किया जाने वाला रोजनामचा-आम स्थायी रिकार्ड नहीं माना जाता और उसे तीन साल बाद नष्ट कर दिया जाता है, वैसे ही पहले भी ऐसी ही व्यवस्था रही होगी अन्यथा छावनी की इतनी लम्बी चैड़ी फौज की दैनिक गतिविधियों का लेखाजोखा कैसे संभव हो पाता होगा।’’ इन दोनों की बात से मैंने भी सहमति जताई चूँकि अंग्रेज प्रशासनिक दृष्टि से अत्यन्त कुशल और नपे-तुले थे इसलिए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था जरूर रही होगी। इस दौरान मेरे मित्र डी. एस. मूक दर्शक व श्रोता से बने रहे। इसकी वजह थी कि पुलिस अधिकारी के रूप में फौज या पुलिस की दैनिक गतिविधियों से हम तीनों जितना वाकिफ हो सकते थे, उतने डी.एस. नहीं हो सकते थे। कोर के वर्तमान आधिकारियों को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि एम.बी.सी. का इस विषयक कोई दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली या राजस्थान अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित है या नहीं। मेवाड़ भील कोर परिसर में अधिक वक्त जाया न करते हुए हम वहाँ से आगे के लिए रवाना हो गये। चलते-चलते कमांडेन्ट भँवरसिंह को इतना अवष्य कहा कि ‘‘ वापसी में इधर से ही निकलना होगा और कोई मार्ग तो है नहीं। इसलिए आप और खंगालना। यदि कोई दस्तावेज पालचिŸारिया सम्बन्धी मिल जाये तो कृपया जिरोक्स करा कर रखना। वह मेेरे लिए मूल्यवान होगा।’’ खेरवाड़ा से चले तो आगे रास्ते में एक गाँव आया-सुन्दरा। साथी डी.एस. ने बताया कि - ‘‘मीणा जी, यहाँ हम थोड़ा रूकें। मैं पहले एक बार यहाँ एक आदमी से मिला हूँ। देखता हूँ , वह है या नहीं।’’ ‘‘क्या उसे पालचिŸारिया के बारें में कोई जानकारी है ? ’’मैंने तुरंत उत्सुकता जाहिर की। ‘‘हाँ, मैं अभी देखकर आता हूँ।’’ डी.एस.पालीवाल कार के रूकते ही नीचे उतरे और बाईं तरफ बने एक पक्के घर की ओर चल दिये। मैं भी उनके पीछे था। घूप में काफी तेजी आ गई थी। दूर आसमान में कहीं-कहीं मानसूनी बादल थे मगर घटानुमा नहीं थे। हवा में नमी थी मगर फिलहाल बारिष की संभावना नजर नहीं आ रही थी। सुन्दरा गाँव का आसमान साफ था। ड्राइवर राजू ने हमारे उतरने के साथ ही कार नीम के वृक्ष की छाँह में खड़ी कर दी। ‘‘प्रधान जी कहाँ हैं ?’’-डी.एस. ने एक लड़के से पूछा। ‘‘अभी तो यहीं थे , शायद घर में हो।’’ ‘‘बेटा, जा के बुला के लाना। कहना, उदयपुर से कोई जानकार आये हैं ’’- डी.एस. ने बागड़ी बोली में उस लड़के से कहा। चेहरे पर अपनत्व का सा भाव लिए वह युवक पक्के मकान में घुसा और थोड़ी देर में पेंट-षर्ट पहने सांवले रंग के एक अधेड़ व्यक्ति के साथ बाहर निकला। ‘‘अरे नवीन भाई, आप मिल गये अच्छा हुआ। मुझे पहचाना ? ’’-उस व्यक्ति ने कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । ‘‘मैं डी.एस. पालीवाल। उदयपुर से आया हँू। दो साल पहले आपके गाँव यहाँ आया था। तब आप प्रधान थे। आदिवासियों के अधिकारों के बारे में हमने यहां एक मीटिंग ली थी। तभी आपसे मैं मिला था। ’’ ‘‘हाँ, हाँ, पहचान गया। कैसे हो आप। अरे पालीवाल जी, अब पहचान गया। वो खेरवाड़ा की टीचर........... ,क्या नाम था उसका ? हाँ ,शारदा डामोर। वो हमारी रिष्तेदार है। वह भी साथ आयी थी ना ? ’’ ‘‘अच्छा सुनों , हम जल्दी में हैं। यह मेरे मित्र है, हरिराम जी। वैसे पुलिस में एस.पी. है लेकिन आदिवासियों पर खूब काम कर रहे हैं। हम पालचिŸारिया जा रहे हैं। आप हमारे साथ चलोगे ना’’ -इस दरम्यान मैंने हाथ जोड़ कर नवीन भाई को जोहार कहते हुए अभिवादन किया, जिसका उन्होंने हाथ मिलाकर जवाब दिया। लेकिन पालचिŸारिया का नाम सुन कर उनके चेहरे पर लज्जा के भाव उभर आये और जैसे ही डी. एस. ने उन्हें पालचिŸारिया चलने का आग्रह किया, उस क्षण तो वे एकदम झिझके। उनकी असहजता स्पष्ट दिख रही थी। नवीन भाई हमें मकान के बाहरी कमरे में ले गये, जहाँ एक महिला एवं दो व्यक्ति बैंठे बातें कर रहे थे। वह कमरा दफ्तरनुमा लग रहा था -एक टेबल, एक मुख्य कुर्सी और टेबल के दूसरी तरफ चार-पाँच साधारण कुर्सियां रखी हुई थी। ‘ये देखो उदयपुर से पालीवाल जी आये है और साथ में मीणा जी हैं। ये एस.पी. हैं,’’-नवीन भाई ने उस महिला से कहा और हमंे बताया कि ‘‘यह मेरी पत्नी इन्दिरा है। इस गाँव की सरपँच है। मैं तो अब पंचायत समिति का सदस्य हूँ। प्रधानी इस बार नहीं मिली।’’ परस्पर अभिवादन के पश्चात् नवीन भाई की धर्मपत्नी ने वहाँ मौजूद एक व्यक्ति को इषारा किया। वह थोड़ी देर में कोल्ड ड्रिंक की चार-पाँच बोतलें ले आया। बोतलों के ढ़क्कन खुलवाकर लाया था। ‘‘भई , मैं तो ठण्डा पीता नहीं। मेरा गला खराब हो जाता है। ’’-पेय पदार्थ मेरे सामने रखा जाये या मुझे सौंपा जाय, इससे पूर्व ही मैंने अपना मन्तव्य प्रकट कर दिया। ‘‘तो फिर आपके लिए चाय मंगवाई जाय ’’ -नवीन भाई ने आग्रह किया जिसे मैंने यह कहकर टाल दिया कि मैं चाय सिर्फ एक बार पीता हूँ , सुबह-सुबह। आप कुछ भी मत मंगाइये।’’ ‘‘तो आप चलेंगे ना हमारे साथ ’’ -डी.एस. ने नवीन भाई से फिर पूछा। ‘‘इन्दिरा! देखो ये मुझे पालचिŸारिया ले जाना चाहते हैं।’’ इन्दिरा कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती, इससे पूर्व नवीन भाई ने डी.एस. की ओर देखकर कहा कि -‘‘आप तो सारा किस्सा जानते हो। मेरा वहाँ जाना कतई ठीक नहीं। हाँ, वहाँ मेरे कुटुम्बी चाचा हैं। उनका नाम कावा जी है। वे वहाँ के सरपंच हैं । आपको सारी बातें वे बता देंगे।’’ ‘‘ हाँ, मै समझ गया ’’ -डी.एस. ने सहज भाव से नवीन भाई की बात को मानते हुए सहमति जतायी। मैं इस रहस्य को नहीं समझ पा रहा था। ‘‘तो फिर ऐसा करो नवीन भाई कि हमें हूरजी की कब्र दिखा दो’’ -डी.एस. ने प्रस्ताव रखा। इन्दिरा से विदा लेकर हम वहाँ से चल दिये। नवीन भाई मोटर साइकिल पर सवार होकर हमारे आगे आगे चले। करीब आधा कि.मी. दूर सड़क के किनारे वे रूके। हमने भी गाड़ी रोकी। पैदल-पैदल सड़क के दाहिनी और एक टेकरी पर नवीन भाई हमें ले गये। वहाँ छः फुट बाई छः फुट के आकार और करीब दो फुट ऊँचा एक चबूतरा था। चबूतरे के मध्य में सीमेंट से पावों का जोड़ा बना हुआ था। ‘‘क्या यहीं हूर जी की कब्र है ? ’’ ‘‘हाँ, यहीं उन्हें दफनाया गया था। ’’ -नवीन भाई ने डी.एस की जिज्ञासा शांत की। हमने चारों ओर से कब्र पर बने उस चबूतरे को गौर से देखा। हम तलाष रहे थे, क्या कहीं उस चबूतरें पर कुछ लिखा है या नहीं। हमें ऐसा कुछ नहीं मिला। नवीन भाई भी हमारी ही तरह चबूतरे को इस दृष्टि से देख रहे थे, जैसे उन्होंने इस कोण से कब्र के चबूतरे को पहली बार देखा हो। नवीन भाई से विदा लेकर हम सुन्दरा गाँव से आगे चल पड़े। क्रमशः शेष अगले पोस्ट पर.....

2 टिप्‍पणियां:

chandrapal ने कहा…

आदिवासियों को हमारा समाज और साहित्य आज भी उतनी गम्भीरता से नहीं ले रहा है. आज भी उनके नाम पर साहित्य, राजनीति और समाज में रोटिया सेकि जा रही है. आपने अपना लेखन और जीवन उनके लिये समर्पित किया है. और अब ये ब्लोग भी. आपको ढेरों बधाई. अरावली में आपके लेख पढ़ता रहा हूं. इन दिनों हमनें एक समाज, साहित्य और समसामयिक विषयों पर एक हिन्दी पोर्टल( www.aakhar.org) शुरु किया है. आपको मेल कर रहा हूं. देखें और अपना सहयोग दें. चन्द्रपाल, मुम्बई.
chandrapal@aakhar.org
http://aakhar.org

abhishek ने कहा…

मीणा साहब, आपकी पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा। सादर।