गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नव वर्ष पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं

क्या जंगलों को आदिवासी उजाड़ते हैं ?

             पिछले दिनों अपने अध्ययन कक्ष की आलमारियों में रखे पुराने दस्तावेज खंगाल रहा था, तभी अखबारों के कुछ पुराने अंकों पर नज़र पड़ी। तारीख 7 दिसम्बर 2004 की ‘‘राजस्थान पत्रिका’’ में भरत झुन्झनवाला का सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘‘आदिवासियों का जंगल प्रेम एक भ्रम’’ षीर्षक से छपा लेख पढकर दुःखद आश्‍चर्य हुआ। उन्होंने लिखा आदिवासी जंगलों को उजाड़ते रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया केन्द्र सरकार की इस प्रस्तावित योजना पर थी कि जंगलों को सुरक्षित रखना है तो आदिवासियों का सहयोग लिया जाय।
             आदिवासियों की परम्परा में जंगलों को उजाड़ना नहीं, बल्कि उनकी हिफाजत करना रहा है। हरे वृक्षों को काटना पाप माना जाता रहा है। औषध वनस्पतियों के पौधों को समूल उखाड़ना प्रकृति की सत्ता के विरूद्ध अपराध माना गया है। अत्यावष्यक होने पर कोई हरी टहनी काटनी पडे़ तो उससे पहले वृक्ष से क्षमा याचना करने की प्रथा आदिवासियों में रही है। इमारती लकड़ी के नाम पर पत्तों और सूखी लकड़ियों का ही इस्तेमाल किया जाता है।
            जंगलों को कौन उजाड़ता रहा है, इस सवाल का जवाब तलाषने के लिए इतिहास में जाना चाहिए। सबसे पहले कृषि योग्य भूमि तैयार करने के लिए आर्यो ने जंगलों को जलाना आरम्भ किया। इस कार्य को बाकायदा ‘यज्ञ’ का नाम दिया गया। खाण्डव वन-दहन इसका एक उदाहरण है। उस घटना का तीखा विरोध नाग जनजाति ने अपने मुखिया वासुकी के नेतृत्व में किया था। जंगलों के पक्ष में वह पहला आदिवासी प्रतिरोध था जो युद्ध तक पहुँचा और अनेक आदिवासी शहीद हुए। हालांकि उस जमाने में कृषि योग्य भूमि की आवश्‍यकता थी।
इस उदाहरण के बाद हम सीधे अंग्रेरज - काल में आते हैं, जहाँ से बाहरी व्यक्तियों अर्थात गैर आदिवासियों की घुसपैठ जंगलों में जबरदस्त तरीकों से शुरू हुई। वनोपज का अधिकाधिक दोहन, ठेकेदारों के मार्फत इमारत व फर्नीचर आदि के काम में आने वाली लकड़ी की बडे़ पैमाने पर कटाई और आदिवासियों पर अनेक प्रकार की पाबन्दियों का दौर यहीं से आरम्भ होता है। जंगलों में इस तरह की घुसपैठ का विरोध और किसी ने नहीं, प्रत्युत आदिवासी समूहों ने किया था। सन् 1770-71 के पलामू विद्रोह से इस विरोध की शुरूआत होती है जो सन् 1932-47(नागा रानी गाईदिल्ल्यू का नेतृत्व) तक निरन्तर जारी रहा। देष के विभिन्न आदिवासी अंचलों में यह विरोध अभी भी जारी हैं।
              आदिवासियों को जीने के लिए बहुत ही सीमित साधन चाहिए। यह उनकी जीवन-संस्कृति की आदिम सोच रही है जिसमें अब तक बदलाव नहीं आया है। घास-फूस की झोंपड़ी, यहाँ-वहाँ कुछ खाली पड़ी जमीन में अत्यन्त कम मात्रा में खेती-बाड़ी और सहज उपलब्ध वनोपज को निकटवर्ती हाट-बाजार में बेच कर दैनिक उपयोग की कुछ आवश्‍यक वस्तुओं की खरीद से आगे उनकी मानसिकता नहीं बढी है। अगर ऐसा न होता तो आदिवासी आज भी फटे-हाल न रहकर जंगलों को नष्ट करने वाले ठेकेदारों की तरह साधन सम्पन्न होते।
            जब हम जंगलों को बचाने की बात करते हैं तो निश्‍ि‍चत रूप से वन्य-जीवों के संरक्षण के मुद्दे को भी शामिल करते हैं। आदिम अवस्था से जंगली जीवों के साथ आदिवासियों के आत्मीय और सह अस्तित्व के सम्बंध रहे हैं। ये तीतर-बटेर-खरगोश के छुटमुट शिकार की बातें छोड़ो। हाथी-शेर-चीतों-भालू जैसे वन्य जीवों का शिकार कर उनकी खाल व अन्य हिस्सों को बेचकर धनाढ्य होने वाले या शोकिया और तथाकथित बहादुरी दिखाने के लिए पर्सनल म्यूजियमों में वन्य जीवों के मुखोटों को टांगने वाले आदिवासी न होकर और ही लोग रहे हैं।
             मैं यहाँ दुनिया के उन दो आदिवासी समूहों का जिक्र करना चाहूंगा जो अभी ठेठ आदिम अवस्था में जीवन जी रहे हैं। ये हैं अण्डमान के ‘जारवा’ और ‘सेंटेनली’ आदिवासी। सन् 1999 के जनवरी माह में मैं वहाँ गया था और उन पर संक्षिप्त अध्ययन किया गया था। मैं यह जानकर दंग रह गया कि ये आदिवासी अभी भी घरों में रहना नहीं सीखे हैं और छोटे-छोटे समूहों में वन्य जीवों की तरह की अपने टापुओं में यहाँ से वहाँ विचरते रहते हैं। आग को जानते हैं, लेकिन जो कुछ खाते हैं उसे कच्चा ही खाते हैं। सम्पत्ति की अवधारणा अभी विकसित नहीं हुई है। जब भूख लगी तो कन्द-मूल-फल या समुद्री जीवों से पेट भर लिया। सही मायने में धरती बिछौना और आसमान इनका ओढना है। कपडों के नाम पर लाइकूला पाम की छाल की रस्सी बनाकर कमर में लपेट लेते हैं और आगे नारियल का खोल लटकाते हैं। यह पता नहीं चलता कि नारियल का खोल गुप्तांगों को ढकने के लिए लटकाया जाता है या छोटा-मोटा आदिम औजार रखने के लिए। पर्यावरण सम्बंधी चेतना और किसी की क्या होगी, मुझे अचम्भा यह जानकर हुआ कि जो वहाँ बहुतायत में है उसका इस्तेमाल ये लोग करते हैं और जो कम तादाद में है उसका संरक्षण। हरियल (हरा कबूतर) इन आदिवासियों के टापूओं में कम हैं और ये लोग हरे कबूतरों में अपने मृत शिशुओं की आत्माओं का वास मानते हैं। इसी तरह नीले रंग की तारा मछली बहुत खूबसूरत होती है उसे रूपांतरित जलपरी मानकर हाथ भी नहीं लगते। वहाँ परी की एक मशहूर किंवदंती है कि एक परी रोज आकाश से उतरती थी। किसी ने उसके पंख तब छू लिए जब वह सागर में विहार करने उतरी। कहते हैं तभी से परी समुद्र में लीन हो गयी। अन्य वनस्पतियों हो हानि पहुँचाने की तो कोई सोच भी नहीं सकता।
                आदिवासियों को लेकर फैली सारी भ्रांतियों को मिटा देने वाला एक उदाहरण और है। वह है रेड इन्डियन आदिवासियों के मुखिया सिएथल का जिसके नाम पर अमरीका का सिएथल शहर है। ब्रिटेन से सजायाफ्ता अंग्रेजों को बतौर सजा अमरीका भेजा गया था तब उन्होंने व उनके वंशजों ने जो जुल्म उन आदिवासियों पर ढाये थे और मजबूरन आदिवासी मुखिया को सन् 1854 में समझौता करना पड़ा था तब आदिवासी और प्रकृति के संबंधों पर सिएथल ने अपने लोगों के बीच एक अत्यंत मार्मिक वक्तव्य दिया था जो विश्‍व के कुछेक श्रेष्ठ वक्तव्यों में माना गया है। उस आदिवासी मुखिया के विचार पृथ्वी के समस्त आदिवासियों की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने प्रकृति को वास्तविक अर्था में माँ माना है।
             सिएथल के मार्मिक वक्तव्य को देने से पूर्व सिएथल के बारे जानकारी देना यहाँ उचित होगा। सिएथल के पुरखे उत्तरी अमेरिका के उस क्षेत्र के मूल आदिवासी थे। उनकी मूल भाषा लषूत-सीड रही। सिएथल का पूरा नाम नोह सिएथल था। इतिहासकार क्लेरेंस बगले ने काफी खोजबीन कर सिएथल के माँ बाप का नाम तलाश। सिएथल के पिता का नाम स्वेब था जो सुक्वेमिस आदिवासी कबीले के थे और उनकी माता का नाम शालिजा था। उनकी माँ का कबीला डूवेमिश था। सिएथल पर कैथोलिक मिशनरीयों का प्रभाव पड़ा और वह बाबटिस्ट बन गया था। इन आदिवासियों का क्षेत्र प्यूजेट साउंड नाम से भी जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र में सबसे पहले बाहरी घुसपैठ सन् 1758 से 1798 की अवधि में हुई। साहसिक यात्री केप्टन जॉर्ज वेनकोवर ने सन् 1792 के मई माह में एक सप्ताह इस क्षेत्र के जूएन्डिफूका भू-भाग में बिताया। इस क्षेत्र के आदिवासियों का मुख्य व्यवसाय भेड़ पालन और उस पर आधारित कम्बल व्यवसाय था। जो यूरोपवासी उनके सम्पर्क में आये उनसे वस्तु विनिमय प्रणाली द्वारा छोटे स्तर पर व्यापार भी किया जाने लगा था।

               सिएथल जन्म से ही बुद्धिमान एवं साहसिक व्यक्ति के रूप में उभरा था। इसी वजह से सिएथल अपने माँ-बाप से संबंध रखने वाले कबीलों का मुखिया बन गया था। बाहर से आने वाले यूरोपियों के साथ आदिवासी कबीलों ने उसके नेतृत्व में सफल लडाइयाँ लड़ी। इन लडाइयों के बाद सिएथल उत्तरी अमेरिकी आदिवासी कबीलों का सर्वसम्मति से नायक बन गया था। रेड इन्डियन आदिवासियों का यह सारा क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा की दृष्टि से अति समृद्धि था। बाद में उस क्षेत्र में स्वर्ण खनन का कार्य भी शुरू किया गया। प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता को देखते हुए अमरिकी सरकार व वहाँ के व्यवसायिओं की लगातार घुसपैठ शुरू हो गई। उस क्षेत्र का अमेरिकी गवर्नर इसाक स्टेवेंस (1818-1862) अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्देशाधीन उस क्षेत्र में गया और आदिवासियों पद दबाव डाला। उनकी पुस्तैनी भूमि हड़पने का स्पष्ट इरादा रखते हुए उसने इस षुरूआत को समझौता नाम दिया। उन आदिवासियों पर बाहरी व्यक्ति निश्चित रूप से ताकतवर थे और साधन सम्पन्न व विकसित भी थे। अतः आदिवासी मुखिया सिएथल ने यही उचित समझा कि हिंसक संघर्ष और तज्जन्य दुष्परिणाम को टालने के लिए पुष्तैनी जमीन का कुछ मांगा जाने वाला हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। यह सब उसने अत्यन्त भारी मन से किया था। उसकी मजबूरी यह थी कि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। सन् 1854 में यह तथाकथित संधि की गई। संधि से पूर्व सिएथल ने अपने लोगों के बीच यह वक्तव्य दिया। 7 जून 1866 को सिएथल की मृत्यु हुई। मृत्यु पर्यन्त वह मुखिया के रूप में स्थापित रहे।
                  उक्त संधि के बाद अमरीकियों ने भी आदिवासी मुखिया को प्रभावशाली व्यक्ति के रूप माना और मुखिया सिएथल के नाम पर उस आबादी क्षेत्र को सिएथल के नाम से जाना जाने लगा और आज भी सिएथल के नाम पर षहर है। इस संधि की प्रक्रिया भी बड़ी पेचीदा रही। अत्यन्त सीमित स्तर पर बोली जाने वाले चिनूक झारगन भाषा के माघ्यम से यह वार्ता हुई। संधि के प्रस्तावों को अमरीका ने मन से नहीं माना और आदिवासी क्षेत्रों में अनैतिक घुसपैठ जारी रखी। इस तरह के अमरीकी बर्ताव से क्षुब्ध होकर सिएथल को बड़ी पीड़ा पहुंची व संधि और उसके प्रावधानों के मुताबिक वांछित संशोधन के अभाव में संधि का विवाद काफी समय तक जारी रहा। सिएथल का वक्तव्य आदिवासी भाषा में था जिसका अंग्रेरजी अनुवाद 29 अक्टूबर 1887 में ‘‘सिएथल संडे स्टार’’ में डॉ0 हेनरी स्मिथ ने पहली बार प्रकाशित किया। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद इतिहास बोध पत्रिका के 35वें अंक में प्रकाशित हुआ। सिएथल के उसी अनुवाद की प्रस्तुति साभार यहाँ की जा रही है।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

जारवा आदिवासी को स्वप्न में देखकर

तुम्हें लाल रंग क्यों पसन्द है जारवा-पुत्र,
(क्षमा करना, इस सम्बोधन में ’आर्य-पुत्र’ की
अभिजात्य अनुगूँज नहीं समझता।)
क्या यह अनुराग की व्यंजना है
या लक्षणा लाल खून की
जिससे साबित होती है जिन्दगी
-या अभी-अभी हुई मौत।
ऐसा तो नहीं जारवा-पुत्र
कि मस्तिष्क की कन्दराओं से
सुनाई देती हों-
अबेदीन की दनदनाती बन्दूकों की
                                  -धधकती आग्नेय प्र्रतिध्वनियंा

और याद आता हो
काले पानी से घिरी काली धरती का
ऊबड़-खाबड़ रूधिरस्नात रणक्षेत्र।
बनाओ जारवा-पुत्र
क्या तुम्हारा कोई वास्ता है
आदिम बनाम आक्रान्ताओं के
चतुर्युगीय संघर्षों की दास्तान से
उनके एकपक्षीय गौरवगान से
जिसे सुनकर अभी भी
चैंक पड़ते हैं-
बाली और शम्बूक के रक्त-रंजित अमुक्त प्रेत
और प्रश्न बन खड़ा होता है
द्रोणाचार्य के काँपते हाथों में
खून से लथपथ एकलव्य का
                                      -तड़पड़ाता अँगूठा ?

बोलो जारवा-पुत्र
क्या तुम परिचित हो-
दीप्तिमती रक्तवर्णा स्वर्गतनया उषाओं से
जो देती बताई संकेत

किसी नव-प्रभात के अरूणोदय का
या फिर-
लाल रंग की यह पसन्दगी
उस साँझ की सूचक तो नहीं
जो लीलती जा रही है
तुम्हारे अस्तित्व को
                                -चुपचाप ?

सोमवार, 9 नवंबर 2009

मारवाड़

मारवाड़
मरू अंचल का कोना-कोना
सब ही उजाड़
अंधड़ दहाड़
मीलों-मीलों धरती उघाड़
यह धरती सहती
सूरज की तपती किरणों की मारधाड़
ढूहों के ढूह रेत के बस
कोई न पाड़
बहती रेता के लघु पहाड़

आक्षिजित फैलता सिंधु रेत का
भीमकाय अजगर से धोरे लोट-पोट
ज्यों भूरे सागर की लहरें
प्रति पल नूतन आकार धरें
पष्चिमी हवाओं के प्रहार
जीवन पर करते अट्टहास
श्रंृगारी ऋतुओं का मजाक

कोयल, मयूर
सावन, बसंत
बादल, शीतल समीर
नद, सर, निर्झर,
दूर्वादल कहीं न दूर-दूर
रेता के कण ही भूर-भूर
बिखरी-बिखरी
उजड़ी-सी दूरस्थ बस्तियाँ
लम्बे-लम्बे डग भरती
ऊँटों की ही तो मात्र कष्तियाँ
लहराती फसलें प्रष्न-चिह्न
धरती ही प्यासी
पीने को पानी भी बासी

गरमी में आग बरसती है
भू क्षण-क्षण कण-कण जलती है
दिन-रात धधकती धरती की
पीड़ा हरने
रातों की आँखों में देखो!
ओसों के आँसू झरते हैं
मरू-भू को तनिक तृप्त करने
अस्तित्व निछावर करते हैं
सर्दी भी देखो, दुखदायी
शूलों-सी चुभती हाड़-फोड़
कर रही ग्रीष्म से यहाँ होड़
सर्दी-गर्मी के ये तेवर
हैं मात्र शरण झूपों के घर
खाने में कहाँ विविध व्यंजन
बस मोठ, बाजरी बनी खाण
हैं कड़ी, साँगरी, केर अभावों में लगाण

कहते हैं-
लाखों वर्ष पूर्व
कोई युग में था सिंधु यहाँ
पर अब न नीर का बिन्दु यहाँ
वह सरस भूमि मरू-धरा बनी
किन अभिषापों की करनी ?

जीना दूभर-
फिर भी जीवन में जीवट है
श्रम-सम्बल जिजीविषा बनता
इस कारण भू वीरान नहीं
चाहे अनगिनत अभाव सही
फिर भी जीते हैं लोग यहाँ
लम्बे-लम्बे कद-काठी के
वन-जीव, वनस्पति दिखते हैं
ज्यों तपःपूत इस माटी के।

झुरमुट बन जीते सरकंडे
माथे पर छर्रों के झण्डे
भम्फोड़1 उग रहे धरा फाड़
जैसे लगते लघु वृक्ष ताड़
पीले-पीले
भूरे-भूरे

है उत्तरीय-सी हरियाली
कुछ बीच-बीच में लाली है
देखो तो-
छटा निराली है।
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1. छः इंच से दो फुट लम्बा मूसलनुमा एक रेगिस्तानी पौधा। सफेद-पीला-सा। अन्य रंग भी एक ही पौधे में होते हैं। ‘भूमि फोड़‘ से भम्फोड़ नाम पडा़ होगा। इसे मरगोजा भी कहते हैं।
काँकेड़ा, रोहिड़ा, सीणिया
कुंज करीलों के दिखते हैं
खींप, आँकड़ा, बुई, बोरड़ी
कीकर, कुमट्या, केरों के ही-
वृक्ष इस धरा पर मिलते हैं
कुछ विरले वृक्ष सरेस
कल्प-तरू बने खेजड़े
यहाँ काचरी और मतीरे-
के ही तो बस बिछे बेलड़े।

बकरी, भेड़ों के चलते रेवड़
लुढ़क-लुढ़क
ऊँटों ही ऊँटों की कतार
हैं वन-बिलाव, लोमड़, काले मृग, नील गाय
दिन-रात भटकते हैं सियार।

टहणों में भेड़ें
फोगों की गुच्छी
दोनों ही
गोल-मटोल
धवल-सी दिखती हैं
ऊँटों की भी लम्बी कतार
मटियाली, भूरी रेता के
भूरे धोरों में मिलती है।

यहाँ मरूधरा में
देखो !
भोले-भाले निग्र्रन्थ लोग
सहज, सरल, सीधे, सपाट
नव-संस्कृति का जिनमें न रोग
बकरी, भेड़ों, ऊँटों के रेवड़ लेकर देषाटन जाते
आषाढ़ मास वापस आते
इस सृजन मास में देख गगन
कुछ बचा बाजरी, मोठ बीज
धरती पर देते वे बिखेर
मन से कुछ आषाएँ उकेर
वर्षा ऋतु भटके मेघों से
कुछ बूँदें ही टपका जाती
उन ही के सम्बल से देखो !
ले प्राणषक्ति अंकुर फूटे
कुछ मोठ, बाजरी उग आती
दानी-सी प्रकृति द्रवित होती
वह भी तो देती बिना देर
कुछ फोग, साँगरी, बेर, केर

इससे भी आगे
कुछ तो है
तब ही
मरूस्थल में जीवन है
शायद मूमल की प्रीत यहाँ
ढोला-मारू के गीत यहाँ
अलगोजा दूर तरंगों में
बजता है चंग उमंगों में
दिन में स्वर्णिम धोरे हिलते
ले चन्द्र-किरण कण-कण खिलते
हैं लोक-देवता-
तेजा, गोगा, रामदेवरा
इनके मेले
लोगों के बहुरंगी रेले
इनसे भी कुछ ऊर्जा लेते
जीवन की नैया को खेते

इससे भी आगे जीवन में-
नृत्यों की रूनक-झुनक थिरकन
तन पर रेता की ही उबटन
परदेषी कुरजां की कलरव
रेता की भी भूरी मखमल
सर्दी में सूरज का सम्बल
कुछ गरमाता मरू के तन को
गर्मी में रातें कुछ ठण्डक दे
सहलाती जाती जीवन को

चाहे मनुष्य
या जीव-जगत
या
फैली प्रकृति मरूस्थल की
सब ही तो हैं संघर्षलीन
करते जीवन को
समय-हीन
अक्षुण्ण, अनवरत, अन्तहीन।

पूर्णिमा की रात और वह आदमी

दिन भर
सातों घोड़ों को
-थकाता रहा गुस्साया सूरज
और,
जाते-जाते
छोड़ गया गर्द भरी तपती साँझ

पूरब की कोख से
जन्मना ही था भरे-पूरे चाँद को
वह भी उगा मटमैला
निकला हो जैसे गरम-गरम राख में से

उफ,
कितना सहा दिन को
फिर यह-
बेचैनी उगलती पूर्णिमा की रात!
बिजली गुल
छतों पर राहत तलाषते असुविधा की दुविधा में फँसे लोग

इस सबसे बेखबर
ठर्रे के असर में
तंगे खाता वह अधेड़
धूप की तरह पारदर्षी जिसकी पहचान
घर-परिवार सम्भालने के लिए
घर-परिवार छोड़कर
गाँव से आया कोई मजदूर या किसान

लगा,
जैसे पहली बार उसने दारू पी
खाली पेट में भभकता गुस्सा
बड़बडा़हटनुमा उसी की लपटें
बेकाबू लपटों को राह दिखाती-
फौस गालियाँ.....
श्.....देख लूँगा हरामियों को.....श्
-कहते हुए
उसके पाँव लड़खड़ाए
वह गिरा-गिरा बचा

बेखबर था छतों पर जमा लोगों से
बहुत कम वाकिफ होगा यहाँ की सड़कों से भी
(वैसे,
उसने खूब देखा था
अपने गाँव का आसमान और उसकी जमीन)

उधर,
छतों पर
केवल बिजली की वजह से
परेषान लोग
देख रहे थे उसे बड़े ही कौतुक से
-मजाकिया लहजों मंे टीका-टिप्पणी करते
और
जब वह लड़खड़ाकर गिरा होता
तब तो खूब ही हँसे थे लोग
शायद,
उस तक भी
पहुँची हों अट्टहास की कुछ तरंगें

पर,
वह बेपरवाह इंसान
बढ़ता ही गया
उस सड़क से
आगे की सड़कों की ओर
सड़कों पर उतरने का
संकल्प लेता हुआ.....

चाँद

न जाने क्या-क्या देख लिया
तुमने चाँद में
था ही नहीं जो वहाँ

मेरे पुरखों ने देखी-
वो चरखे वाली बुढ़िया
और कतते सूत की डोरी

सच बोला करता था दादा
जैसे
वह प्यारा ‘बाबा‘ कवि
जिसने चाँद में रोटी देखी

बेषक,
चाँद में न बुढ़िया
न सम्वत
न रोटी
फिर भी-
उन्होंने जो देखा
वह मेल खाता है इस धरती से
जो जन्माती व जिन्दा रखती है
-धरती के लोगों को

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

भीलणी

इस बहुरंगी दुनिया में
मेवाड़ी धरती
उस धरती मे विरल भीलणी
निर्मल, शुभ्र हृदय उसका
पर
तम-आच्छादित उसकी काया
किन अतीत के अभिषापों की
काली छाया
पड़ी निरन्तर
उसके तन पर
ले दोपहरी से अंगारे
धूणी रमती
वन वन फिरती
वह तपस्विनी
श्रम की देवी।

फटा घाघरा
तन से लिपटा
तार-तार चोली
लज्जा की रक्षा करती
अन्तिम साँसें रोक ओढ़नी
सर को ढकती।

अरावली पर्वतमाला की काली घाटी
काली घाटी के तल में
कँकरीली माटी
फटे खोंसड़े ही
उसके पैरों की जूती
बीच-बीच में पगतलियँा
धरती को छूती।
राह रोकते शूल झाड़ के
नागफनी के पुंज
रोकते उसके पथ को
जीवन-रथ को।
दयावान कुछ पेड़
द्रवित हो
उस वनदेवी को ज्यों देते
सूखी लकड़ी
बीन-बीन कर उनको चुनती
तोड़-तोड़ कर गठरी बुनती
उस गठरी को माथे धरती
खट-खट फट-फट
चलती ढोती।

उसके तन के
रोम-रोम के
छिद्र-छिद्र से
फूट-फूट कर
निसृत होता स्वेद-निर्झरा
टप-टप टपका
उस तपस्विनी का मन
कुछ क्षण चलते-चलते
घर जा अटका।

घर क्या होगा उस दरिद्र का-
एक डँूगरी की छाती का
लेकर सम्बल
टूटी-फूटी
रूग्ण झोंपड़ी
पर्ण-कुटी सी
कोलू मिश्रित
बीच-बीच में गगन झाँकती
मानवता का मूल्य आँकती।

उस अभाव के ही आश्रय में
नन्हंे-नन्हें उसके बालक
भील गया दूरस्थ देष
मजदूरी करने
घर की कुछ उम्मीदों को
ज्यों पूरी करने।
’’मैं रोटी लेने जाती हूँ
अभी-अभी वापस आती हँू।’’

यह कह कर
चुपचाप
क्षुधा की तृप्ति हेतु
वह अस्थि-पुंज
सूखी लतिका-सी
रोटी की ठण्डक तलाषने
निकली
वन, पर्वत, उपत्यका
उलट चली सूखी सरिता-सी।

भोर सुनहरी
उसको जैसे
पीली-पीली
मक्का की सी
रोटी दिखती
चढ़ते सूरज संग भागती
वन-प्रान्तर में
छिपती फिरती।

कहीं छिप गई
इस रोटी की ही तलाष में
जंगल की सूखी लकड़ी में
दिन-भर फिरती
वह अभागिनी
श्रम की जननी
वह तपस्विनी।

साँझ ढले
बाजार फिरे
ले लकड़ी गठरी
गंध खोजती रोटी की सी
मिली अन्त में उसे कमाई
पर थोड़ी-सी।

वह थोड़ा-सा
श्रम का प्रतिफल
घर का सम्बल
कैसे करता तृप्त
निर्धना का मरू-जीवन।

दिन-भर का श्रम भूल
दिन छिपे
वह श्रम देवी
पूरी राहें
धेनु समान ममत्व छिपाती
मन ही मन में
वह रम्भाती
फिर घर आती।

भूख सताए नन्हें बालक
हो हताष
सो जाते तब तक
ठाऽठ पड़े
श्यामल-ष्यामल
निर्बल
पर, जीवटमय
दोनों हाथों से उन्हें जगाती
वक्ष लगाती
रोती-रोती
देती रोटी
वात्सल्य का भार लिए उर
रूद्ध कण्ठ भींचे अभाव सुर
उन्हें खिलाती
उन्हें सुलाती।

अब थे बालक अंक नींद की
बीच-बीच में स्वप्न
चाँद से परी उतरती
हाथ सजा कर थाल
स्वप्न में व्यंजन देती
पर-
स्वप्नों के इस यथार्थ को
खूब जानती भील तापसी
वह थी भूखी
रोटी उस को कहँा बची थी
श्रम की बेटी
थक कर लेटी।

उधर झोंपड़ी के आँगन में
बिखर रही मधुसिक्त चाँदनी
फूले महूआ के पातों से
छान-छान दे रही यामिनी।

क्षुधा-व्यथित वह भील-सुता
निज यौवन में भी प्रौढ़ा-सी
निज प्रौढ़ आयु में वृद्धा-सी।

बाहर बिखरी चन्द्रिका
गगन मंे चन्द्र देख
(नागार्जुन बाबा तो शायद
रोटी का रूपक भूल गया
कुछ और चाँद में ढूँढ रहा)
पर-
देख भीलणी ने चंदा
आकार गोल
धवला-धवला
रोटी की ठण्डक-सा ठण्डा।

कल्पनामग्न
ज्यों चाँद ज्वार की रोटी हो
परतें कुछ मोटी-मोटी हो
उतरा
धीरे-धीरे हिय तल
कुछ शांत हुई ज्यों जठर-अनल
यह कैसी
क्षुधा-षान्ति उसकी
कैसी थी प्रबल भ्रान्ति उसकी।

था खाली पेट
अँधेर घुप्प के अन्धकूप में
स्वप्न जल रहे थे उसके
अतिक्रुद्ध धूप में।

अब-
अन्तरंग पीड़ा तरंग
वन में बिखरी
पर नहीं वेदना तनिक
सकल वन था निःस्वन
बस एकमात्र
पलाष ही को तो थी अखरी।

क्रुद्ध था पलाष
आग उगलता
शाख-षाख
फूट-फूट
रक्तवर्णी एक-एक
फूल उसका धधकता।
देख-
महुआ भी तड़पता
रूदित होता रात भर
झर-झर टपकता।

हार थक
चुपचाप
फिर वह जिन्दगी का भार ढोती
ना दिखे औरों को चाहे
पर तपः तनया के भीतर
प्रखर अग्नि धधकती
खदकते इस्पात की सी
-धार पकती।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

आदिवासी लड़की

आदिवासी युवती पर
वो तुम्हारी चर्चित कविता
क्या खूबसूरत पंक्तियाँ-
‘गोल-गोल गाल
उन्नत उरोज
गहरी नाभि
पुष्ट जंघाएँ
मदमाता यौवन......‘
यह भी तो कि-
‘नायिका कविता की
स्वयं में सम्पूर्ण कविता
ज्यों
हुआ साकार तन में
प्रकृति का सौन्दर्य सारा
रूप से मधु झर रहा
एवं
सुगन्धित पवन उससे.....‘

अहा,
क्या कहना कवि
तुम्हारे सौन्दर्य-बोध का
अब इन परिकल्पित-ऊँचाइयों पर
स्वप्निल भाव-तरंगों के साथ उड़ते
कलात्मक शब्द-यान से नीचे उतर कर
चलो उस अंचल में
जहाँ रहती है वह आदिवासी लड़की

देखो गौर से उस लड़की को
जिसके गोल-गोल गालों के ऊपर
-ललाट है
जिसके पीछे दिमाग
दिमाग की कोशिकाओं पर टेढ़ी-मेढी़ खरोंचें
यह एक लिपि है
पहचानो,
इसकी भाषा और इसके अर्थ को

जिन्हें तुम उन्नत उरोज कहते हो
प्यारा-सा दिल है उनकी जड़ों के बीच
कँटीली झाड़ियों में फँसा हुआ
घिरा है थूहर के कुँजों से
चारों ओर पसरा विकट जंगल
जंगल में हिंसक जानवर
जहरीले साँप-गोहरे-बिच्छू
इस केनवास में
उस लड़की की तस्वीर बनाओ कवि

अपना रंगीन चश्‍मा उतार कर देखो
लड़की की गहरी नाभि के भीतर
पेट में भूख से सिकुड़ी उसकी आँतों को
सुनो उन आँतों का आर्तनाद
और
अभिव्यक्त करने के लिए
तलाशो कुछ शब्द अपनी भाषा में

उतरो कवि,
लड़की की ‘पुष्ट‘ जंघाओं के नीचे
देखो पैरों के तलुओं को
विबाइयों भरी खाल पर
छाले-फफोलों से रिसते स्त्राव को देखो
कैसा काव्य-बिम्ब बनता है कवि

और भी बहुत कुछ है
उस लड़की की देह में
जैसे-
हथेलियों पर उभरी
आटण से बिगड़ी उसकी दुर्भाग्य-रेखाएँ
सारे बदन से चूते पसीने की गन्ध
यूँ तो
चेहरा ही बहुत कह देता है
और आँखों के दर्पण में
उसके कठोर जीवन का प्रतिबिम्ब-है ही

बन्द कमरे की कृत्रिम रोशनी से परे
बाहर फैली कड़ी धूप में बैठकर
फिर से लिखना
उस आदिवासी लड़की पर कविता।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

बिरसा मुंडा की याद में

अभी-अभी
सुन्न हुई उसकी देह से
बिजली की लपलपाती कौंध निकली
जेल की दीवार लाँघती
तीर की तरह जंगलों में पहुँची
एक-एक दरख्त, बेल, झुरमुट
पहाड़, नदी, झरना
वनप्राणी-पखेरू, कीट, सरीसृप
खेत-खलिहान, बस्ती
वहाँ की हवा, धूल, जमीन में समा गई........
एक अनहद नाद गूँजा-
‘‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्‍‍तैनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दाव मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!’
उलगुलान!!
उलगुलान!!!‘‘

जंगल की धरती की बायीं भुजा फड़की
हरे पत्तों में सरसराहट......
सूखों में खड़खड़ाहट......
फिर
मौन हो गया
कुछ देर के लिए सारा आंचल।

खेलने-कूदने की उम्र में
लोगों का आबा बन गया था वह
दिकुओं’’ के खिलाफ
बाँस की तरह फूटा था धरती से
जैसे उसी पल गरजा हो आकाश
और
काँपे हों सिंहों के अयाल।
----------
’ विद्रोह
’’ शोषक

नौ जून, सन.....उन्नीस सौ
सुबह नौ बजे-
वह राँची की आतताई जेल
जल्लादों का बर्बर खेल
अन्ततः.....
बिरसा की शान्त देह!

‘‘क्या किया जाए इसका?‘‘
हैरान थे,
दिकुओं के ताकतवर नुमाइंदे
जिन्दा रहा खतरनाक बनकर
मार दिया तो
और भी भयानक
अगर दफनाया तो धरती हिलेगी
जो जलाया-आँधी चलेगी।

वह मुंडारी पहाड़ों-सी काली काया
नसें, जैसे नीले पानी से लबालब खामोश नदियाँ
उभरे पठार-सी चैड़ी छाती
पथराई आँखें-
जैसे अभी-अभी दहकते अंगारों पर
भारी हिमखण्ड रख दिए हों।

कुछ देर पहले ही तो हुई थी खून की कै
जेल कोठरी के मनहूस फर्श पर
उसी के ताजा थक्के.....
नहीं!
थक्के न कहें,
वे लग रहे थे-
हाल ही कुचले पलाश के फूल
या
खौलते लावा की थोड़ी-सी बानगी।

चेहरे पर
मुरझाई खाल की सलवटों की जगह
उभर आया एक खिंचाव
जैसे,
रेशा-रेशा मोर्चाबन्द हो
गिलोल की मानिन्द
धनुष की कमान-सी तनी माँसपेशियाँ
रोम-रोम जैसे-
तरकस में सुरक्षित
असंख्य तीरों की नोंक
गोया,
वह निस्पन्द बिरसा न होकर
आजाद होने के लिए कसमसाता
समूचा जंगल हो।
उन्हें इन्तजार था
सूरज के डूब जाने का
दिनभर के उजास को
वे छुपाते रहे सुनसान अन्धी गुफा में
जिसके दूसरे छोर पर गहरी खाई
वहीं उन्होंने
बिरसा मंडा से निजात पाई।

कहते हैं-
काले साँप को मारकर गाड़ देने से
खत्म नहीं हो जाती यह सम्भावना कि
पुरवाई चले और वह जी उठे
यदि ऐसा हो तो
परिपक्व जीवन को
धरती अपने गर्भ में नहीं रखती।
बिरसा
उनके लिए
साँप से खतरनाक था
वह दिकूभक्षी शेर था
और
वह भी अभी जवान।
इसलिए
उसे दफनाया नहीं
जलाया था-रात के लिहाफ में छुपाकर
यह जानते हुए भी कि
दुनिया में ऐसी कोई आग नहीं जो
दूसरी आग को जलाकर राख कर दे।

रात के बोझिल सन्नाटे ने स्वयं को कोसा
आकाष के सजग पहरेदारों की आँखें सुर्ख हुईं
हवा ने दौड़कर-
मुंडारी अंचल को हिम्मत बँधाई.....
उन्होंने
आदमी समझकर बिरसा को मार दिया
मगर बिरसा आदमी से बढ़कर था
वह आबा
वह ष्भगवान्ष्
वह जंगल का दावेदार......

उसकी आवाज
जंगलों में अभी भी गूँजती है-
''मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्‍तेनी दावेदार हूँ
पुश्‍तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!श्

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

आर्य व द्रविड़ प्रजाति - यथार्थ या भ्रम

हाल ही में सेंटर फार सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायोलोजी के पूर्व निदेशक लालजी सिंह एवं इसी संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक कुमारस्वामी थंगराजन ने आर्य व द्रविड़ प्रजातियों को लेकर शोध किया है जिसका आधार जीनस् के अध्ययन को बनाया । उनका निष्कर्ष है कि आर्यो एवं द्रविड़ों का भेद एक भ्रान्ति है और इन दोनों प्रजातियों के आधार पर उत्तर एवं दक्षिण भारत को अलग अलग देखने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, चूंकि आर्यजन के भारत में प्रवेश के हजारों वर्ष पहले उत्तर व दक्षिण भारत में पृथक मानव प्रजातियां निवास कर रही थी ।
दोनों वैज्ञानिकों ने उत्तर एवं दक्षिण के 13 प्रातों के 25 मानव समूहों के कुल 1300 व्यक्तियों को सेम्पल के रूप में अध्ययन में शामिल किया । इस शोध में 5 लाख जैनेटिक संकेतकों ;उंतामतेद्ध पर विश्‍लेषण किया गया । अध्ययन में शामिल सभी व्यक्ति भारत की प्रमुख 6 भाषा परिवारों से सम्बंध रखते हैं। साथ ही परम्परागत रूप से जिन्हें उच्च व निम्नवर्ग कहा जाता है उनका भी प्रतिनिधित्व रखा गया ।
यह अध्ययन हार्वर्ड मेडीकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और एम0आई0टी0 के सहयोग से किया गया । शोधार्थियों का मानना है कि वर्तमान भारत के लोग उनके उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय पूर्वजों के वंषज हैं । भारत में आदिकाल में 65 हजार वर्ष पहले अंडमान एवं दक्षिण भारत में मानव समूह अन्यत्र से आकर रहने लगे एवं 40 हजार वर्ष पहले उत्तर भारत में । कालान्तर में दोनों भू-भागों के वे आदिमानव आपस में घुले मिले और उनके मध्य पैदा हुए सम्बंधों से मिश्रित जनसंख्या सामने आई । यह जनसंख्या दोनों पूर्वजों से भिन्न पैदा हुई ।
यही जनसंख्या आज के भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस निष्कर्ष के बावजूद जैनेटिक रोगों की दृष्टि से आंचलिक विशेषताएँ सामने आई जो यह संकेत देती हैं कि भारत की जनसंख्या का करीब 70 प्रतिषत हिस्सा जैनेटिक असंतुलन ;कपेवतकमतद्ध से ग्रसित हैं और इसी वजह से आंचलिक एवं मानव समुदाय विशेष के स्तर पर जेनेटिक रोग पाये जाते हैं यथा पारसी महिलाओं में स्तन-कैंसर, चित्तूर व तिरूपति के निवासियों में मोटर न्यूरोन बीमारी और पूर्वोत्तर तथा मध्य भारत के आदिवासियों में ‘स्किल सैल एनीमिया’।
करीब 1,35,000 से 75,000 वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका भू-भाग में बाढ़ आने से वहां की करीब 95 प्रतिशत जनसंख्या विस्थापित हुई और उनमें से कुछ ने दक्षिण समुद्री तट होते हुए अंडमान तक का रास्ता लिया जो इस क्षेत्र के आदिपूर्वज पाये गये ।
शोधार्थियों के अनुसार इस मत में कोई दम नहीं है कि प्राचीन भारत में कोई मानव समूह मध्यपूर्व यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया अथवा आस्टेलिया से भारत आये। उल्लेखनीय है कि इस अध्ययन का आधार जेनेटिक्स है लेकिन इस सीमा के बावजूद इस विषय पर विमर्श की संभावनाएँ हैं जिनका स्वागत है।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

सृष्टि सम्बन्धी आदिवासी मिथक

विकसित समाजों में सृष्टि की उत्पति के संबंध में चले आ रहे मिथक प्रगति की प्रक्रिया में धीरे धीरे समाप्त होते जा रहे हैं और जहां कहीं सुरक्षित हैं तो उनका परिमार्जित संशोधित व परिवर्तित रूप ही मिलता है। मौलिक स्वरूप कहीं न कहीं अपभ्रष्ट होता दिखाई देता है। इससे इतर आदिवासी समाजों के सृष्टि सम्बन्धी मिथकों में अधिकांश मौखिक परम्परा का हिस्सा बने हुए हैं । चूंकि इनके व्यवस्थित लिपिबद्ध प्रयास अपेक्षित स्तर पर नहीं हुए । यही वजह है कि समूह एवं अंचल के स्तर पर इन मिथकों में काफी विविधताएं पाई जाती हैं । यहां तक कि एक ही आदिवासी घटक़ में भी सृष्टि के उद्भव संबंधी एक से अधिक मिथक दिखाई देंगे । विभिन्न आदिवासी समुदायों में प्रचलित मिथकों को समेटने का यहां प्रयास किया गया है।

पूर्वोत्तर भारत

वैदिक ग्रंथो से लेकर हिन्दू परम्पराओं में पंच महाभूत के सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है। इसी तरह सृष्टि की उत्पति को लेकर आदिवासी मिथकों में भी आधारभूत तत्वों का जिक्र मिलता है। जब हम पूर्वोत्तर भारत की बात करते हैं तो उदाहरणार्थ अरूणाचल प्रदेश में सृष्टि सृजन में जल, अण्डा, बादल, चट्टान, लकड़ी जैसे आधारभूत तत्वों को सृष्टि सृजन में सहायक माना गया है। इन तत्वों का सृष्टि से पूर्व स्वतः अस्तित्व बताया गया है। ये सब प्रथम सोपान के सृष्टिक्रम माने गये हैं। दूसरे चरण में पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि एवं अन्य सजीव रचनाओं को शामिल किया गया है। तीसरे चरण में रंग, दिशा, रूप, गंध माने गये हैं तथा चौथे-चरण में विवेक को शामिल किया गया है।
सृष्टि से पहले की अवस्था के बारे में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासियों की यह मान्यता रही है कि पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल था। आसमान में दो आदि-बंधु रहते थे। एक दिन उन्होंने आपस में बातचीत करते हुए यह सोचा कि अगर मनुष्य की उत्पत्ति की जावे तो वे जीवित कैसे रहेंगे क्योकि यहां तो पानी ही पानी है ? आकाश में कमल का एक फूल था। दोनों भाइयों ने उस फूल को नीचे फैंक दिया। फूल की पंखुडियां अन्नत जल राषि पर बिखर गई। फिर उन दोनों भाइयों ने चारों दिशाओं से वायु का आह्नान किया। पूर्वी दिशा से आने वाली वायु अपने साथ सफेद धूल लाई जिसे फूल की पंखुडियों पर बिखेर दिया। पश्चिमी हवा पीले रंग की धूल लाई, दक्षिणी हवा लाल तथा उत्तरी हवा काली धूल लेकर आई। यह सभी धूल आपस में कमल के फूल की पंखुड़ियों पर बिखर गई और इस तरह बहुरंगी पृथ्वी का सृजन हुआ।
एक मिथक कथा यह चलती है कि बाह्मण्ड में आरम्भ में केवल दो अण्डे थे। वे नरम तथा सोने की तरह चमकने वाले थे। वे एक जगह टिकने के बजाय चक्कर लगा रहे थे। अन्ततः वे आपसे में टकराये और फूट गये। एक अण्डे से पृथ्वी और दूसरे अण्डे से आकाश का सृजन हुआ। यह दोनों पत्नी और पति के रूप में सामने आये। दोनों के संभोग से वनस्पतियों तथा अन्य प्राणियों की रचना हुई।
अन्य मिथक-कथा यह है कि आरम्भ में पहले बादल थे। कोई पृथ्वी या आकाश नहीं था। बादल इनसे एक स्त्री पैदा हुई। वह बादल जैसी थी। उसने एक बालक व एक कन्या को जन्म दिया। वे दोनों बर्फ जैसे थे। जब वे जवान हुए तो दोनों ने शारीरिक सम्बंध बनाया जिससे इतंगा नामक कन्या का जन्म हुआ जो पृथ्वी कहलाई और एक पुत्र पैदा हुआ जो यूम अर्थात आकाश कहलाया। पृथ्वी कीचड़ तथा आकाश बादल जैसा था । इन दोनों ने भी शादी करली तथा इनबुंग नामक पुत्र को जन्म दिया जो वायु कहलाया इसके जन्म से तेज हवायें चली जिससे उसका पिता बादल उड़ता हुआ आसमान में चला गया और कीचड़नुमा पृथ्वी को सुखा दिया जो क्रमश: स्वर्ग और पृथ्वी के रूप में आविर्भूत हुए।
एक अन्य मिथक कथा के अनुसार आरम्भ में केवल एक चट्टान थी और चट्टान के चहू और जल ही जल था। वह चट्टान सजीव थी जो नरम ओर इधर उधर चलने फिरने की क्षमता रखती थी। इन चट्टानो से एक मादा चट्टान पैदा हुई जो जिससे एक अन्य चट्टान पैदा हुई जो नर चट्टान। दोनों के मध्य यौन संबंध स्थापित किये जाने पर इन दोनों की प्रथम सन्तान मछली के रूप में पैदा हुई तत्‍पश्‍चात उन्होंने एक बड़े मैंढक, फिर एक छोटे मैंढक और फिर एक थलचर मेंढक को जन्म दिया। इसके बाद उसने पानी में रहने वाले एक कीट को जन्म दिया और अन्ततः दूसरी मछली। फिर चट्टान माता नक्षत्रांे के बीच बने गगन ग्राम में चली गई। वहां भी उसने एक नक्षत्र से शादी की और कई बच्चे पैदा किये और उसके बाद मृत्यु को प्राप्त हो गई। उसके बच्चों ने अपनी मां के अन्तिम संस्कार के लिये चावल की लापसी बनाई। इस प्रक्रिया के दौरान उठी भाप से एक बादल उठा जिससे मिथुन (क्रोन बोस).... पैदा हुआ। मिथुन ने अपने सींगों से गढ्ढा खोदा जिससे सूखी धरती प्रकट हुई। तभी से वे नरम चट्टानें कठोर चट्टान बन गईं। और पृथ्वी पर अन्य सजीव निर्जीव रचनाएँ सृजित र्हुइं।
एक और मिथक पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित है जिसके अनुसार सृष्टि से पूर्व सर्वत्र जल ही जल था। पानी के ऊपर सर्व प्रथम एक वृक्ष पैदा हुआ जिसे पैरीकामुला कहा गया। समय के साथ एक कीडा उस पेड़ पर जन्मा और उसने पेड़ की लकड़ी को खाना षुरू किया। लकड़ी के कण पानी पर फैले और उसके बाद संसार की सृष्टि हुई। तद्पष्चात वह पेड़ बूढा होकर जमीन पर गिर गया। उसके नीचे के हिस्से की छाल से संसार की त्वचा और ऊपर की हिस्से वाली छाल से आकाश की त्वचा बनी। पेड़ का तना चट्टानों में परिवर्तित हो गया ओर शाखाएं पर्वतों में।
एकल मानव प्राणी से पैदा हुई सृष्टि की मिथक एक अन्य कथा सामने आती है जिसके अनुसार क्रतमचालटू नामक पृथ्वी मनुष्य जैसी थी जिसके सिर, भुजाएं, पैर और बड़ा पेट था। उसके पेट पर नवजात मनुष्य रहने लगे। पृथ्वी ने सोचा इन प्राणियों की वजह से हिलडुल भी नहीं सकती। ऐसा करूंगी तो ये गिर कर मर जायेंगे। उसने स्वयं मरना तय किया। उसके शरीर के पृथक-पृथक अंग संसार के अलग अलग खण्ड बने तथा दोनों आंखें सूरज व चांद।
पूर्वोत्तर प्रान्तों के आदिवासियों में सृष्टि संबंधी एक बात सामान्यतः पाई जाती है कि वे सब सृष्टि की पंच सोपानी उत्पत्ति में विश्‍वास करते हैं। यह भी एक सामान्यीकृत निष्कर्ष कहा जा सकता है कि कमोबेश सभी मनुष्यों की उत्पत्ति पृथ्वी व आकाश के पत्नी व पति रूप से पैदा होना पाया गया है।
यह भी एक किंवदन्ती चली आ रही है कि प्रथम मानव प्रजाति को नष्ट कर दिया था। फिर सम्पूर्ण पृथ्वी को बारिश में अच्छी तरह धोया तब जाकर मानव जाति की पुनः रचना हुई। पूर्वोत्तर के सभी आदिवासियों में यह मिथक पूरी तरह बसा हुआ है कि आदि काल से मनुष्य, अन्य प्राणियों तथा अदृष्य आत्माओं के बीच गहरा सम्बंध था। कहा जाता है कि एक स्त्री ने मानव शिशु और बाघ शिशु के जुड़वां बच्चों की तरह जन्म दिया। उस जमाने में जानवर भी आपस में खुल कर बातें किया करते थें। इस तरह की कई कहानियां सुनी जाती हैं कि मनुष्यों द्वारा देवताओं की आत्माओं व अन्य प्राणियों यहां तक कि पेडों और पत्तियों से भी शादी की जाती थी। यह भी विष्वास चला आ रहा है कि आदि-युग में विवेक केवल मनुष्य के पास ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के पास भी था। शास्त्रविदियों से प्रथम शास्त्रीय स्थापनाओं से अलग आदिवासियों की यह मान्यता है कि किसी एक ईश्‍वर ने सृष्टि की रचना नहीं की, बल्कि अस्तित्व में रहे भौतिक पदार्थों से सृष्टि उपजी। अर्थात भौतिक तत्वों से सजीव व निर्जीव दोनो किस्‍म की रचनाएं सामने आईं जो प्रारम्भ में एक ही थी। उल्लेखनीय है कि जल की महिमा प्रमुखता से सामने रही है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है कि भौतिक पदार्थ से ही सजीव संसार सृजित हुआ। ऐसा ही वैज्ञानिकों का मत भी है।
खासी आदिवासियों में जब भी कोई भावनात्मक या विचलन के क्षण आते हैं तो वे एक अनुष्ठान करते हैं, जिसमें कोड़ी, चावल, अण्डा व मुर्गी का इस्तेमाल करते हैं। इन सभी को अनाभिव्यक्त सृष्टि के प्रमुख तत्व माने गये हैं यथा अण्डे को आधार तत्व, कोड़ी को जल, मुर्गी को पृथ्वी तथा चांवल को प्राण। अंडमान के औंगी आदिवासियों में हड्डी को पूर्वजों की निशानी के रूप में मानते हुए उसे आभूषण की तरह गले में धारण किया जाता है। उनकी मान्यता है कि इसकी अस्थि-गंध से ही उनका अस्तित्व उनके रिहायशी टापू पर और प्रेतात्माओं का वास उनके आसमान में रहता है, जो उनकी रक्षा करती हैं। प्रेतात्मा को वे अपना सृष्टा मानते हैं। नागा एवं मिरि आदिवासी दो लोकों की अवधारणा में विश्‍वास करते हैं-एक, जीवित लोक तथा दूसरा मृतकों का लोक। सृष्टि के बारे में उनकी अवधारणाएँ पूर्वानुसार ही हैं ।
(उक्त जानकारी श्री बैद्यनाथ सरस्वती के आलेख पर आधारित है)

गोंड

इन आदिवासियों का मिथक है कि कमल के पत्तों पर ‘बड़ादेव‘ बैठा हुआ था तभी उसके मन में सृष्टि की रचना का विचार आया। दुनिया रचने के लिये उसे मिट्टी चाहिये थी । उसने नीचे देखा तो ब्रहमाण्ड में सर्वत्र जल ही जल दिखाई दिया। उसने अपनी छाती मसली । छाती रगडने़ से जो मैल इकट्ठा हुआ उससे उसने एक कौआ बनाया। कौए को उसने मिट्टी की तलाश में भेजा। कौआ मिट्टी की तलाश में इधर उधर उड़ने लगा। उसने सब जगह छान मारा लेकिन उसे अनन्त दूरियों तक जल ही जल फैला हुआ दिखायी दिया । वह थक गया था । उसे कहीं बैठने की जगह भी नहीं मिली । तभी उसे एक सूखी लकड़ी नजर आई जिस पर वह बैठ गया। अचानक एक आवाज सुनाई दी -
‘‘ यह मेरे पंजे पर कौन बैठा है ?‘‘
वह आवाज केकड़ा की थी । कौआ ने मिट्टी तलाश संबंधी बात उसे बताई । केकड़ा ने कहा कि ‘सारी मिट्टी पाताल लोक में चली गई है और उसे केंचुआ खा रहा है ।‘ कौआ ने केकड़ा से विनती की कि केंचुआ को पाताललोक से बाहर लाए । केकड़ा ने पानी में से केंचुआ को बाहर निकाला । जब केंचुआ से पूछा कि ‘मिट्टी सौंपो‘ तो उसने जवाब दिया कि ‘मिट्टी तो मेरा भोजन है इसलिये मैं नहीं दे सकता ।‘ तब केकडा ने केंचुआ को पकड़ा और उलटा करके उसे झटका दिया तो केचुआ ने सारी मिट्टी बाहर उगल दी । कौआ ने वह मिट्टी चोंच में दबाई और बड़ादेव के पास आ गया ।
बड़ादेव ने मकड़ा को आदेश दिया कि विराट जलाशय के चारों ओर एक जाला फैला दे। उसने ऐसा कर दिया। बड़ादेव ने जाला को पानी के उपर फैलाया और मिट्टी को उसके उपर बिखेर दिया। इसके पश्‍चात बड़ादेव ने पशु पक्षी तथा अन्य जानवर बनाकर पृथ्वी पर भेज दिये। उन्हीं में मानव की भी रचना की। मनुष्य ने बड़ादेव से पूछा कि-
‘‘ मैं मेरे बच्चों को क्या खिलाउं ?‘‘
बड़ादेव ने अपने माथे के बालों में से तीन बाल उखाड़े और उन्हें पृथ्वी पर फैंक दिया। उन बालों से आम, सागवान तथा कासी के पेड़ बन गये । बड़ादेव ने मनुष्य को एक कुल्हाड़ी देते हुए कहा कि इन वृक्षों की लकड़ी काटे और कुछ बनाये।
जैसे ही मनुष्य ने पेड़ों की लकड़ी काटना शुरू किया तभी कठफोड़वा ने कुल्हाड़ी के आघातों जैसी आवाज निकालते हुए पेड़ों की टहनियों पर अपनी चोंच से शाखाओं को पोली करना आरम्भ कर दिया । मनुष्य को कठफोड़वा की हरकत पर गुस्सा आया । मनुष्य ने कुल्हाड़ी कठफोड़वा के उपर फैंकी । कठफोड़वा आकाश में उड़ गया और मनुष्य की कुल्हाड़ी भी गायब हो गई।
मनुष्य बड़ादेव के पास मदद के लिये वापिस गया । बड़ादेव ने अपने अलाव में से थोड़ी सी राख मनुष्य को दी और उससे कहा कि इसे पेड़ों की जड़ों में गाड़ देना।
जैसे ही मनुष्य ने पेड़ों के पास आकर राख को उनकी जड़ों में डाला तो पेड़ों में शाखाएं व फल-फूल उत्पन्न हो गये और सारी पृथ्वी हरे जगलों से भर गई । उसने पहले काटी हुई लकड़ियों में से एक पोली लकड़ी दूर फैंकी । जिस जगह उसने लकड़ी फैंकी वहां बांस का पेड़ उग आया । बांस के झुरमुटों में से अन्न की देवी प्रगट हुई जिसने मनुष्य को लकड़ी का बना हुआ एक हल दिया । यह वही लकडी थी जिसे मनुष्य ने फेंका था और जहां बांस उगे थे । इस तरह मनुष्य ने हल से अन्न उपजाना आरम्भ किया । अन्न की देवी को गायब होने से बचाने के लिये गोंड पुरूष की स्त्री ने मिट्टी की एक कोठी बनाई और उपजे हुए अन्न को सुरक्षित रख दिया जिससे वह पूरे संसार के मनुष्यों का पोषण़ करने लगी।
इस मिथक कथा को सौहेल हाशमी ने व्याख्यायित करते हुए कहा है कि इन आदिवासियों का आदिदेव अर्थात बड़ादेव व्यस्तता या अन्य किसी वजह से रोज स्नान नहीं करता था, इसलिये उसके बदन पर मैल जम गया। भद्र समाज के देवों की तरह वह रोज स्नान व श्रृंगार नहीं करता था । इस तरह वह वैसा ही देव था जैसे कि उसके अनुयायी आदिवासी । भद्र समाज में सामान्यतः कौआ, केकड़ा और मकड़ा को बुरा मानते हैं जबकि इस मिथक में उनका सृष्टि रचना में महत्वपूर्ण अवदान बताया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि आदिवासी समाज पर्यावरण संतुलन के प्रति कितना सचेत रहा है।



सहरिया

सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी किंवदन्ती यह है कि सृष्टिकर्ता ने संसार की रचना के समय मनुष्य की विभिन्न प्रजातियों व समुदायों के लिए अलग-अलग स्थान निष्चित किये। सबसे पहले सहरिया की रचना की और उसे नियत स्थान अर्थात् पत्थर के पाटे पर बिचांे-बीच बैठा दिया। उसके बाद अन्य मनुष्यों का निर्माण किया उन्हें खाली स्थान पर बैठाया, मगर वे एक के बाद एक सहरिया को एक ओर खिसकाने लगे। सहरिया के बजाय अन्य सभी लोग चतुर व चालाक थे। खिसकते-खिसकते सहरिया पाटे के सिरे तक पहुंच गया। ईष्वर ने सबका निर्माण करने के बाद जब सहरिया से यह सवाल किया कि ’तुझको जब बीच में बैठाया था तो तू बगल में क्यों खिसकता गया?’ सहरिया ने कोई जवाब नहीं दिया। ईश्‍वर नाराज हुआ और उसने सहरिया को श्राप दिया कि ’तू अन्य मनुष्यों के साथ रहने लायक नहीं है और हमेशा जंगलो में अलग-थलग बसेगा’। खूंटीया नामक एक मिथक कथा यह पाई जाती है कि भगवान् ने पृथ्वी की रचना के बाद पहला गांव बसाया। उस गांव का खूंटा (चिह्नित करना) जिस आदमी ने गाढा वह सहरिया आदिवासियों का आदि पुरूष खूंटीया पटेल कहलाया।
तुलनात्मक दृष्टि से आधिकारिक प्रतीत होने वाली कथा इस प्रकार है कि पृथ्वी की रचना के बाद ईश्‍वर ने जल, वायु, अग्नि और वनस्पतियों की रचना की। सृष्टि रचयिता ने यह सोचा कि इन चीजों का उपयोग क्या है, तब उसने आदमी की उत्पत्ति की। आदमी एकल पुरूष था उसने कहा कि ’मुझे कोई साथी चाहिए।’ उसके आग्रह पर भगवान् ने स्त्री सृष्टि की। इसके बाद अन्य मानव समुदायों की रचना की। इसके बाद इस कथा में पूर्व पूर्वोक्त किंवदन्ती के अनुरूप अन्य मनुष्यों द्वारा सहरिया जोड़ा को मुख्य स्थान से एक कोने में खिसकाने की बात दौहराई गई है। कथा आगे इस प्रकार बढती है कि ईश्‍वर ने तत्पष्चात् सभी मनुष्यों में काम करने के लिए वस्तुओं का वितरण किया। किसी को हल दिया, किसी को पोथी, किसी को अन्य औजार आदि। सबको वस्तुओं का बटवारा करने के पश्चात् ईश्‍वर सन्तुष्ट होकर बैठा ही था कि उसकी दृष्टि सहरिया जोड़ा पर पड़ी जो चुपचाप एक कोने में सिमटा हुआ बैठा था। ईश्‍वर ने सोचा कि ऐसा सुस्त आदमी जीवनयापन कैसे करेगा। उसने सहरिया की परीक्षा लेने के आशय से कहा कि यह लम्बा चौड़ा जंगल है इसमें से कुछ भी खोज कर लाओ। सहरिया जंगल में से कन्दुरी नामक बेल के फल को ढूंढ लाया ईश्‍वर ने उस फल को चखा जो उसे अच्छा लगा। ईष्वर ने सहरिया को कहा कि तू कुछ नहीं कर पायेगा और जंगली कंद-मूल खाकर ही जीवन गुजारेगा। सहरिया मनुष्यों में प्रथम रचना थी। जंगल को सहरा भी कहा जाता है इसलिए उसका नाम सहरिया पड़ा।
सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर तथा सहरियाओं में प्रचलित एक मिथक कथा1 के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में महादेव ने धरती पर अन्न उपजाना चाहा। इसके लिए उन्होनें एक हल बनाया और अपने बैल नन्दी को उसमें जोता, परन्तु धरती पर घना जंगल था इसलिए धरती जोती नहीं जा सकी और अन्न नहीं उपजा। फिर महादेव ने मनुष्य की रचना की जिसका नाम सवर रखा। (रसेल व हीरालाल ने अपनी कृति में ’सहरिया’ संज्ञा का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन उनके द्वारा वर्णित बहुत सारी बातें सहरिया-किंवदन्तियों से मेल खाती हैं।) यही मनुष्य सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर या सहरिया के नाम से जाना गया। महादेव ने इस मनुष्य से जंगल साफ करवाया। जंगल साफ करने में जो मेहनत हुई, उसके बाद उसे भूख लगी। खाने को कुछ नहीं था तो उसने नन्दी को मारकर खा लिया। जब महादेव लौटे तो जंगल को साफ देखकर वे प्रसन्न हुए और सहरिया को जड़ी-बूटियों और अन्य कन्द-मूल आदि का ज्ञान दिया। लेकिन नन्दी को मरा हुआ देखकर उन्हें क्रोध आया। नन्दी को तो उन्होंने अभिमन्त्रित जल छिड़क कर जीवित कर दिया लेकिन सहरिया को श्राप दिया कि ’तुम हमेशा इसी तरह असभ्य बने रहोगे और जंगलों में भोजन के अभाव में जीवन बिताओगे।’
पूर्वोक्त मिथक कथाओं से यह प्रमाणित होता है कि सवर, सवरा, सओर, सहरा, सौंर तथा सहरिया आदिवासी एक प्राचीन मानव समाज है जिसका गहरा सम्बन्ध जंगलो, जड़ी-बूटियों और सामूहिक जीवन शैली से रहा है।

मीणा

प्राप्त जानकारी के अनुसार मीणा आदिवासियों के बीच सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी किंवदन्तियां एवं मिथक कथाएं प्रत्यक्ष रूप से नहीं पायी जाती। यह मान्यता प्रायः रही है कि वे स्वयं को विष्णु के मत्स्य अवतार से जोड़ते हैं। मीणा लोक में प्रचलित कथानुसार बदरीकाआश्रम में एक बार वैवस्वत मनु के घोर तप करते समय चारिणी नदी में स्नानोपरान्त एक छोटी मछली ने निवेदन किया कि ’हे भगवन मुझे इन बडे़-बडे़ मच्छों से बचाइये अन्यथा ये मुझे खा जायेंगे। आपके इस उपकार का मैं कभी अवश्‍य बदला चुकाऊंगी।’ मछली के निवेदन पर मनु को दया आ गई और उन्होंने उस मछली को एक चन्द्र-धवल घडे़ में डाल दिया। मनु की परवरिश में मछली बड़ी होने लगी। बड़ी होने पर मछली का उस घड़े में रहना मुष्किल होने लगा। तत्पष्चात् मछली ने मनु से पुनः निवेदन किया कि ’मुझे किसी बड़ी जगह पर रखने का कष्ट करें।’ इस बार मनु ने उसे दो योजन लम्बे तथा एक योजन चौड़े एक जलाशय में रख दिया। कुछ समय पश्चात मछली ने एक भारी मच्छ का रूप ले लिया। इस पर मछली ने फिर मनु से प्रार्थना की कि ’मुझे इस जलाशय में भी हिलने-डुलने में कठिनाई होती है; अतः मुझे समुद्र की पत्नी गंगा में छोड़ दें।’ मनु ने उसके कहे अनुसार ही किया किन्तु कुछ दिनांे पश्चात उसका गंगा में रहना भी मुष्किल हो गया। उसने एक बार फिर मनु से कहा कि ’यहँा भी मेरे लिए स्वच्छन्द विचरण करना कठिन हो रहा है; अतः मुझे समुद्र में डाल दिया जाये।’ मनु ने जब उसे समुद्र में डालने के लिए उठाया तो वह मच्छ इतना हल्का हो गया कि मनु ने उसे आसानी से उठा लिया।
वैदिक परम्परा विशेष रूप से वैष्णव अवधारणा के अनुरूप उक्त मिथक कथा मीणा आदिवासियों में प्रचलित रही है लेकिन यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि मीणा आदिवासी हैं और जब वे आदिवासी हैं तो वैदिक अर्थात आर्य मान्यताओं से उनका मूलतः कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। यह वैसा ही आत्मसातीकरण है जैसा कि प्रायः समाज के तथाकथित वर्गो या जातियों द्वारा अपनी उत्पत्ति के सूत्र तथाकथित उच्च वर्ण में प्रचलित सिद्धान्तों में तलाशना। स्पष्ट है कि जो आदिवासी हैं वे आर्य नहीं हो सकते। अतः मीणा आदिवासियों का विष्णु के मत्स्यावतार से कोई लेना-देना नहीं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीन काल में मीणा आदिवासियों का शासन वर्तमान राजस्थान के कई क्षत्रों में था जिनमें वर्तमान जयपुर का तत्कालीन ढूंढाड़ राज्य। मीणा राजाओं ने पूर्व मध्यकाल तक शासन किया तत्पष्चात् बाहर से आये राजपूतों से उनका संघर्ष हुआ और वे अन्ततः सत्ताच्युत हुए। सम्भव है उथल-पुथल के उस दौर में संस्कृति व धर्म के स्तर पर वे बाहर से प्रभावित हुए हों, चूंकि मध्यकाल से पहले उनकी धार्मिक आस्थाएं लोक देवताओं के साथ-साथ षिव व शक्ति से जुड़ी हुई तो प्रमाणित होती है लेकिन वैष्णव धर्म से नहीं। जहंा तक मत्स्य या मीन से मीणा आदिवासियों का सम्बन्ध है तो इस सम्बन्ध में यह स्थापना देना उचित होगा कि मत्स्य या मीन इन आदिवासियों का गणचिह्न रहा है जैसा कि वैदिक ग्रंथों में प्राप्त सन्दर्भों यथा मत्स्य गणराज्य तथा मोहन जो दड़ा में प्राप्त अवषेषों यथा मिट्टी की मुद्राओं पर मछली के चिह्न। आदिवासियों के गणचिह्नों के बारे में यह सच्चाई है कि जिस आदिवासी घटक का जो गणचिह्न होगा उसे वह घटक संरक्षित भी करेगा और साथ-साथ उसका उपयोग या उपभोग भी करेगा जैसे भीलों का गणचिह्न महुआ, नागों का नाग आदि।

रावत सारस्वत द्वारा रचित ’मीणा इतिहास’ में लेखक यह सिद्ध कर चुके हैं कि-

1. मीणा लोग सिन्धु सभ्यता के प्रोटो द्रविड़ लोग हैं जिनका गण चिह्न मीन (मछली)।
2. ये लोग आर्यो से पहिले ही भारत में बसे हुए थे और इनकी संस्कृति-सभ्यता काफी बढ़ी-चढ़ी थी। रक्षा के लिए ये दुर्गो का उपयोग करते थे।
3. धीरे-धीरे आर्यो तथा बाद की अन्य जातियों से खदेड़े जाने पर ये सिन्धु घाटी से हटकर ’आडावळा’ पर्वत-शृंखलाओं में जा बसे, जहां इनके थोक आज भी हैं।
4. संस्कृत में ’मीन’ शब्द की व्युत्पत्ति संदिग्ध होने के कारण इन्हें ’मीन’ के संस्कृत पर्याय ’मत्स्य’ से संबोधित किया जाने लगा, जब कि ये स्वयं अपने आपको ’मीना’ ही कहते रहे।
5. आर्यो से भी प्राचीनतर समझी जाने वाली तमिल संस्कृति में ’मीन’ शब्द मछली के लिए ही प्रयुक्त हुआ है, जिससे इन लोगो का तमिल साम्राज्य के समय में होना सिद्ध होता है।
6. सिंधु-घाटी सभ्यता के नाश तथा वेदों के संकलन के बीच का समय निष्चित नहीं होने के कारण ऐसा सम्भव हो सकता है कि पर्याप्त समय बीत जाने पर ’मीनो’ को वैदिक साहित्य में आर्य मान लिया गया हो, जहंा आर्य राजा-सुदास-के शत्रुओं में इनकी गिनती की गई है।
7. मत्स्यों का जो प्रदेश वेदों, ब्राह्मणों तथा अन्यान्य भारतीय ग्रन्थों में बताया गया है वहीं आज की मीणा जाति का प्रमुख स्थान होने के कारण आधुनिक मीणे ही प्राचीन मत्स्य रहे होंगे।
8. सीथियन, शक, क्षत्रप, हूण आदि के वंशज न होकर ये लोग आदिवासी ही हैं, जो भले ही कभी बाहर से आकर बसे हों, ठीक उसी तरह जिस तरह आर्य बाहर से आकर बसे हुए बताये जाते हैं।
9. स्वभाव से ही युद्धप्रिय होने और दुर्गम स्थलों में निवास करने के कारण यह जाति भूमि का स्वामित्व भोगने वाले शासक वर्ग में ही रही है।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

धर्म के स्तर पर भविष्य का बहतरीन विकल्प:

आदि धरम का मुद्दा आदिवासियों की अस्मिता और पहचान से जुड़ा हुआ है। जनगणना के दौरान उन्हें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या अन्य में डाल दिया जाता है। प्रथमतः, यह ‘अन्य‘ क्या है ? जो आदिवासी धर्मान्तरित नहीं होकर उनके मौलिक धर्म को मान रहे हैं ‍आने, जिन्हें सारना, सारि, संसारी, जाहेर, इत्यादि कई नाम से पहचाना जाता रहा हैं । उन्हें आदि धरम की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाता ? और जो धर्मान्तरित हैं वे भी पूरी तरह अपनी मौलिकता को नहीं छोड़ते। अगर वे परिवर्तित धर्म की तुलना में अपने मूल धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं व अनुष्ठानों को मानते हैं, तो क्यों न उन्‍हें भी ‘आदि धरम‘ की श्रेणी में माना जावे ? कुलमिलाकर इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है श्री रामदयाल मुण्डा की यह विचाराधीन कृति। ‘आदि धरम’ नामक इस पुस्तक की भूमिका में लेखक राम दयाल मुण्डा जी ने ठीक कहा है कि ’तथाकथित मुख्यधारा का आकर्षण भ्रांतिपूर्ण है। आदिवासी के लिए उसके अन्दर जाना अनंत काल के लिए गुलामी स्वीकार करना है।‘ धर्म के विभिन्न पक्षों को खोजने के लिए इस पुस्तक में लोक गीतों को प्रमुख आधार बनाया है। गीतों की मौलिकता सुरक्षित रहे इसलिए हिन्दी अनुवाद के साथ उन्हें लेखक ने अपनी मूल आदिभाषा मुण्डारी में भी प्रस्तुत करके अधिकारिक कार्य किया गया है। बहतर होता अगर आदिवासी लोक गीतों के साथ-साथ लोक किवदन्तियों, मिथकों, मिथक-कथाओं एवं अन्य संदर्भों को भी काम में लिया जाता। सृष्टि के बारे में हर अंचल के आदिवासियों के बीच कमोबेष एक जैसी मान्यता या कहें, मिथक चले आ रहे हैं। पहले जल ही जल था। ईष्वर ने मछली और केंकड़ा बनाया जो जलमग्न धरती को ऊपर लाये। फिर केंचुआ और कछुआ बनाया। फिर मानव भाई-बहन, जिन्हें बाद में पति-पत्नि का रूप दिया और अन्त में अन्य प्राणियों की रचना की। पंच महाभूतों की तरह आदिवासियों में भी सृष्टि के मूल तत्व मिटट्ी, पानी, हवा और ताप माने गये हैं। विश्‍व के सामने और विषेष रूप से हमारे देष के सामने आज ग्लोबल वार्मिंग एवं आंतकवाद और सबसे बड़ी चुनौतियां है। इस पुस्तक में इन समस्याओं के प्रति चिंता और आदि धरम के माध्यम से इनका समाधान सुझाया गया है। मुण्डा जी ने केवल झारखण्ड अंचल के आदिवासी मिथक का यहां जिक्र किया है। अन्य अंचल के आदिवासी मिथकों में सृष्टि-रचना के बारे में अलग-अलग तरह से कहा गया है। इस पुस्तक में मुण्डा जी ने पर्यावरण-संतुलन को लेकर एक उदाहरण दिया है, जो असुर आदिवासियों के औद्योगीकरण (शस्‍त्र निर्माण) और फलतः पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा जाने और ईश्‍वर (सिंगबोंगा) द्वारा दिन-रात के समय-चक्र का महत्व बताकर उन्हें रोकने से सम्बन्धित है। इस किंवदन्ती में शस्‍त्र निर्माण की फेक्ट्रियों में रात-दिन काम करने से तापमान में वृद्धि और विश्राम न करने से मनुष्यों की खोयी ऊर्जा की पुनःप्राप्ति न होने की समस्या का समाधान रात के महत्व को समझाकर किया गया है। एक रोचक कथा दिन-रात की रचना से सम्बन्धित है। कथा इस प्रकार है कि आदिवासी किसान द्वारा जंगली इलाके में झाड़-झखाड़ उखाड़ कर कृषि हेतु खेत तैयार किये जाते ईश्‍वर ने उससे खेत के बारे में पूछा और संवाद इस तरह चला-‘‘यह खेत कब तैयार किया ?’’’’आज ही,’’ मनुष्य ने कहा।’’और यह ? दूसरे खेत की ओर इशारा करते हुए परमेश्‍वर ने पूछा।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया। ’’और वो वाला ?’’ एक दूर खेत की ओर परमेश्‍वर इशारा कर रहा था।’’वह भी आज ही,’’ आदमी ने जवाब दिया।’’तो तुमने ये सारे खेत आज ही बनाए ?’’’’जी’’ईश्‍वर ने सोचा मैंने केवल दिनों की ही रचना की है। मनुष्य विश्राम कब करेगा एवं इसी तरह अन्य प्राणी भी। यह दशा देखकर ईश्‍वर ने विश्राम के लिए रात की रचना की। आदि धरम प्रकृति पर आधारित धर्म है और प्रकृति तत्व सारी पृथ्वी के लिए जीवनदायनी तत्व है। यहां कोई साम्प्रदायिक कट्टरता को स्थान नहीं। यह धर्म सभी मनुष्यों की धार्मिक आस्थाओं का आधार या केन्द्रीय तत्व बनने की क्षमता रखता है। इसको स्वीकार करने या इसकी ताकत को पहचानने से अन्य धर्मो में कट्टर होने के जो सम्भावित तत्व हैं उन्हें समाप्त किया जा सकेगा जो साम्प्रदायिकता से गुजर कर अन्ततः आंतकवाद को जन्म देते हैं। आदि धरम के अनुसार मृत्यु के बाद मनुष्य किसी परलोकी स्वर्ग-नर्क में न जाकर अपने ही घर में वापस आता है और अमूर्त शक्ति के रूप में घरवालों को प्रेरणा देता रहता है। अगर वह महान कर्म करने वाला व्यक्ति रहा होता है तो लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। आदि धरम के अनुष्ठान बहुत सरल हैं पुजारी उनका अपना होता है। उसे हिन्दू वेद-मन्त्रों को सीखने की आवश्‍यकता अनुष्ठानिक सामग्री घर-गाँव में उपजी या बनी होती है। सारे धार्मिक आयोजन सामूहिक सहभागीदारी पर आधारित होते हैं। समानता की भावना महत्वपूर्ण होती है। सारे धार्मिक अवसर सांस्कृतिक रूप लिए हुए होते हैं। भारत में संथाल आदिवासी जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक हैं जो झारखण्ड व बिहार में रहते हैं। लेखक ने विस्तार से संथाल सहित अंचल में रहने वाले अन्य आदिवासियों में था, मुण्डा हो आदि के धार्मिक पक्षों के बारे में बताया है। उनके प्रमुख पर्वो में सरहुल है जिसे उनका बसंतोत्सव (प्रकृति पर्व) कहा जा सकता है। दूसरा बडा़ त्यौहार करमा है जो कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। मवेशी पर्व के रूप में सोहराई और वर्ष के अंत में आखेट पर्व जिसे फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पर्व के दौरान किये जाने वाले सामूहिक शिकार का बंटवारा सारे गाँव में किया जाता है। जिन परिवारों में पुरूष या शारीरिक दृष्टि से सक्षम सदस्य नहीं होते उन घरों में भी शिकार को बाँटा किया जाता है। भेलवा पूजन खरीफ की फसल की बुआई के बाद अगस्त-सितम्बर में होता है जिसमें भेलवा वृक्ष की टहनियों को धान के खेत में बीच-बीच गाड़ा जाता है। वैज्ञानिक शोध से निष्कर्ष निकले हैं कि भेलवा पेड़ में कीटनाशक तत्वों का जबर्दस्त समावेश होता है जो फसल के लिए हितकारी है। आयुर्वेद में भेलवा का तेल एक शक्तिशाली कीटनाशक के रूप में जाना जाता है।झारखण्ड-आदिवासियों के धर्म को सरना, छत्तीसगढ़ गांव के धर्म को गोंड़ी राजस्थान-गुजरात-मध्‍यप्रदेश के भीलों के धर्म को भीली कहा जाता है। इन धर्मों का हिन्दू या किसी अन्य धर्म से कोई वास्ता नहीं। आदिवासी समुदायों के सभी धर्म मिलकर आदिवासी धर्म अर्थात, आदि धरम बनते हैं। भारत के प्रमुख धर्मावलम्बियों में हिन्दू व मुसलमानों के बाद तीसरा स्थान जनसंख्या की दृष्टि से आदिवासियों (दस करोड़) का आता है। फिर भी इस आदि धरम को पृथक धर्म की मान्यता नहीं दी गयी है। यह असन्तोष आदिवासी समाज के भीतर व्याप्त है। गत 30 जुलाई, 2009 के दिन आदिवासी धर्म परिषद के तत्वाधान में संसद भवन के समक्ष आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों ने धरना दिया। यह एक दिवसीय धरना पूर्व मंत्री तथा आदिवासी धरम परिषद के सहसंयोजक देव कुमार धान की अध्यक्षता में सम्पन्न किया गया। यह बात जोर देकर उठायी गयी कि आदि धरम को मान्यता न मिलने के कारण आदिवासी समाज अपनी धार्मिक पहचान खो रहा हैं। निर्णय लेते हुए आदि धरम कोड और 2011 की जनगणना में धर्म सम्बन्धी कॉलम में आदि धरम को शामिल करने की मांग की गई। यह भी ऐलान किया गया कि यदि ऐसा न किया गया तो फरवरी 2011 में संसद का घेराव किया जाएगा और देशभर में आन्दोलन चलाया जाएगा। धरने के उपरांत केन्द्रीय गृहमंत्री पी। चिदम्बरम् को ज्ञापन दिया गया। इस धरने में देश के आदिवासियों के विभिन्न संगठनों एवं कई गैर सरकारी संगठनों ने हिस्सा लिया। समाज का जो भी तबका किसी भी तरह वंचित रहा, अल्प-संख्यक रहा, वर्चस्ववादी व्यवस्था से पृथक रहा उसके लिए अपनी पहचान व अस्मिता का संकट हमेशा रहा है, लेकिन अलग-अलग रहने या जागृति के अभाव में स्वयं की पहचान एवं अस्मिता या कहें स्वत्व या मान का अहसास नहीं कर पाया, वह अनेक प्रकार के भौतिक एवं भावनात्मक दबावों और तज्जनित समझ की वजह से चेतने लगा है। आज अगर दलित अपना मौलिक धर्म (जैसे धर्मवीर के ’आजीवका’) तलाशने का प्रयत्न करता है, या स्त्री अपनी मौलिकता सृजन की महत्‍ता में खोजने लगी है और अन्य पिछड़े सामाजिक घटक भी अपनी पहचान के लिए कुछ न कुछ ’मौलिक’ ढूँढने का प्रयन्त करने लगे हैं तो आदिवासियों के ’आदि धरम’ की ही तरह इन सभी तबकों की संस्कृति, भाषा, साहित्य, अतीत का वर्चस्व आदि से जुड़े सवाल उठेंगे। ये सारे सवाल इन घटकों की पहचान और अस्मिता से ही अतंतः जुड़े सिद्व होंगे। जब आदिवासी धर्म, संस्कृति या धरोहर की बात चलती है तो यही पहचान और अस्मिता केन्द्र में दिखेगी और इस वैश्विक वर्चस्ववादी दोर में सारे मुद्दे जोर-शोर से उठने शुरू होगें, जो कि हो रहे हैं।श्री रामदयाल मुण्डा एवं सह लेखक श्री रतन सिंह मानकी का यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुस्तक की सीमा कही जा सकती है कि इसमें झारखण्ड अंचल विषेष को आधार बनाया है। दूसरे, केवल लोक गीतों को केन्द्र में रखकर आदि धरम के विभिन्न पक्षों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। फिर भी तृतीय, किसी भी धर्म पर जब चर्चा की जाती है तो धर्म के मूल के दर्शन, धार्मिक आस्थाएँ और आनुष्ठानिक क्रियाकलापों को शामिल किया जाता है। मुण्डा जी ने इस पुस्तक में सृष्टि सम्बंधी मिथकों के अलावा पर्व, अनुष्ठानों पर गीतों के माध्यम से ही अधिक ध्यान दिया है। इन तीनों पक्षों का अंचलातीत विस्तार होता तो निस्संदेह यह कृति आदि धर्म के विमर्श में अमूल्य अवदान देती। साहित्य के क्षेत्र में आदिवासी धर्म एक नया एवं विशिष्ट स्थान रखने वाला विषय है इसलिए इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने शोधपूर्ण अनूठा कार्य किया है और भावी लेखकों के लिए एक प्रेरणादायक पथ प्रशस्त किया है ताकि यह कार्य और आगे बढ़े तथा आदि धरम की पहचान से भावी मानवता का प्रस्तुति से बहतरीन तालमेल के धर्म-सूत्र हमें उपलब्ध हो सके। राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन ने इस पुस्तक को छापा है इसलिए इस बारे में कुछ कहने की आवश्य‍कता नहीं है। अगर कीमत तय करते वक्त व्यावसायिकता को थोड़ी कम तवज्जो दी होती तो पाठकों की संख्या में विस्तार की सम्भावना को अधिक अवसर मिलता। निश्चित रूप से यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो पठनीय और संग्रहणीय है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

पालचित्‍तरिया - यात्रा संस्मरण का शेष भाग

रास्ते में चलते हुए डी]एस ने मुझे बताया कि हूर जी जिनकी कब्र हम देख कर आये हैं] वे एमबीसी में सूबेदार मेजर थे। हूर जी] ¼सूर जी-बागड़ी में ‘'स’ को ‘'ह’ उच्चारित किया जाता है) नवीन भाई के दादा थे। पालचित्‍तरिया काण्ड में उन्होंने फौज की एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था। वे पालचित्‍तरिया के ही रहने वाले थे। गोलीकाण्ड के बाद उन्होंने सपरिवार गाँव छोड़ दिया और उनका कुटुम्ब-परिवार तब से इस गाँव में रहता है। गाँव छोड़ने के पीछे यह आशंका थी कि मृतकों के परिजन और इलाके के आदिवासी बदले की भावना से हूरजी व उनके परिवार को जान से मार देंगे। अब मेरी समझ में आया कि पालचित्‍तरिया का नाम सुनते ही नवीन भाई के चेहरे पर लज्जा के भाव क्यों उभरे थे और क्यों वे पालचित्‍तरिया चलने से आनाकानी कर रहे थे। ध्यातव्य है कि पालचित्‍तरिया में ‘बहादुरी दिखाने के एवज में सूबेदार मेजर हूरजी को अंग्रेज हुकूमत ने ‘राय बहादुर के खिताब से नवाजा था। हूरजी निनामा गौत्र के आदिवासी थे और सुन्दरा में डामोर खांप के आदिवासी रहते आये हैं। जब हूरजी का परिवार व अन्य कुटुम्बीजन पालचित्‍तरिया से पलायन कर इधर से निकल रहे थे तो सुन्दरा के आदिवासियों ने उन्हें रोक लिया और अपने गाँव में उन्हें शरण दी। कहते हैं, हूरजी ने सुन्दरा गाँव व अन्यत्र भी सेवानिवृति के बाद यह स्पष्टीकरण क्षमायाचना के साथ दिया बताया कि ‘वह फौज में नौकर था। जहाँ कमाण्डेंट का हुकुम मिला, वहां कार्यवाही की। पालचित्‍तरिया में ऐसा होगा इसका उसे इल्म नहीं था। हूरजी के इस तर्क में यद्यपि कोई दम नहीं था किन्तु कहा नहीं जा सकता कि आदिवासियों ने इस तर्क को किस रूप में स्वीकार किया। हूरजी की चर्चा करते हुए अब हम छाणी गाँव पहुँच गये थे। यह बड़ा गाँव है। मिश्रित जातियों की आबादी का कुछ विकसित सा गाँव। मगर आदिवासी गाँव में नहीं रहते। वे तो एकल झोंपडियों में ही बसते हैं और वह भी दूर-दूर टेकरियों पर। छाणी के स्कूल से नीली-खाकी ड्रेस में बच्चे छुट्टी के बाद निकलते हुए मिले। राह में इधर से उधर आती-जाती सवारियों से ओवर क्राउडेड कई जीप मिलीं। तनिक भी संतुलन बिगड़ा कि भयंकर दुर्घटना की पूरी-पूरी संभावना। एक जुलाई को हुई व्यापक बरसात के बाद खेतों में फसल की बुआई की गयी थी। प्रमुख रूप से मक्की की फसल। अभी पौधे बाहर नहीं निकले थे। भीतर ही भीतर जमीन में अंकुरा रहे होंगे। छोटे-छोटे आकार के खेतों में काली और चिकनी मिट्टी। पहाड़ी क्षेत्र में झाड़-झंखाड़ को साफ कर तैयार किये गये ये खेत थे। कृषि-योग्य भूमि का एकदम टोटा। ठिगनी कद-काठी वाले सांवले रंग के आदिवासियों के भीतर अकूत जीवट होता है और इसी तरह इनके छोटे-छोटे क्षेत्रफल वाले खेत भी खूब फलते हैं चूँकि गुजारा तो आखिर इन्हीं से करना है। वनोपज पर इस वर्तमान में आदिवासियों के पुश्तैनी हक-हकूक अब कहाँ। सड़क के दोनों ओर परदेशी आकड़ा और पुश्तैनी थूर के आदमकद पौधे और कुंज। आगे आता है नया गाँव। छोटा कस्बा कह सकते हैं इसे। यहीं स्कूल में शारदा डामोर पढ़ाती है। डी.एस. के संगठन में उसने भी पहले काम किया है। अब तो वह अच्छी गृहणी बन गयी है। डी. एस. उसके सम्पर्क में रहे है। यहां पहुँचते-पहुँचते हमे साढे बारह बज गये थे। स्कूलों की छुट्टियां थोड़ी देर पहले हुई है। डी. एस. शारदा का पता लगाने स्कूल में गये। वह थोड़ी देर में वापस आये और बताया कि ‘‘हम थोड़ा लेट हो गये। वह आधा घण्टा पहले स्कूल से निकल गयी। किसी जीप में बैठकर अपने ससुराल गयी होगी। आप जानते नहीं, उसकी ससुराल चित्तरिया में ही है जहाँ हम जा रहे हैं। वह बहुत होशियार लड़की है। खैर, अब तो घर-गृहस्थी संभालने वाली महिला है। वह हमें वहीं मिल जायेगी। पालचित्‍तरिया में हमें उसके मिल जाने से काफी सुविधा रहेगी। ‘‘ओ. के. , चलो, चलते हैं। -मैनें डी. एस. की बात पर इतना ही कहा। हमारी इण्डिका कार के आगे-आगे एक जीप में कोई तीन दर्जन सवारियां चढ़ी हुई थी। इनमें से दर्जन भर मुश्किल से बैठी होंगी शेष तो लटकने या लद्द-पद्द स्थिति में थी। ‘‘देखो डी.एस., हमारे आगे यह भारत चल रहा है और हम इस समय इण्डिया को बिलाँग कर रहे हैं। - डी. एस. को मेरी साधारण सी बात पहेली लगी। उन्होंने पूछा -‘‘मैं समझा नहीं, भारत और इण्डिया से आपका क्या आशय है। ‘‘देखो भाई, वी आर लिविंग इन टू कंट्रीज इन वन नेशन। वन इज इण्डिया एण्ड अनादर इज भारत। अब इसे यूं समझिये कि हम इण्डिका कार में ड्राईवर सहित तीन प्राणी हैं और इस आगे चल रही जीप की केपेसिटी मुश्किल से नौ सवारियों की है मगर इसमें बैठे हैं करीब तीन दर्जन जीव। तो इण्डिया वालों के लिए स्कोप बहुत हैं और भारत वालों के लिए मामला कुछ ओवर क्राउडेड। क्यूँ है कि नहीं। मेरी विचारणा पर डी. एस. जोर से हँसे। यह बात राजू ने भी सुनी। वह सिर्फ मुस्कुराया। डी. एस. ने कहा - ‘‘बॉस मान गये। ‘हाय अमरीका, वाह अमरीका तो इण्डिया वालों का नारा है और भारतवाले वहीं के वहीं। ‘‘हाँ, तो मैं यही तो कहना चाहता हूँ कि वह जो निजीकरण, वैश्वीकरण बाजारवाद, विज्ञापनवाद, मॉडल्स, पाश्चात्य जीवन शैली, स्पीड मनी, फास्ट लाइफ, मॉडर्निटी आदि सब क्या और किसके लिए है। कुल मिलाकर पूँजी, वर्चस्व, और स्पीड, जिसमें मूल्य-प्रणाली को कोई तवज्जो नहीं। संस्कृति का स्थान अपसंस्कृति ने ले लिया है। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि यह जो सब कुछ जैसा हो रहा है, इसमें आम आदमी कहाँ हैं, उसके सरोकारों से किसे क्या वास्ता है, और मीडिया इस सबका वाहक है। ‘‘हाई-टेक मामला है। कंधे उचकाने और कूल्हे मटकाने वालों का जमाना है। भू-मण्डलीकरण के इस दौर में ऐसी ही पीढी फिट हो पायेगी। भारतवाले तो यों ही भीड़ की तरह मरते-खपते रहेंगे। ‘‘डी. एस., मेरा मतलब हाई-टेक को नकारना नहीं है और न ही प्रोग्रेसिव इण्डिया की राह में रोड़े अटकाना, अगर वह सम्पूर्ण देश, जिसमें उक्त भारत भी हो, को रिप्रजेंट करें तो। प्रोग्रेसिव का अर्थ एक वर्ग का वर्चस्व और प्रभुत्व नहीं, प्रत्युत् समस्त राष्ट्र का विकास है। अब जो मैं कह रहा था-इण्डिया एवं भारत के बारे में, तो इन दोनों में तालमेल कैसे हो, यह प्रश्न मेरे दिमाग में है। ‘‘मीणा जी, आप ठीक कह रहे हैं। अब तो कोरपोरेट जगत का जमाना है। एग्रो-सेक्टर भी मल्टीनेशनल्स को दिया जाने वाला है। महानगरों में ‘सेफ इकॉनोमिक जोन आम आदमी से कोई ताल्लुक नहीं रखता। फिर दूर-दराज इन जंगलों में पडे़ आदिवासियों का क्या होगा। ‘‘इन्हें मुख्यधारा में आना ही होगा। ‘‘मुख्यधारा का मतबल है कि यह रोजाना की पगार पर निर्भर रहेंगे। शहरों की ओर पलायन करेंगे। काम न मिला तो भीख मांगेंगे। ‘‘नहीं, आदिवासी भीख नहीं मांग सकते। ‘‘जंगलों से बेदखल होकर और क्या करेंगे। ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है। प्रागैतिहासिक काल में तो दुनियां के सभी लोग आदिमानव थे। जब उनके अधिकांश वंशज विकसित हो गये तो आदिवासियों को अपनी खोल से बाहर क्यों नहीं आना चाहिए। इस दरम्यान उदयपुर जिले का सीमान्त पुलिस थाना मुख्यालय का कस्बा पहाड़ा और उसके आगे के गाँव थाणा, आडीवली एवं राणी हमने पार कर लिए। राजस्थान व गुजरात की वाणिज्यिक चैक पोस्ट आ गयी। यहाँ से ईडर साठ कि.मी. था। चैक पोस्ट के कर्मचारियों से पूछने पर पता चला कि चार कि. मी. आगे बायीं तरफ मुड़ने के बाद पालचिंत्‍तरिया आयेगा। यहीं से शुरू हो जाता है-सागोन का जंगल। सागोन के पेड़ों पर बौर आये हुए थे। बीच-बीच में जंगली आकड़ा, टिमरू, तेंदू, खजूर, पलाश, रतनजोत और अन्य पेड़-पौधे नजर आ रहे थे। ‘‘चैक पोस्ट पर बताये अनुसार तिराहे पर हम पहुँचे। वहाँ एक बुजुर्ग बैठा हुआ था। हम कहीं गलत रास्ते न चले जायें, इसलिए डी. एस. ने उस बुजुर्ग से पूछा-‘‘बाबा, केम छो। पालचित्‍तरिया का रास्ता क्या यही है। ‘‘ हाँ, यही है। ‘‘ कितना दूर। ‘‘ बस कोई छः मील के आसपास। ‘‘ अच्छा, शुक्रिया। आदिवासीयों की छितरी-बिखरी बस्ती बालेटा से निकलते ही समतल इलाका दिखायी दिया। सड़क के किनारे रोपे हुए प्रस्‍तर-पट्ट पर लिखा हुआ था - कोडियावाड़ा 2 कि.मी.। ‘‘बॉस, आप देखना कि जहाँ भी समतलीय भू-क्षेत्र होगा, वहाँ गैर आदिवासियों की बसावट मिलेगी और पक्के मकान होंगे। अब आगे जो समतलीय और खेती-बाड़ी की दृष्टि से जो उपजाऊ इलाका दिख रहा है, निश्चित रूप से गैर आदिवासी किसान, जैसे पटेल या फिर व्यापार व नौकरी-पेशा से जुड़े ब्राह्मण-बनियों की बस्ती होगी। ‘‘चलो देखते हैं,- इन पलों में मेरा मन कहीं और खो गया था इसलिए डी.एस. की बात पर एक औपचारिक सी प्रतिक्रिया की। अब हम कोडियावाड़ा में पहुँच चुके थे। जैसा मैंने बताया, कोडियावाड़ा दूर से ही समतल भू-भाग में बसा हुआ सम्पन्न-सा दिखने वाला गाँव था। गाँव में आकर देखा तो बड़े-बड़े पक्के मकान और पिछवाड़ों में मवेशीखाने बने हुए थे। पूछने पर पता लगा कि वाकई यह पटेलों का गाँव था। कुछ आबादी ब्राह्मण-बनियों की भी थी। पटेल एक किसान कौम है, जो कृषि कार्य में काफी निपुण मानी जाती है। एक मकान के बरामदे में बैठे हुए व्यक्ति से हमने पालचित्तरिया के बारे में पूछा। उसी ने हमें बताया कि यहां मुख्य रूप से पटेल लोग रहते हैं। ‘‘आगे रास्ता खराब है। यूं तो पक्की सड़क पालचित्तरिया तक बनी हुई है लेकिन वह जगह-जगह टूटी हुई है। जीप जैसी मजबूत गाड़ी जा सकती है। आपकी यह कार तो आगे पार नहीं पटकेगी -उस व्यक्ति ने हमे बताया। ‘‘गाड़ी हम यहीं खड़ी कर देते है। रास्ता दिखाने के लिए आप हमें कोई आदमी साथ दे सकें तो हमें सुविधा होगी, -मैंने उस व्यक्ति से आग्रह किया और हमारा परिचय भी दिया। उस व्यक्ति का नाम छगन भाई पटेल था। उसने अपने हाली सोमा भाई को हमारे साथ कर दिया। सोमा भाई बालोटा का आदिवासी है। राजू और गाड़ी को छगन भाई पटेल के घर छोड़कर हम पैदल-पैदल आगे चल दिये। गाड़ी के लिए रास्ता वास्तव में खराब था। ‘‘सोमा भाई, तुम इस पटेल के घर में कब से काम करते हो और यह तुम्हें क्या पगार देता है। -डी. एस. ने पूछा। ‘‘मेरा बाप इसके यहां काम करता था। हमारे पास दो खेत थे। बैलों के लिए पटेल से मेरे बाप ने कुछ कर्जा लिया था, जिसे वह चुका नहीं पाया। ब्याज की वजह से कर्जा बढ़ता गया और बैल भी बेचने पड़े। खेत पटेल के गिरवी रखा हुआ है। मेरे बाप की मौत के बाद मैं इसके यहां हाली का काम करता हूँ। मेरे ऊपर इसका कर्जा अभी भी है। अन्न और कपड़ों के अलावा पटेल मुझे छः हजार रूपये सालाना देता है। मेरी औरत टी.बी. की बीमार है। बच्चे अभी छोटे हैं। मैं ही अकेला घर में कमाऊ आदमी हूँ। ‘‘जब तुम्हें छः हजार रूपये सालाना मिलते हैं तो कर्जा क्यों नहीं चुकता। मैंने पूछा। ‘‘छः हजार में से दो हजार मैं घर-खर्च के लिए रखता हूँ। शेष कर्जे के एवज में पटेल रख लेता है। जब भी पूछता हूँ तो पटेल यही कहता है कि जब कर्जा चुकता हो जाएगा तो मैं बता दूँगा।’’ हमने सोमा भाई की माली हालत जानकर इस प्रसंग को यहीं छोड़ा। शायद यह प्रसंग और कुछ देर चलता लेकिन डी. एस. ने रास्ते के दोनों ओर उगी हुई बटी, कुरी और कोदरा की घास को देखकर कहा, - ‘‘मीणा जी, यह बटी है और वो कुरी और यह देखो, कोदरा है। इन घासों के दानें ही आदिवासियों का मूल-भोजन हुआ करता था। मक्की तो बहुत बाद में आयी। ‘‘कब, मैंने जिज्ञासा जाहिर की। ‘‘कोई चार-पाँच सौ बरस पहले और वह भी मेक्सिको से। ‘‘क्यों भाई सोमा जी, आप बताइये क्या ये मेरे मित्र सही कह रहे हैं। मैंने सोमा जी का मत जानना चाहा। सोमा भाई ने इस सम्बन्ध में पूरी लाइलमी जाहिर की। हम तीनों आगे का रास्ता नाप रहे थे। मैं और डी. एस. पालीवाल खुश थे। हमें सन्तोष था कि आखिर हम पालचित्तरिया से बहुत दूर नहीं है। पिछले चार बरसों से तो मैं और डी. एस. दोनों पालचित्तरिया का कार्यक्रम बनाते रहे पर निकलने का संयोग ही नहीं बैठा। इस बार मैं तो निकल पड़ा लेकिन डी. एस. जरूरी काम छोड़कर मेरे साथ आने को राजी हुये थे। खैर, जस तस हम पालचित्तरिया की राह पर थे। ‘‘बॉस, आपने एक बात पर गौर किया होगा, वह यह कि हमने यात्रा के दौरान जितनी भी बस्तियां, देखी उनमें जो गाँव या छोटे कस्बे देखे या बड़े शहरों की भी बात की जा सकती है कि गैर आदिवासी लोगों के मकान बंद किस्म के मिलेंगे। उनके सदर दरवाजा होगा। उसमें फाटक होगा। दोनो तरफ बाउण्ड्री होगी। यह सब सुरक्षा की दृष्टि से किया जाता है और आदिवासियों के घर देखें तो अलग-अलग दूर-दूर टेकरियों पर झोंपड़ीनुमा बने होते हैं। खुले-खुले होते है ना। ‘‘यह तो ठीक है पर आदिवासियों की झोंपड़ियों के इर्द-गिर्द भी बाड़बंदी तो होती ही है चाहे थूर या कांटेदार झाड़ियों की ही हो। ‘‘मै बन्द और खुलेपन के अन्तर की बात कर रहा हूँ। ‘‘इस विषयक एक किस्सा सुनाता हूँ। ध्यान देना डी. एस.। तीनेक साल पहले मैंने ‘जनसत्ता‘ में एक खबर पढ़ी थी कि मध्यप्रदेश सरकार ने झाबुआ अंचल में किसी जगह इन्दिरा आवास योजना के तहत आदिवासियों के लिए कुछ पक्के मकान बनाना चाहा। आदिवासियों ने इसका विरोध किया। पुलिस बल की मौजूदगी में वहां पक्के मकान बना दिये गये। उस दौरान डर के कारण आदिवासी अपने घरों से दूर जंगल में रहे। झोंपड़ियों की तरह मकान दूर-दूर न बनाये जाकर चिपते हुए बनाये गये थे। जब सरकारी लवाजमा मकान बनाकर, यह सोचकर वापस चला गया कि आदिवासी अब अपनी झोंपड़ियां छोड़कर इन मकानों में रहने लगेंगे। लेकिन हुआ उल्टा। आदिवासी आये और पक्के मकानों को ध्वस्त किया और पूर्ववत् अपनी झोंपड़ियों में ही रहने लग गये। ‘‘वाह, क्या खूब किस्सा आपने सुनाया। मतलब कि रहेंगे, ‘वैसे ही, जैसे रहते आये है। ‘‘डी. एस., बात यह नहीं है। दरअसल किसी भी किस्म के परिवर्तन के लिये सम्बन्धित मानव-समुदाय को लाभ-हानि बताकर विश्वास में लेना चाहिए। प्रश्न यह नहीं है कि आदिवासीजन कच्ची झोंपड़ियों में पक्के मकानों की बनिस्पत सुविधा से रहते हैं। समस्या यह है कि ‘ब्रिटिश-काल से आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकारों को छीनने का सिलसिला चालू हुआ। उनके क्षेत्रों में अन्य प्रकार की दखल भी आरम्भ हुई। उनके लिए स्वायत्‍तता महत्वपूर्ण रही है, जिसे छीना गया। यही वजह रही कि कहीं के भी आदिवासी समूहों को देख लो, वे गैरआदिवासी मानव-समाज के प्रति ‘हॉस्टाइल एटीट्यूड रखते हैं। ‘‘मैं समझता हूं, अगर क्षतिपूर्ति होती है और वह भी थोड़ी-बहुत बेहतर तो शायद उनकी शत्रुवत् मानसिकता की पैदा होने की स्थिति नहीं बने । एक बात बताओ, कौन इन्सान जानबूझ कर बेहतर सुख-सुविधाओं वाला जीवन नहीं जीना चाहेगा। आप उसकी साइकोलॉजी को तो समझने का प्रयास करो। डी.एस. ने मेरी बात से सहमति जताई। ‘‘क्यूँ भाई सोमा जी, अगर तुम्हें पक्का मकान दिया जाये, अच्छी चारपाई दी जाये, कीमती सामान रखने के लिए लोहे का बक्सा दिया जाये, चलने के लिए साइकिल दी जाये, बरसात से बचने के लिए छाता दिया जाये, बीमारी के इलाज के लिए तुम्हारे आसपास अस्पताल हो, बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कूल हो- और भी बहुत सारी सुख-सुविधाएं हो तो क्या तुम इनका लाभ नहीं लेना चाहोगे या इन्हें छोड़कर जंगल में भाग जाओगे, जहाँ सब कुछ असुरक्षित और अनिश्चित है। मैंने सोमा भाई की ओर मुखातिब होकर पूछा। इस पर सोमा भाई ने जोर देकर हाँ भरी कि अरे साहब, ये सब मिले तो हमारे लिए स्वर्ग है। ‘‘यही पालचचित्‍तरिया है। अब मैं वापस जाऊँ। सोमा भाई ने हमसे पूछा। ‘‘हाँ, आप जाओ सोमा जी। आपने हमें यहाँ तक पहुँचाया, आपका धन्यवाद मैने सोमा भाई का आभार व्यक्त किया। मैने और डी.एस. ने उससे हाथ मिलाये और अलविदा कह हम पालचचित्‍तरिया गाँव में घुसे। पथरीली ऊबड़-खाबड़ जमीन पर बसा हुआ चित्‍तरिया गाँव। अब तो यह बड़ी आबादी का गाँव है। करीब डेढ़ हजार घरों की बस्ती, जिसमें एक हजार से अधिक परिवार आदिवासियों के हैं, जिनमें निनामा, कटारा, डामोर, धोगरा, बलेविया और बारोट खांप के आदिवासी शामिल हैं। शेष आबादी ब्राह्मण, बनियों और पटेलों की हैं। विकास की ओर बढ़ता हुआ मिश्रित जनसंख्या का चित्‍तरिया गाँव, जिसमें सीनियर हाई स्कूल है। पूछते-पूछते हम पहुंचे सरपंच कावा जी के घर के पास। उनकी पत्नी ने बताया कि ‘‘ वे बाहर गये हैं, दो-एक दिन में वापस आयेगे। आपको कोई काम हो तो उनके छोटे भाई से मिल लो। उसने बगल के मकान की ओर इशारा किया, जिसमें उसके देवर रमेश भाई रहते हैं। हम उस मकान में गये, जहाँ रमेश भाई मिले। उन्होंने एक चारपाई एवं दो कुर्सियां बाहर आंगन में बिछा दी। धूप में तेजी थी। नीम के पेड़ की छाँह में कुर्सी खींचकर मैं व डी.एस. बैठ गये। इतने मे ही रमेश भाई लोटे में पानी भर कर लाये। हमने पानी पिया और रमेश भाई को कहा कि वे और तकल्लुफ न करे। चारपाई पर बैठ गये। ‘‘रमेश भाई, आपको पता है, आज से करीब अस्सी-पिचासी साल पहले आपके गाँव में एक हादसा हुआ था, जिसमें फौजों ने काफी तादाद में आदिवासियों का संहार किया था। हम इसी सिलसिले में कुछ जानकारी एकत्रित करने यहाँ आये हैं। आप इसमें हमारी मदद कीजिये और वह स्थल बताइये, जहाँ यह घटना घटित हुई, मैंने बात की शुरूआत इस प्रकार की। ‘‘ जगह तो मैं आप को दोनों ही बता दूँगा, लेकिन .............. रमेश भाई आगे कुछ और कहना चाह रहे थे। मैंने बीच में उन्हें टोका- दोनों से आपका तात्पर्य, जबकि घटना तो एक ही हुई है ना। ‘‘ अजी, आप ठीक कह रहे हैं। घटना तो एक ही हुई बतायी, ऐसा सबने सुना है लेकिन हुआ क्या कि मुख्यमन्त्री नरेन्द्र भाई मोदी ने जिस जगह पर शहीद स्मारक का उद्घाटन किया, वह तो पाल क्षेत्र है, जहाँ पठार है और असल जगह उससे करीब आधा कि.मी. दूर लक्षमणपुरा का दड़वाह है, जहाँ पटेलों के खेत है। असली जगह की पहचान बनी रहे, इसीलिए उद्घाटन के कुछ दिनों बाद कांग्रेसी नेताओं ने वहाँ एक शहीद-दीवार बनवा दी। ‘‘ यह तो बड़ा आश्‍चर्यजनक है कि एक तो असली जगह पर शहीद स्मारक नहीं बनाया और दूसरे, इसमें भी राजनीति घुस गयी -डी.एस.पालीवाल ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। ‘‘ऐसा करते हंै, पहले दोनों ही स्थलों को देखते है। -मैंने उन क्षणों के इस विवाद पर और अधिक बातें वहाँ नहीं करना उचित समझते हुए कहा और कुर्सी से उठ गया । डी.एस भी खड़ा हो गये। ‘‘मै अभी आता हूँ । सुरेश भाई एक रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं, उन्हें इस विषय में काफी जानकारी है। उन्होंने कागजों में कुछ टीप भी रखा है। मैं उनका पता करता हूं - कहकर रमेश भाई घर के अन्दर चले गये। लोहे की जालियों से बंद किए हुए बरामदे में जाकर उन्होंने फोन किया। उन्होंने आकर बताया कि ‘‘मैंने काफी कोशिश की लेकिन सुरेश भाई के घर पर फोन की घंटी बजती रही और किसी ने फोन उठाया ही नहीं। अगर वे साथ होते तो अच्छा होता। हमने तय किया कि पहले घटना का स्थल देख लेते हैं और उसके बाद कोशिश करते हैं, सुरेश भाई व अन्य बुजुर्गों और घटना की जानकारी रखने वाले लोगों से मिलने की। रमेश भाई स्वयं पढ़े लिखे हैं। वे रिटायर्ड अध्यापक हैं, उनका सहयोगी व्यवहार हमें अच्छा लगा। उनका एवं उनके भाई सरपंच कावाजी के मकान गाँव की मुख्य आबादी से बाहर हैं। हम तीनों वहाँ से गाँव की बगल-बगल खेतों व ऊबड़-खाबड़ जमीन पर चलते हुए पठार पर पहुँचे। पठार नंगा नहीं था। बीच-बीच में काफी वृक्ष थे। वन विभाग द्वारा नये पौधे भी उगाये हुए थे। दिन का तीसरा पहर ढल गया था मगर सूरज छिपने में अभी काफी वक्त था। चित्‍तरिया से भिलोड़ा जाने वाले सड़क पर हम पहुँच गये। बारिश की वजह से सड़क खराब थी लेकिन जीप जैसे वाहन चल सकते थे। हमने तो खैर, हमारी कार कोडियावाड़ा में ही छोड़ दी थी चूँकि वहाँ से आगे चलना मुश्किल था। इस मार्ग के बाईं ओर रमेश भाई मुड़े और हमें बोले, इधर आओ। रमेश भाई ने बगीचेनुमा हरियाली से समृद्ध उस जगह के बाहर लगे हुए लोहे के फाटक की कुंडी को खोला और लोहे के दरवाजे को अन्दर की ओर घकेलते हुए भीतर प्रवेष किया। हम उनके पीछे थे। इस स्थल के सड़क की ओर कांटेदार तारों से बाड़ की हुई थी। अन्दर घुसते ही सामने शहीद-स्मारक नजर आया। पत्थरों के आधार पर रोपा हुआ ग्रेनाइट का स्मारक पट्ट। स्मारक स्थल के बाईं ओर से बच्चों की आवाजें आ रही थी। ठीक पाँच बजे का समय था। दरअसल जहाँ से आवाज आ रही थी, वहाँ प्राइमरी स्कूल है। छात्रों की छुट्टी इस समय हुई थी। रमेश भाई ने पूछने पर बताया कि गुजरात में स्कूलों का समय प्रातः 10 बजे से सायं 5 बजे तक का है। यह प्रसंग इसलिए आया कि चित्‍तरिया में ब्याही शारदा डामोर राजस्थान के सीमांत गाँव-नया गाँव में अध्‍यापिका है और उसके स्कूल की छुट्टी दोपहर में हो गयी थी। कुछ देर स्मारक स्थल को निहारने के बाद हम बाहर निकले। रमेश भाई ने स्थल का फाटक वापस बंद किया। जैसा मैंने ऊपर बताया, बगीचेनुमा स्मारक स्थल में प्रमुख रूप से आम, महुआ, सागोन, यूक्लीप्टस, जिसे यहाँ नीलगिरी और आकाशा भी कहते हैं, बरगद व इमली के दरख्त दिखायी दे रहे थे। अन्य कई किस्म की वनस्पतियां व पौधे भी वहाँ उगे हुए थे। स्थल से बाहर आते ही रमेश भाई ने हाथ से इशारा करते हुए बताया कि ‘‘ वो लक्षमणपुरा का दड़बाह है। जिधर रमेश भाई ने बताया, वहाँ एक गाँव है- लक्षमणपुरा। करीब आधा कि. मी.। वह क्षेत्र समतलीय जमीन लग रहा था। हमें एक और आदमी स्मारक स्थल के बाहर मिल गया। वह लक्ष्मणपुरा का ही रहने वाला था। रमेश भाई और हम अजनबियों को देखकर वह रूक गया था। वह चित्‍तरिया से अपने गाँव ही जा रहा था। परिचय करने के बाद वह भी हमारे साथ हो लिया। थोड़ी देर में हम दड़बाह पहुँच गये। सड़क के दाहिनी ओर काफी निचाई में समतल भूमि पर बसा हुआ लक्ष्मणपुरा सामने दिख रहा था। बीच में खेत थे, जिनमें हाल ही बोई फसल के नन्हे-नन्हे पौधे उगे हुए थे। प्रमुख रूप से इस फसल में मक्का, ग्वार, मूंग और तिल बोये गये थे। जो नया आदमी हमें मिला, उसका नाम शंकर भाई था। वह भी आदिवासी ही था। ‘‘असल जगह यह है- रमेश भाई ने सामने के खेतों की ओर संकेत करते हुए बताया। एक खेत के पास एक कमरा बना हुआ था। वहाँ ट्यूबवैल भी था। पास ही वह दीवार खड़ी थी, जिसका जिक्र रमेश भाई ने पहले किया था। ‘‘वास्तविक जगह यह है, जहाँ कांग्रेसियों ने शहीदों की स्मृति में दीवार बनायी। ‘‘हाँ, यही वो जगह बताई जाती है, जहाँ मिनख-मराई हुई थी- अनपढ़ शंकर भाई ने रमेश भाई की बात का जोर देकर समर्थन किया। ‘‘सुना है, कुछ कुए भी चिन्हित किए बताये, जिनमें लाशों को पटक कर मिट्टी से रपेट दिया गया था। डी. एस. पालीवाल ने जिज्ञासा जाहिर की। ‘‘देखिये, अब से बहुत अर्सा पहले कुए बराबर कर दिए गये थे। अब उनका कोई पता नहीं। वह दीवार, जो कांग्रेस के नेता अमरसिंह चैधरी ने कहकर बनवायी थी और नरेन्द्र मोदी द्वारा किये गये स्मारक-उद्घाटन से एक महीना बाद ही बनवायी थी, उसके पास के खेत में एक कुआं था। वह कुआं काफी बरसों पहले मिट्टी से भर दिया गया था। ‘‘तो क्या उसे खोदने से उसके भीतर मानव-अस्थियां मिलने की संभावना है, मैंने पूछा। ‘‘यह नहीं कहा जा सकता। रमेश भाई ने ही जवाब दिया। शंकर भाई जाँच-पड़ताल के इन क्षणों तक चुप हो गया और कुछ चिन्तित सा भी दिखाई दिया। ‘‘लक्ष्मणपुरा चलें, लोगों से बात करते हैं, डी. एस. ने प्रस्ताव रखा। मैंने सोचा प्रस्ताव क्या, जब यहां तक आ गये तो लक्ष्मणपुरा हमें जाना ही था ‘‘मैं चलता हूँ। शंकर भाई हमें बोलकर वहाँ से चल दिया। रमेश भाई ने उसके जाने के बाद हमें बताया कि ‘‘लक्षमणपुरा का कोई आदमी हमें कुओं के बारे में कुछ भी नहीं बताता है। कुएं तो यहाँ दर्जन भर बताये जाते हैं, जिनमें लाशों को डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी गई थी ताकि कोई नामोनिशान शेष न रहे। यह कुएं पटेलों के थे और गांव में पटेलों का दबदबा है। यह आपका संतोष है कि लक्ष्मणपुरा में चलकर पूछताछ कर लें लेकिन मैं सही बताता हूँ , कोई कुछ नहीं बोलेगा। ‘‘चलो, एक बार गांव में जा तो आयें, मैंने कहा और हम तीनों लक्ष्मणपुरा पहुँचे। गांव के चौक में कुछ बुजुर्गो से हमने बातचीत की लेकिन रमेश भाई की बात सही निकली। किसी ने हमें सहयोग नहीं दिया। जो बातें उन्हें पता होगी, वह भी हमें नहीं बतायी। कुओं का जिक्र और मालिकों के नाम सामने लाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं हो सकता था। उल्टे ग्रामीणों ने हमें शक की निगाह से और देखा। हमने यही उचित समझा कि यहाँ से प्रस्थान किया जाय। हमारी चिन्ता रमेश भाई को लेकर थी। हालाँकि यह चिन्ता निर्मूल थी, जिसकी वजह यह थी कि रमेश भाई रिटायर्ड अध्यापक हैं, उनके भाई चित्‍तरिया के सरपंच है और इस परिवार के पीछे काफी लोग हैं, खासकर आदिवासीजन। लक्ष्मणपुरा से दड़वाह, और फिर स्मारक होते हम सुरेश भाई की तलाश में उनके घर की ओर जा रहे थे। वैसे तो सुरेश भाई का गांव चित्‍तरिया ही है मगर वे चित्‍तरिया के दक्षिण में गांव से काफी दूर अलग से रहते हैं, जो स्मारक व चित्‍तरिया दोनों से करीब ढा़ई कि.मी. दूर है। रास्ते में पुराना गढ़ दिखायी दिया। ‘‘यह क्या है। ‘‘यह पाल के जागीरदार का गढ हैं। रमेश भाई ने बताया। ‘‘क्या कोई रहते हैं इसमें। रमेश भाई ने ही डी.एस. की जिज्ञासा का समाधान किया और हमारे साथ था भी कौन! उन्होंने बताया कि ठाकुर हमीर सिंह राठौड़ यहाँ रहते हैं। उनके दादा पृथ्वीसिंह राठौड़ उस जमाने में यहाँ के जागीरदार थे। उन्होंने भी नरसंहार के वक्त अंग्रेजों व विजयनगर रियासत की मदद की थी। गढ़ की तरफ नफरत की नजर डालते हुए हम आगे बढ गये। ‘‘अरे ! उस शारदा टीचर का घर कहाँ हैं, हमें उससे मिलना है। वह यहीं तो रहती है और विश्वसनीय भी है। वह हमें कुछ न कुछ अवश्य बतायेगी। -डी.एस. दिन भर से शारदा से मिलने को बेताब थे। इसकी और कोई वजह हो न हो, कम से कम डी.एस. की टीम में उसने सक्रिय भूमिका जो निभाई थी। मैंने डी.एस. की भावना की कद्र की, जो मैं पूर्व से ही सारे रास्ते करता आ रहा था। रमेश भाई को शारदा के घर का पता नहीं था। उसने एक जगह पूछा तो शारदा के घर की लोकेशन हमें मिली। हम थोड़ा चलने के बाद शारदा के घर थे। काँटेदार झाड़ियों की बाड़ के भीतर उसका पक्का मकान था। बाड़ के भीतर से लकड़ी का फाटक बना हुआ था, जो खुला छूटा हुआ था। शारदा मकान के बाहर अपने छः-सात साल के पुत्र के साथ बातें करती हुई कोई घरेलू काम करती मिली। डी.एस. उसे फाटक के भीतर प्रवेश करते ही पहचान गये। डी.एस. पालीवाल को लम्बे अर्से बाद देखकर शारदा को सुखद आश्चर्य हुआ। वह हमें देखकर हाथ हिलाकर अभिवादन करती हुई मकान के बरामदे में घुस गयी। वहाँ एक व्यक्ति को उसने जगाया, जो बीच बरामदे में पंखे के नीचे सोया हुआ था। तब तक हम बरामदे के बाहर पहुँच चुके थे। बाद में पता चला, वह व्यक्ति शारदा के ससुर थे। शारदा ने उनसे कुछ कहा और बरामदे के बाहर आ गयी। जिन क्षणों में भीतर बरामदे में शारदा का ससुर आँखें मलता हुआ नींद से जागृत अवस्था में आने की प्रक्रिया से गुजर रहा था, शारदा से डी.एस. ने हाथ मिलाया। ‘‘देखो, शारदा शेक हैण्ड करती है। डी.एस. ने मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा पर मैंने इस बात पर ज्यादा गौर नहीं किया। हाँ, शारदा की तरफ हाथ बढाया और उसने भी हाथ मिलाकर मेरा अभिवादन किया। रमेश भाई को वह खूब जानती थी। शारदा ने हाथ जोड़कर रमेश भाई का सत्कार किया और हमें बरामदे में ले जाकर वहाँ रखी प्लास्टिक की दो कुर्सियों को दीवार के सहारे से खींचकर अपनी साड़ी के पल्लू से फटकार कर पंखे के नीचे बिठाया। रमेश भाई शारदा के ससुर के साथ पास ही रखी चारपाई पर बैठ गये। शारदा का मासूम बच्चा अब तक अपने दादा की गोद में जाकर बैठ गया था। शारदा के घर मात्र औपचारिक आवभगत और वार्तालाप हुआ। शारदा को घटना के बारे में कोई सारगर्भित जानकारी हो, ऐसा मुझे नहीं लगा। वैसे भी ससुर के सामने वह खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। शिक्षित और मुख्यधारा के निकट आ जाने पर आदिवासियों के मूल स्वभाव में औपचारिकता और सावधानियों की सीमाओं के आ जाने से परिवर्तन के संकेत शारदा को देखकर मुझे आभासित हो रहे थे। मैं अपने भीतर कहाँ तक सही था, यह मैं निर्णय करने की स्थिति में कतई नहीं था। हालांकि सुरेश भाई और रमेश भाई गाँव चित्‍तरिया के ही रहने वाले हैं लेकिन रमेश भाई को कई जगह सुरेश भाई के घर का पता पूछना पड़ा। यही हाल शारदा के घर को लेकर था। अन्य गाँवों की ही तरह चित्‍तरिया गाँव के आदिवासी भी सामूहिकता और परस्पर भाई-चारा में विश्‍वास रखते होंगे। लेकिन ठेठ जंगलों में रहने वालों से कुछ भिन्न संस्कृति इस गाँव की लगी जबकि इस गाँव के काफी आदिवासी शिक्षित और सरकारी नौकरियों में भी हैं। एक ऊटपटांग सा सवाल मेरे मन में अंगड़ाई लेता हुआ प्रतीत हुआ कि कहीं तथाकथित मुख्य धारा में आने से आदिवासियों की मूल संस्कृति अन्यथा प्रभावित न हो जाये। सतही जानकारी के आधार पर उन क्षणों इस सवाल का सकारात्मक जवाब तलाशने का निर्णय जोखिम भरा था। अतः इस उलझन को मैं भीतर ही भीतर दबा गया। अब हम सुरेश भाई के मकान के बाहर थे। बगल में एक प्राइवेट स्कूल था जहाँ हमने सुरेश भाई की उपलब्धता के बारे में जानकारी की। हमें बताया गया कि वे घर में ही होंगे। मकान का दरवाजा बंद था। आवाज सुनकर सुरेश भाई किवाड़ खोल कर बाहर आये। हमने परिचय दिया। रमेश भाई को वे जानते ही थे। जैसे ही मैंने पालचित्‍तरिया वाले हत्या कांड का जिक्र किया सुरेश भाई ने उत्साह और आत्मीयता से हमे कमरे में बिठाया। इधर उधर की बातों में वक्त जाया न करते हुए हम सीधे विषय पर केन्द्रित होकर चर्चा करने लगे। ‘‘रमेश भाई, क्या आपने इनको दोनों जगह दिखा दी, दुबले-पतले, गेंहुआ रंग के, ठीक से कद के सुरेश भाई ने पूछा। ‘‘हाँ, वो मैंने बता दी है। जिस खेत में कांग्रेसियों ने शहीद-दीवार बनायी वह खेत किसका है, यह मैं नहीं जानता। ‘‘अरे वह तो जस्सू का है। हाँ, जस्सू भाई मोड पटेल। ‘‘और वह कुआ भी उसी खेत मैं था ना जिसके बारे में सुना है कि लाखों को दबा दिया गया था। रमेश भाई ने उत्सुकता जाहिर की। रमेश भाई के चेहरे के भावों से स्पष्ट आभास हो रहा था कि जो उन्होंने हमें सुरेश भाई के बारे में बताया था कि इस सारे वाकया की बहुत कुछ जानकारी सुरेश भाई को है, वह सही है। उन्हें यह आश्‍वस्ति हुई कि घटना की जानकारी चाहे स्वयं को कम हो लेकिन जिसे काफी कुछ पता है, उस व्यक्ति से मिलवाने में वह सफल हुआ। ‘‘हाँ बरोबर, सही बोला रमेश भाई आपने। सुरेश भाई की वाणी में विश्‍वास झलक रहा था। ‘‘इस विषय में आपको जितनी जानकारी है, वह हमें बताइये, सुरेश भाई। -डी.एस. ने बहुत उतावले होकर जानना चाहा। ‘‘एकी आंदोलन के माध्यम से जिस आदमी ने यहाँ-वहाँ आदिवासियों में जागृति का काम किया, वह तो आप को पता है ही। वह शख्स था-मोतीलाल बनिया (तेजावत), लेकिन इस इलाके के आदिवासियों के जो खास मुखिया थे, वह थे-मेरे दादा रामजी भाई मंगलाजी परमार। तो आप परमार गोत के आदिवासी है। मैंने हल्का फुल्का हस्तक्षेप किया। ‘‘हाँ सुरेश भाई ने इतना कह कर अपनी बात जारी रखी- ‘‘तो मेरे दादाजी मोतीलाल के खास आदमी थे। उन्होंने ही घटना के दिन आदिवासियों को बड़ी संख्या में इकट्ठा होने के लिए प्रेरित किया था। महीनों तक घर बार छोड़ कर वे इलाके में घूमे थे। अँग्रेजों के कहने से विजयनगर रियासत की आदिवासी विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी दुःखी थे। जागीरदारों द्वारा बिना कुछ लिए-दिये बेगार करवायी जाती थी। वनोपज पर सरकार ने पाबंदी लगा दी थी और जंगलों को काटा जाने लगा था। सागोन की लकड़ी इंग्लैण्ड व अन्य देशों में भेजी जाने लगी थी । अँग्रेजों ने जो-जो छावनियां स्थापित की और विभिन्न विभागों के कार्यालय खोले, उनके भवनों में वही लकड़ी उपयोग में ली गई थी इसलिए जंगलों को भारी नुकसान हो रहा था। जो भी थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी होती, उस पर लगान लगा दिया गया था। आये दिन लोगों को सरकारी कर्मचारियों और जागीरदार के आदमियों द्वारा परेशान किया जाता था। इस सारे माहौल में मोतीलाल जैसा संकल्पी नेता आदिवासियों को मिला । वह यहाँ कई बार आया था। उसके खिलाफ अंग्रेजों ने फरारी का फरमान जारी किया था तब भी कई दिनों तक वह यहां इस इलाके में छिपकर रहा था। ‘‘यह क्षेत्र किस जागीर में आता था। मैंने रमेश भाई द्वारा बतायी सूचना को पुख्ता करना चाहा। शायद यह रमेश भाई को अच्छा नहीं लगा होगा चूंकि उन्होंने रास्ते में जागीरदार के गढ के बारे में हमें बता दिया था। ‘‘उस जमाने में पृथ्वींसिंह राठौड़ यहाँ के जागीरदार थे। पाल नाम से वह जागीर थी, जिसमें पालचित्‍तरिया, पाल दड़बाह, लक्षमणपुरा, जिंजोड़ी, जायला, मसौता, लीमड़ा, चितौड़ा, चितरोड़ी, परवट, चोरीमाड़ा, कणादर आदि गाँवों का इलाका था। पाल जागीर काफी बड़ी थी और यहां का तत्कालीन जागीरदार पृथ्वीसिंह भी रियासत का विश्‍वसनीय आदमी था। मेरे दादा एक प्रभावशाली आदमी थे। उनकी उठक-बैठक जागीरदार के साथ ही होती थी। वे इस गाँव के गमेती थे अर्थात् मुखिया। ‘आदिवासियों के मुखिया और जागीरदार के साथ मेलजोल, हमारी समझ में न आने वाली बात थी। मैंने और डी.एस. ने इक-दूजे की ओर संशयभरी निगाहों से देखा। यह बात पचनेवाली नहीं थी इसलिए डी.एस. ने आखिर सुरेश भाई से पूछ ही लिया- ‘‘सुरेश भाई, आपके दादा ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी फिर उनका तालमेल जागीरदार के साथ क्यों। ‘‘बात यह है कि मुखियाओं को अपनी कौम के बहुत सारे काम आये दिन जागीरदार से करवाने होते थे और जागीरदार भी मुखियाओं से सम्पर्क बनाकर चला करते थे। जो बात मुखियाओं को आदिवासियों के विषय में बुरी लगती, उनकों लेकर जागीरदार यही कहा करते थे कि रियासत का हुक्म है, उनकी तो पालना करनी पडे़गी, लेकिन जब बात आगे बढ़ती गयी तो आदिवासी मुखिया जागीरदार के खिलाफ हो गये थे। हत्याकांड से काफी वर्षो पहले ही मेरे दादा और जागीरदार पृथ्वीसिंह के मधुर सम्बन्धों में कड़ुवाहट आ गयी थी। इसीलिए तो मेरे दादा ने मोतीलाल का साथ दिया। सुरेश भाई की ओर से किया गया यह समाधान कितना सही था, इसका पक्का फैसला करना मुश्किल था लेकिन जिस सरल स्वभाव के सुरेश भाई हैं, उसे देखते हुए उन पर किसी भी प्रकार का शक करना हमारी बड़ी भूल होती। अतः मैंने तथा डी.एस. ने सुरेश भाई की बात को सही भावना से ही लिया और इस मुद्दे पर अनावश्‍यक उलझना उचित नहीं समझकर सुरेश भाई को और जानकारी देने के लिए प्रेरित किया। ‘‘हत्याकांड में हताहत होने वाले आदिवासियों में पाल जागीर के अलावा विजयनगर रियासत की अन्य जागीरों के आदमी भी शामील थे। उदयपुर स्टेट के भौमट क्षेत्र के गाँव छाणी, बलीचा, ज्वारवा, बोमटावाला, सरेरा, मुखोड़ी, जांजरी, डबायचा, कनवई के आदिवासी भी यहाँ इकट्ठे हुये थे । उस दौर में चाहे आज के राजस्थान की बात हो या गुजरात की, सभी जगह आदिवासी तत्कालीन राज की नीतियों से परेशान थे। अलग अलग हिस्सों में रहने के बावजूद उनके दुःख एक-से थे इसलिए विरोध और लड़ाई भी एक सी ही होनी थी। ‘‘ लेकिन सुरेश भाई, एक बात हमारी समझ में नहीं आती। वह यह है कि इस इलाके में आदिवासियों ने फिरंगियों और रियासतों की गठजोड़ी भारी ताकत से इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी। भारतीय इतिहास में हुए स्वतन्त्रता संग्राम की यह बहुत बड़ी घटना थी। इतनी एकजुटता संघर्ष और बलिदान ! इसके बावजूद यहाँ के लोग घटना के बारे में बात करना भी पसन्द नहीं करते या कहें कि इतने झिझकते क्यों है। दिनभर का जैसा अनुभव रहा उसके आधार पर मैंने यह अनिवार्य प्रतिक्रिया सुरेश भाई के समक्ष व्यक्त की। ‘‘मैं कहना चाहूंगा कि यहाँ के वाशिंदों को घटना के बारे में जानकारी है। अभी ज्यादा वक्त भी नहीं हुआ घटना को। इतिहास में नब्बे-सौ बरस कोई लम्बी अवधि नहीं मानी जा सकती। खैर, अब जब कि मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने शहीद-स्मारक बनवा कर एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित कर दिया और उधर कांग्रेसियों ने भी शहीद-दीवार बनवाकर उनकी तरफ से भी उस बलिदान को स्वीकार कर प्रचार-प्रसार कर दिया फिर लोगों में किस बात की झिझक हैं, डी.एस. ने मेरी बात का समर्थन करते हुए सुरेश भाई से इस बारे में जानकारी चाही। ‘‘जहाँ तक मैं समझता हूँ, मुझे इसके दो-तीन कारण नजर आते हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है हताहत होने वालों के वंशजों में इस घटना का खौफ है। इतने बड़े हादसे की स्मृतियां दिल दहलाने वाली होती हैं। दूसरे, कुछ लोगों ने पक्के मकान बनाने के लिए नींव खोदी तो जमीन में मानव-अस्थियां मिली, जिन्हें उन्होंने चुपचाप रफा-दफा करना उचित समझा ताकि वहाँ बनने वाले मकानों के बारे में उल्टी-सीधी चर्चाएँ न फैले। इसी तरह एक आशंका यह है कि अगर इस घटना का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ तो यह सम्पूर्ण क्षेत्र राष्ट्रीय बलिदान की दृष्टि से सुरक्षित क्षेत्र घोषित हो जायेगा। ‘‘मुझे ऐसी मानसिकता और भ्रांतियों पर अधिक विश्वास नहीं। अरे, यह भी कोई बात हुई कि पुरखों के बलिदान पर गर्व न किया जाये और सुरक्षित क्षेत्र वाली बात की आशंका भी निर्मूल लगती है चूँकि अगर ऐसा होता है तो सरकार बतौर मुआवजा नयी जगह देगी। सुरेश भाई के कथन पर मैंने बेबाक टिप्पणी करते हुए इस मानसिकता की गहराई में जाने की इच्छा जताई। ‘‘दरअसल दड़वाह वाली जो जमीन है वह पटेलों की है और इलाके में उनका प्रभाव है। पठार वाली जगह पर तो स्मारक बना ही दिया गया है। पटेलों को आशंका है कि जहाँ हत्याकांड की असल जगह बतायी जाती है और उस जगह पर कांग्रेसियों ने शहीद-दीवार बनायी है और आसपास के खेतों में वे कुए बताये जाते हैं, जिनमें लाशों को दबाया गया तो वे सारे खेत पटेलों के हैं। वे नहीं चाहते कि उनके उपजाऊ खेत हाथों से निकल जायें।’’ ‘‘तो क्या यह माने कि नरेन्द्र मोदी ने भी पटेल-लॉबी के चलते असल जगह पर शहीद स्मारक नहीं बना कर सरकार के कब्जे वाली पठारी भूमि पर बनवाना उचित समझा। ‘‘हाँ, इस बात में दम है और यह भी कि अब जिन पटेलों के वो खेत हैं, जिनमें वे कुए बताये गये, जिनमें लाशें डाली गयी तो उनमें कुछ मिलने वाला भी नहीं है। डी.एस. की सार्थक प्रतिक्रिया का सुरेश ने भाई ने जवाब दिया। ‘‘ऐसा क्यों, जब कुओं की जगह पहचान ली गयी है तो उस जगह पर अगर आज खुदायी की जाये तो निश्चित रूप में वहाँ शहीदों की हड्डियां मिलेंगी और अगर ऐसा होता है तो यह एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि मानी जायेगी। ‘‘मीणा जी, बात यूँ है कि मैंने इस मामले में काफी रूचि लेकर काम किया है। इस चर्चा में काफी सचाई लगती है कि हादसे के बाद से ही इस हत्याकांड की बात को दबाने का प्रयास किया गया। अंग्रेजों या रियासत के रिकार्ड में इसका कहीं जिक्र नहीं मिलता। उस जमाने में संचार या सूचना के कोई ठीक साधन थे भी नहीं। जो भी थे उन पर ब्रिटिश सरकार और देशी रियासतों का नियन्त्रण था। वे क्यों चाहते कि इस घटना का प्रचार हो। सुना है कि बाद में कुओं में से भी हड्डियों को निकाल कर नदी में बहा दिया गया ताकि कोई अवशेष भविष्य में भी किसी को नहीं मिल पाये। ‘‘देखो, सुरेश भाई ! जब अपन मानते हैं, कि काफी बड़ी तादाद में लोग मरे तो क्या खुदायी में कुछ भी नहीं मिलेगा। ‘‘हाँ, इस बात में दम है सुरेश भाई, -डी.एस. ने मेरी बात का समर्थन किया। ‘‘अमरसिंह चैधरी जब मुख्यमंत्री थे, तब एक बार यह योजना बनी भी थी कि सम्बन्धित स्थलों की खुदायी की जाये लेकिन योजना बनने के स्तर पर ही रह गयी और सरकार बदल गयी। ‘‘यह बात चलो ठीक है, सुरेश भाई, लेकिन आदिवासी जो जन प्रतिनिधि हैं या और जो सक्रिय एन. जी. ओज या व्यक्ति हैं उन्हें ऐसी माँग रखकर सरकार को सहमत करना चाहिए। आखिर यह कोई व्यक्तिगत या गाँव का मामला नहीं है। यह तो राष्ट्रीय महत्व का विषय है। चलो उम्मीद करते हैं इसे लेकर भविष्य में कुछ हो। यह कहते हुए मैंने मूल विषय पर चर्चा जारी रखने के लिए सुरेश भाई से आग्रह किया कि ‘‘आपने तो इस घटना पर काफी काम किया है। क्या ऐसे कोई बुजुर्ग मिल सकते हैं, जो उन दिनों समझदारी की उम्र के हों और जिन्होंने घटना देखी हो या तत्काल में सुनी हो। ‘‘इस सम्बन्ध में मैंने काफी लोगों से बात की है। जो व्यक्ति चश्मदीद गवाह इस काण्ड के रहे, उनमें से पीतरजी भाई गलजी भाई मणात निवासी ग्राम सामइया, अहारी डेनियल निवासी मोवतपुरा आदिवासी ईसाई और रूपसी भाई गमेती निवासी कणादर से मैंने खूब बातें की हैं। उन्होंने पूरा वृतांत सुनाया। अब ये तीनों ही गुजर चुके हैं। जिन्होंने घटना देखी तो नहीं लेकिन बाद में सुना, उनमें मैंने धर्मा भाई बोदर निवासी टीटारण और गोमाजी लाला जी निनामा निवासी गाड़ी है। ये दोनों कुछ अर्सा पहले तो जिन्दा बताये गये थे, लेकिन सुना है कि सुनने और बोलने में इन्हें काफी कष्ट होता है। ‘‘ये दोनों कितनी दूर हैं ?’’ डी. एस. ने उत्सुकता जाहिर की। ‘‘टीटारण तो करीब दस कि. मी. दूर है और गाड़ी गाँव पाँच कि. मी. करीब पड़ेगा। लेकिन अब उनसे बात करने का कोई लाभ नहीं चूँकि वे बहुत बुजुर्ग हैं और मुझे पता नहीं, इन दिनों जिन्दा है भी या नहीं। हाँ, एक प्रत्यक्षदर्शी और है। वो क्या नाम है रमेश भाई, वो जो मुस्लिम बुजुर्ग है ना, जो अपने पोते के पास अहमदाबाद रहता है। सुरेश भाई ने रमेश भाई की ओर मुखातिब होकर अंतिम वाक्य में पूछा। ‘‘हाँ, वो याकूब भाई....... ‘‘अरे हाँ, वो याकूब भाई गमेरा जी गोगरा। हाँ, अब याद आ गया, उसका नाम। वह चित्तरिया का ही रहने वाला है। लेकिन वो अहमदाबाद रहता है। जिंदा तो है लेकिन हालत कैसी है, यह कहा नहीं जा सकता। सुरेश भाई ने रमेश भाई की सहायता से अपनी स्मृति को संभाला। ‘‘फौजें कहाँ-कहाँ से आयी थी। मैंने चर्चा को आगे बढाने के उद्देश्य से सुरेश भाई से पूछा। इस दरम्यान मकान के अन्दर से सुरेश भाई की पत्नी चाय लेकर आयी। मैंने व डी. एस. ने उन्हें नमस्ते किया। वह चाय रखते हुए हमारे अभिवादन का सर हिलाकर जवाब देते हुए वापस अन्दर चली गयी। डी. एस. ने चाय के साथ खाने की किसी वस्तु की चाह में मेरी ओर इशारा किया। मेरी इच्छा भी ऐसी ही कुछ थी। दरअसल हम दोनों ने सुबह नाश्ता ही किया था। यात्रा और यहाँ की जरूरी व्यस्तता ने खाने के जुगाड़ का अवसर ही नहीं दिया। वैसे इस गाँव में खाने की व्यवस्था आसानी से कहीं भी हो जाती और ड्राईवर राजू ने शायद ऐसी कोई व्यवस्था कोड़ियावाड़ा में कर भी ली होगी, मगर हमें उस वक्त भूख सताने लगी। सूर्यास्त हो चुका था। चित्तरिया के वातावरण में गोधूलि-धुंधलका छाता जा रहा था। थोड़ी ही देर पहले सुरेश भाई ने कमरे की टयूबलाइट का स्विच ऑन किया था। हम तो सकुचाहट में ही रहे लेकिन इन्हीं क्षणों सुरेश भाई की पत्नी पुनः कमरे में आयी और स्टूल पर बिस्कुट की एक प्लेट रख गयी। हम दोनों को सुखद लगा हाँलाकि हमारी उदरपूर्ति का तो इन बिस्कुटों से सवाल ही पैदा नहीं होना था। ‘‘प्रमुख भूमिका तो एम.बी.सी. खेरवाड़ा ने निभाई थी, जो सीधे ब्रिटिश गवर्नमेंट के अधीन थी। ईडर के शासक दौलतसिंह राठौड़ ने फौजें भेजकर सहायता की थी। विजयनगर रियासत की फौजें तो थी ही। मैंनें यह भी सुना है कि मेवाड़ के महाराणा ने भी फौजें भेजी थी। सभी फौजी टुकड़ियां एम.बी.सी. के कमांडेंट मेजर एच.जी.शटन के अधीन थी।’’ ‘‘एम.बी.सी. की फौज में मुख्य भूमिका हमारे अपने ही सुबेदार मेजर हूर जी ने निभाई थी ’’ डी. एस. ने हस्तक्षेप किया, जो सामयिक और सटीक था। ‘‘हूर जी ही क्या, अन्य फौजी भी तो आदिवासी ही थे‘‘-सुरेश भाई ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा - ‘‘आदिवासियों की उस ‘एकी-पंचायत’ के बारे में विजयनगर के शासक को लगातार सूचना पाल का जागीरदार पृथ्वीसिंह राठौड़ भिजवाता रहा था। ‘‘सुरेश भाई एक शंका है, उसका समाधान यहाँ चर्चा के दौरान किया जाय, -मैंने जाहिर किया। ‘‘वह क्या ‘‘वह यह कि जिस जगह को आप लोग वास्तविक घटना स्थल बता रहे हो, वह समतल और उपजाऊ जमीन है और पहले भी निश्चित रूप से ऐसी ही रही होगी चूँकि वहाँ पत्थर-कंकड़ नहीं हैं और जहाँ स्मारक बनाया है, वह ऊँचाई पर अवस्थित पठार है। आदिवासियों की ही क्या अन्य जन की पंचायत प्रायः ऊँचाई वाली जगह पर होती है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ होगा। यह अलग बात है कि पठार पर पथरीली भूमि की वजह से कुए नहीं होंगे इसलिए लाशों को ढब-ढाँके लगाने का काम नीचे वाली जमीन पर किया गया हो।’’ ‘‘हाँ बॉस, मैं भी यही सोच रहा था- डी.एस. ने मेरी बात का मुखर समर्थन किया और मुझे लग रहा था कि रमेश भाई की भी मूक सहमति मुझ से थी चूँकि उनके चेहरों के भावों से ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। ‘‘मीणा जी, आप जो कह रहे हैं, सम्भव है, वास्तविकता यही रही हो, लेकिन आपने देखा होगा कि जिसे हम पठार कह रहे हैं, वहाँ पेड़-पौधे काफी हैं, खासकर शहीद-स्मारक स्थल पर। इसका मतलब है कि हो सकता है, वहाँ घना जंगल हो और बड़ी संख्या में आदिवासियों के बैठने की सहूलियत न रही हो। शायद इसलिए नीचे वाली समतल भूमि पंचायत के लिए चयनित की गई हो। ‘‘हाँ, यह संभव है। ‘‘बात यहाँ बहस की नहीं है सुरेश भाई, हो सकता है जिस जगह पर स्मारक का उद्घाटन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है, वहाँ पंचायत शुरू हुई हो और गोलीबारी के चलते लोग भाग कर नीचे दड़वाह की ओर गये हों फिर वहाँ भी फौजों ने उनका पीछा किया हो। सम्भव है, दोनों जगहों को शामिल करता हुआ घटना-क्रम रहा हो। मुझे यह बताओ, जिन प्रत्यक्षदर्शियों से आपने बात की थी, उन्होंने किसी जगह को पिन-पाॅइन्ट किया है क्या। ‘‘हाँ, वे एकमत से दड़वाह वाली जगह पर जोर देते हैं और वे थे भी वहीं। मगर वो यह भी कहते हैं कि भीड़ ऊपर पठार पर भी थी’’ -मेरी बात का जवाब देते हुए सुरेश भाई बोले। इस बहस में ज्यादा उलझने का कोई औचित्य नहीं था चूँकि दोनों स्थलों के बीच दूरी मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की ही है और इतनी बड़ी घटना, जिसमें हजारों आदिवासी एकत्रित हुए, भगदड़ के दौरान दड़वाह से पठार पर या पठार से दड़वाह तक घटना चक्र का विस्तार सम्भव है। पाल इलाकों में जितना हमें काम करना था, हमने कर लिया। अधिक जानकारी मिलने की सम्भावना यहाँ नहीं थी। ‘‘सुरेश भाई, आपकों जितनी जानकारी थी, आपने हमें उपलब्ध करवायी, इसके लिए हम आपके आभारी हैं। आप हमें अनुमति दें- मैंने सुरेश भाई से विदा मांगी। ‘‘आज रात यही ठहर जाइये ना। हमे अच्छा लगेगा। आपको किसी तरह की असुविधा नहीं होने देंगे- सुरेश भाई ने हमसे जो आग्रह किया, उस पर मैं व डी.एस. प्रतिक्रिया व्यक्त करते उससे पहले रमेश भाई बोले- ‘‘हाँ, मीणा जी आप कब-कब आओगे, सुबह चले जाना। ‘‘नहीं, आपका पूरा दिन हमारे खाते में रहा, इसका आभार तो शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। जिस आत्मीयता से आप दोनों ने हमें सहयोग दिया, उसकी सुखद स्मृति मेरे जीवनानुभव के खजाने में सदैव सुरक्षित रहेगी। हम दोनों ही बहुत दिनों से इस जगह को देखने के लिए आकुल थे । आज वह इच्छा पूरी हुई। अरे ! यह तो आदिवासी ही क्या, राष्ट्रीय स्तर का तीर्थ-स्थल है। मैं उन महान् शहीदों को नमन करता हूं अब हमें चलने की इजाजत दो- कहते हुए मैं चारपाई से खड़ा हुआ।‘‘ ‘‘बॉस धन्यवाद है आपका, जो मुझे भी यह जगह दिखा दी- डी.एस. ने यह कहते हुए सुरेष भाई से हाथ मिलाया। रमेश भाई को कुछ दूरी तक हमारे साथ चलना था। उनका घर उधर ही था, जिधर हमें जाना था। चित्‍तरिया की मुख्य आबादी में रमेश भाई से भी हमने विदा ली । चित्‍तरिया से कोड़ियावाड़ा तक की वापसी का रास्ता हमें मालूम था। हम दोनों थोड़ी देर में कोड़ियावाड़ा पहुँच गये, जहाँ राजू ड्राइवर बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहा था।‘ राजू ! तुमने दिन में कुछ खाया या नहीं, हमारा तो आज व्रत हो गया- डी.एस. ने पूछा। ‘‘साहब ! मैंने तो पटेल के यहाँ रोटी खा ली। उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे खाना खिलाया। अब काफी देर हो गयी है, चलो । ‘‘राजू ठीक कह रहे हो , अब चलना चाहिए। अरे हाँ, वो पटेल और सोमा भाई कहाँ है- मैंने राजू से पूछा। ‘‘सोमा तो अपने गाँव चला गया और पटेल तीसरे पहर करीब कहीं रिष्तेदारी में निकल गया। तो दोनों से मिलना नहीं होगा। अब हमें चलना ही चाहिए-मेरे यह कहने तक हम तीनों गाड़ी में बैठ चुके थे। यूँ कर , हम करीब नौ बजे वहाँ से चल दिये। आसमान में मेघ और धरती पर अंधेरा छाया हुआ था। विजयनगर मोड़ आते-आते छिटपुट फुहारें बरसने लगी थी। बरसाती कीट हवा में उड़ रहे थे। कार के शीशे से टकरा-टकरा कर उनमें से कई मर रहे थे। उनके टकराकर क्षत विक्षत होने के निशान शीशे पर स्पष्ट दिखायी दे रहे थे लेकिन बारिस की फुहारों एवं कार के वाइपर के चलते अगले ही क्षण वे निशान धुल भी रहे थे। कुछ ही आगे बढे़ होंगे कि कार के आगे कुछ दूरी पर हैड लाइट की रोशनी में तेजी से सड़क पार करता हुआ एक बघेरा दिखायी दिया। ‘‘ब्रेक लगाओ- डी.एस. ने ड्राईवर राजू को कहा, मगर जब तक वह कार धीमी करता बघेरा बगल के घने जंगल में लुप्त हो गया था। ‘‘क्या पहली बार देख रहे हो। ‘‘बॉस, देखा तो कई बार है और मैं तो यूँ भी जंगलों में खूब घूमा हूँ फिर भी जंगल में बार-बार वन्य जीवों और उनमें भी हिंसक जानवरों को बार-बार देखना एक रोमांच पैदा करता ही है- डी. एस. ने मेरे सवाल का जवाब दिया। इन क्षणों वह पीछे झाँककर गायब हो चुके बघेरे की असफल टोह ले रहे थे। कुछ देर धीमी हुई कार ने वापस रफ्तार पकड़ ली थी। ‘‘ डी.एस., एक बार मैंने रणथम्भौर नेशनल पार्क में पाँच टाइगर एक साथ देखे और वह भी कोई पौन घण्टे का अद्भुत दृश्‍य था। आई टेल यू, जोगी महल वाली झील के पास कच्चे रास्ते की बगल में एक पेयर अपने एक ही ‘कब के साथ वहाँ किसी ने देखा। थोड़ी देर में तो देशी-विदेशी सैलानियों की चार-पाँच खुली जीपें वहाँ पहुँच गयी जिनमें एक ग्रुप के साथ मैं भी था। करीब पन्द्रह मिनट बाद एक पेयर और वहाँ आकर बैठ गया। पार्क के गाइडों ने पर्यटकों को सावधान किया था कि वाहन से नीचे कोई न उतरे, आवाज न करे और फ्लेश के साथ फोटो न लें। ‘‘यह बात सही है कि खतरनाक समझा जाने वाला जानवर भी कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करेगा जब तक कि उसे अपनी सुरक्षा का खतरा आशंकित न हो। आप लक्की रहे वरना कई बरसों से तो रणथम्भौर में भी ‘टाइगर स्पॉट बहुत मुश्किल से संभव बतायी जाती हैं। ‘‘वो पिछले सालों शिकारियों का जो गिरोह पकड़ा गया था न, उसने पन्द्रह टाइगरों का शिकार करना कबूल किया था। ‘‘हाँ, यह मेरी जानकारी में है मगर अब कितने टाइगर बताये जाते हैं। ‘‘इस साल का तो मुझे पता नहीं, लेकिन गत वर्ष पद्चिह्नों के आधार पर जो गणना हुई थी उसमें बाइस टाइगर बताये गये थे- मैंने डी. एस. को विश्‍वसनीय सूचनात्मक उत्तर दिया। ‘‘कभी अवसर मिला तो रणथम्भौर मैं भी जाऊँगा और यह पार्क आपके ही तो जिला में अवस्थित है, इसलिए चाहूँगा कि कार्यक्रम आपके ही साथ बने। ‘‘हाँ, यार डी. एस., मन-मिले मित्रों के साथ घूमने का आनन्द ही अलग है जैसे यह विजिट हमने तय की, मगर मेरे जैसे दोस्त का भरोसा मत करना, वह कब साथ चले कब न चले। इसकी और कोई संदेहजनक वजह नहीं, सिवाय इसके कि मैं जिस तरह की नौकरी में हूँ, उसमें साला छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल है। हाँ, वैसे घूमने का मेरा मन बहुत करता है। मेरे यह कहते-कहते नन्हीं फुहारें मोटी बूँदों वाली बारिश में अचानक बदल गयी थी। ड्राईवर राजू ने कार का वाइपर तेज किया, फिर भी आगे बौछारों के कारण सड़क का दिखना बंद सा हो गया था। ‘‘साब, रूकना पड़ेगा- राजू ने कहा। ‘‘चलो, थोड़ा आगे बोर्डर चैक पोस्ट तक तो घसीट, तेरी इस उत्‍तर आधुनिक कार को। राजू पढालिखा तो है लेकिन ‘उत्‍तर आधुनिक शब्द का अर्थ शायद नहीं जानता। इसलिए उसने मेरी बात पर इतना ही कहा कि ‘‘देखता हूँ। डी. एस. इस शब्द पर हंसा और उसने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि - ‘‘वाह ! बॉस, उत्‍तर आधुनिक कार से आदिवासियों के बीच। ‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि हम बाबा आदम के जमाने में ही जीते रहें। ‘‘अरे, मैंने तो चुटकी ली थी। आप तो मीणा जी, शायद नाराज हो गये। ‘‘डी. एस., आप से तो नाराजगी का सवाल ही नहीं। आप तो आदिवासियों के सरोकारों से जुड़े हुए रहे हैं। आपकी इस चुटकी के बहाने मैं भद्र लोगों को यह कहना चाहता हूँ कि समाज के किसी भी घटक, विशेष रूप से आदिम समुदायों के संदर्भ में, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से किस बात का परहेज, आदिवासियों को लेकर बातें तो खूब की जाती हैं। शौकिया शोध, अध्ययन और एन. जी. ओज की गतिविधियां भी काफी चलती हैं लेकिन सही दृष्टिकोण से आदिवासियों के विकास को लेकर वाकई कितने लोग, संगठन और सरकार चिंतित है, यह गौर करने लायक चिंता का विषय है। अधिकांश बुद्धिजीवी भी चाहते हैं कि ये मूलवासी ‘जीता-जागता आदिम म्यूजियम के रूप में ही अस्तित्व में रहें। खैर, छोड़ें इस प्रसंग को, यह तो लम्बा विमर्ष है। बारिश का दौर थम गया। कार की फाटक के शीशे उतारे तो ठंडी हवा का सुखद अनुभव हुआ। अब तक ड्राइविंग करने में राजू को जो कठिनाई हो रही थी उससे भी राहत मिली। इस मार्ग पर देर शाम और रात में वाहनों का आवागमन बहुत कम होता है। गुजरात-राजस्थान सीमा आने से पहले ही बरसात रूक गयी थी इसलिए हमें बारिश की वजह से रूकने की जरूरत नहीं पड़ी। तेज गति से हमारी कार दौड़ रही थी। अब रास्ता भी सीधा था। यहाँ-वहाँ कुछेक मोड़ अवश्‍य आये। करीब पौने घण्टे में हम खैरवाड़ा पहुँच गये। डाक बंगला में हमारा इन्तजार हो रहा था। हमने रास्ते से सेलफोन द्वारा कमाण्डेंट भंवरसिंह को हमारे पहुँचने का संभावित समय बता दिया था। रात का खाना खेरवाड़ा के डाक बंगला में ही तय था। दिन भर के थके हुए थे और जठराग्नि भी भड़की हुई थी। फ्रेश होने के बाद थोड़ी देर गपशप हुई। खाने के वक्त दिनभर के अनुभव को हमने कमाण्डेंट भंवरसिंह के साथ बाँटा। ‘‘सर, आप पुलिस जैसे मकहमे में होकर भी साहित्य व इतिहास जैसे विषयों पर इतना काम कैसे कर लेते हैं, मुझे तो वाकई अचम्भा होता है। ‘‘भाई साहब भंवरंसिंह जी, यार अपन जब पुलिस में भर्ती होते हैं तो अच्छे-खासे पढे लिखे आते हैं और जब रिटायर होते हैं तो हममें से अधिकांश अनपढ होकर बाहर निकलते हैं। इसकी वजह है खुरपागिरी। आखिरी शब्द पर डी. एस. जोर से हँसा और फिर वह बोला- ‘‘बॉस, यह खुरपागिरी क्या होता है। ‘‘ड्राय रेजीमेंटेशन, जिसमें अक्ल से काम बहुत कम लिया जाता है और हर वक्त ‘यस सर की भावना से शेष दुनियादारी से अलग-थलग रहकर काम करते चले जाना होता है। और समझना है तो ट्रेनिंग का पहला सबक सुनाता हूँ जो हमारे इन्सट्रक्टर शिवपालसिंह ने हमें दिया था। उन्हीं के शब्दों में - ‘ ऐ बात थे सभी आर. पी. एस. साहबान कान खोलकर सुण ल्यों क ए पुलिस रो बेड़ो घणो पुराणो है अर भोत मोकड़ो बी। थम में भोत सारा तो कोलेज्याँ सू अबी अबी निकड़ अर आया हो, अर दो-चार ने बठै ही मास्टरी करी है। जो थे बिचारो, के महकमा ने बलद देस्यां तो ए थारी भूल है। ओ महकमों तने सगड़ा ने बदल देस्यी। थे महकमां री परंपरा ने जाणो अर पाछी देखो अर आगी बढ़ो। बाद में हमारा पूरा बैच फुरसत में खूब हँसा था कि साला पीछे देखकर आगे कैसे बढा जा सकता है। आगे चलने के लिए तो आगे देखना होगा नहीं तो खड्डे में गिर पड़ोगे। अब तो खैर वो बात नहीं है। शिवपालसिंह आजादी के पहले अर्थात अंग्रेज कालीन और रजवाड़ी पुलिस के संस्कारों में पले हुए थे इसलिए यथास्थितिवादी पुलिस के पक्षधर थे। ‘‘तो क्या अब पुलिस की भूमिका यथास्थितिवादी नहीं है। डी. एस. ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। ‘‘देखिये डी. एस., कानून एवं व्यवस्था को बनाये रखना पुलिस का प्रमुख दायित्व है। इसके बिना विकास संभव नहीं। दूसरे, सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित जो ‘लॉ है उसकी पालना करवाने के लिए पुलिस की जो भूमिका है वह निश्चित रूप से एक ‘केटेलिस्ट की भूमिका है। तीसरे, अब पुलिस अत्याधुनिक तकनीक और भविष्यगामी दृष्टि को अपना कर चलती है चाहे जनांदोलन हों या अपराध-जगत। कुल मिलाकर प्रजातान्त्रिक आधुनिक पुलिस। जो मैं कह रहा हूँ सवाल वह नहीं है। दिक्कत यह है कि पुलिस वालों में अधिकांश पुलिस के खोल से बाहर इन्टरेक्ट कम कर पाते हैं। इसलिए सीमित सोच के दायरे में नौकरी पूरी करते हैं और रिटायरमेंट के बाद अधिकांश पुलिस अधिकारी या कर्मचारी समाज में मिसफिट या अनफिट होते हैं। इसलिए पुलिस पर हुए सर्वेक्षणों से यह त्रासद निष्कर्ष निकले हैं कि पुलिसवालों की ‘पोस्ट रिटायरमेंट लाइफ अन्य की तुलना में कम होती है। मेरा कहने का मतलब है कि पुलिस कार्य की हजार व्यस्तताओं के रहते सफल पुलिस-कर्म के साथ साथ सार्थक जीवन के विषय में सोचते और कुछ करते रहना अत्यंत अनिवार्य है। मेरा मानना है कि बहुआयामी जीवन का पुलिस-कर्म एक हिस्सा है, तो भंवरसिंह जी आप तो यहाँ पदस्थापित हो और खूब फुरसत में भी। आप कुछ तो करो यहाँ बैठे-बैठे- डी.एस. की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए मैंने अपनी बात कही जिसके आखिरी शब्द भंवरंसिंह की ओर मुखातिब हो उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए थे। मेरी बात को उन दोनों ने गम्भीरता से सुना। मुझे भी संतोष मिला। काफी देर हो चुकी थी। गम्भीर विमर्ष अपनी जगह था लेकिन थकान और तज्जन्य नींद की आवश्‍यकता शरीर और मस्तिष्क दोनों के लिए अनिवार्य थी। सार्थक दिन गुजरा, इस सुखानुभूति के साथ खेरवाड़ा में रात गुजारी। अगले दिन अर्थात् तारीख 13 जुलाई को हम दोनों सहयात्री प्रातः मेवाड़ भील कोर परिसर गये। कमांडेट भंवरसिंह के यहाँ नाश्‍ता करने के बाद उपलब्ध अभिलेखों को देखा जिनके बारे में चित्‍तरिया रवाना होने से पहले मैं छावनी में कहकर गया था। एम.बी.सी. की फाइल संख्या 6/1892 में मेवाड़ भील कोर के कमाण्डेंटों, मेवाड़ के पालिटीकल एजेन्टस, रेजीडेण्ट्स, राजपूताना के हिली ट्रेक्स के पोलिटीकल सुपरिण्टेडेंट्स और ब्रिटिश सरकार के दिल्ली स्थित फॉरेन एण्ड पोलिटीकल डिपार्टमेंट के बीच हुए वर्ष 1892 से 1939 की अवधि के पत्राचार की प्रतियां उपलब्ध मिली। ये सभी पत्र एम.बी.सी. की प्रशासनिक व्यवस्थाओं, प्रषिक्षण, फौज के मूवमेंट और एम.बी.सी., द्वारा किये गये सराहनीय कार्यों की प्रशंसा आदि से ताल्लुक रखते हैं। पालचित्‍तरिया की घटना से सम्बन्धित कोई कागज कहीं नहीं मिला और न ही इस तरह का कोई संदर्भ। मुझे बताया गया कि सभी ऐतिहासिक दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली में भेज दिये गये थे। एक पत्रावली की कार्यालय टिप्पणी में इन अभिलेखों की प्रतियां प्राप्त करने के उद्देष्य से यहाँ के तत्कालीन कमांडेंट के द्वारा दिनांक 1११।0.1996 में किये गये दिल्ली-भ्रमण का विवरण अंकित है। इसी पत्रावली में ता. 4. ११..1996 को लिखा है कि उक्त दस्तावेज प्राप्त करने के लिए महानिदेश, राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली से पत्राचार करना उचित है। एक अन्य रिपोर्ट मिली जो एम.बी.सी. के ‘गौरवशाली इतिहास से सम्बन्ध रखती है। यह रिपोर्ट एम.बी.सी. के एक सौ अट्ठावनवीं वर्षगांठ अर्थात, ता. 1.1.1999 के समारोह के लिए तैयार की गयी थी। प्रासांगिक अंश निम्न प्रकार हैं- ‘‘ऐसा बाताया जाता है कि वर्ष 1921 में कोटड़ा में क्यार नामक गाँव में मोतीलाल तेजावत नाम का व्यक्ति रहता था। महाराणा एवं ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध बगावत के लिए भोमट के भीलों को उकसा रहा था। ऊँट पर सवार हो कर गाँव-गाँव घूमता और एक नारियल और दो आने भेंट के रूप में लेता हुआ लोगों को ‘भूमि भगवान की है, बताकर ब्रिटिश सरकार एवं महाराणा को लगान नहीं देने के लिए उकसाता था जिससे सरकार की आय में कमी आ गई। इस सम्बन्ध में कमांडेंट ने मालूम किया तो पता चला कि पाल चित्‍तरिया गाँव में हजारों भीलों को इकट्ठा कर सरकार के विरूद्ध भाषण कर बगावत कर रहा है। इस पर कमांडेंट एम.बी.सी. एक कम्पनी मय हथियार के पाल चित्‍तरिया पहुँचे एवं भीड़ को बिखर जाने व मोतीलाल तेजावत को सरेण्डर होने के लिए वार्निंग दी परन्तु इसका कोई असर नहीं होने पर घेरा डालकर फायर का आदेश दिया एवं कई लोग फायरिंग में मारे गये। सरगना मोतीलाल तेजावत मौका देखकर भाग गया जो काफी साल बाद सरकार के सामने सरण्डर हुआ। यह मेवाड़ भील कोर का मिलीटरी पुलिस बनने के बाद की दूसरी घटना हुई एवं इस इलाके में शांति हो गई। आदिवासी बलिदान की एक बड़ी घटना के बारे में यह टिप्पणी संकेत भर थी और कोई ऐतिहासिक दस्तावेज भी नहीं। मुझे आश्‍चर्य हुआ कि आजादी के बावन बरस बाद भी (तब तक जाने-पहचाने) एक स्वतन्त्रता संग्रामी नायक के बारे में अपमानजनक भाषा का उपयोग किया गया लेकिन ऐसा न किया गया होता तो एम.बी.सी. की शौर्यगाथा कैसे लिखी जाती। करीब ग्यारह बजे हम खेरवाड़ा से चल दिये। मुझे दरअसल इस यात्रा के दौरान मानगढ का भी एक चक्कर लगाना था इसलिए मानगढ़ होते हुए ता. 14 जुलाई को दोपहर तक हम उदयपुर पहुँचे। सीधे आदिवासी शोध संस्थान गये। लाइब्रेरियन श्री राकेश शर्मा ने हमें पूरा सहयोग किया। राजस्थान के इस आदिवासी अंचल में हुए ब्रिटिश एवं रियासत विरोधी आंदोलनों के विषय में संतोषजनक सामग्री उपलब्ध करवायी। राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली में उपलब्ध जिन दस्तावेजों का संदर्भ हमें खेरवाड़ा छावनी में मिला था, वे सभी दस्तावेज प्रतियों के रूप में संस्थान में मिल गये। ध्यानपूर्वक उन्हें देखा लेकिन पालचित्‍तरिया की घटना के विषय में कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज यहाँ भी उपलब्ध नहीं था। कुल मिलाकर वास्तविकता यह थी कि सभी घटनाओं को छिपाया जाता था इसलिए लिपिबद्ध साक्ष्य मिलते भी कहाँ। आदिवासी शोध संस्थान में शाम के आठ बज चुके थे। ‘‘शर्मा जी आपका आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ, मेरे पास शब्द नहीं है। आपने वास्तव में काफी सामग्री उपलब्ध करवायी है। यद्यपि पालचित्‍तरिया के विषय में कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं मिला लेकिन मोतीलाल तेजावत के विषय में जो सामग्री मिली है वह मेरे लिए पर्याप्त है चूँकि उसमें पालचित्‍तरिया की घटना के पर्याप्त संदर्भ हैं चाहे वह आर. पी. व्यास की इतिहास-पुस्तक हो या प्रेमसिंह कांकरिया की मोतीलाल तेजावत वाला व्यक्तित्व हो या पेमाराम द्वारा संकलित सामग्री या पत्र-पत्रिकाओं में बाद में छपे आलेख या फिर ऐतिहासिक ग्रंथ वीर विनोद। ‘‘मीणा जी, मैं यहाँ बाइस वर्षों से काम कर रहा हूँ और मैंने मन लगाकर काम किया अन्यथा बुरा मत मानना, जितने भी डायरेक्टर यहाँ प्रशासनिक अधिकारियों की हैसियत से पदस्थापित रहे हैं उन्होंने कोई रूचि नहीं ली। यह मन की बात मैं बहुत जोखिम उठाकर आपसे कह रहा हूँ। ‘‘मैं समझ सकता हूँ शर्मा जी, लेकिन जो भी काम दिया जाये, आदमी को अपनी भूमिका दायित्व-बोध के साथ निभानी चाहिए, उससे आत्मसंतोष मिलता है। अच्छा अब हमें अनुमति दें आपका सारा दिन हमारे खाते में चला गया। घर में आपका इन्तजार हो रहा होगा। शर्माजी हमें संस्थान के बाहरी मुख्य गेट तक छोड़ने आये। हमने उनसे हाथ मिलाकर विदा ली। तीन दिन से डी. एस. मेरे साथ थे। आज दिन भर उदयपुर में होते हुए भी अपने परिवार से नहीं मिल पाये, हालाँकि फोन पर उन्होंने अपनी पत्नी से सम्पर्क कर लिया था। लेकिन उनके पास एक अच्छा बहाना था कि ‘‘मेरे दोस्त मीणा जी बार-बार थोड़े ही मिलते हैं और जो काम वे कर रहे हैं वह मेरी भी तो रूचि का है। यह भावना उनकी पत्नी के लिए भी संतोषजनक रही होगी, यह कहाँ तक सही है यह तो उनके घर जाने पर पता लगेगा। मैं यह बात मन ही मन सोचकर रह गया। ‘‘डी. एस. घर जाओगे या मेरे साथ शाम बिताओगे। ‘‘बॉस, एक बार तो घर जाने दो। ‘‘चलो ऐसा करते हैं आपके मकान पर होते हुए निकल जाता हूँ। अगर आपको इजाजत मिले तो मेरे साथ चले चलना अन्यथा ........... ‘‘मीणा जी यह ठीक रहेगा। आपकी मौजूदगी में मुझे डाँट भी नहीं पड़ेगी और यह शाम भी आपके साथ गुजारने की अनुमति भी मिल जायेगी। संस्थान से चलकर डी. एस. के घर पहुँचे। थोड़ी देर रूकने और एक-एक कप चाय पीने के बाद मैंने डी. एस. के साथ उनकी पत्नी से क्षमायाचना के साथ इजाजत मांगी कि ‘‘मैडम, आज आज डी. एस. मेरे खाते में हैं। सुबह तो मैं निकल ही जाऊँगा। ‘‘भाई साहब, सुबह हमारे यहाँ नाश्‍ता लिए बगैर नहीं जाओगे। फतेहसागर झील के चारों ओर बनी वृत्ताकार सड़क का आधा चक्कर लगाते हुए हम पुलिस रेस्ट हाउस जा रहे थे कि बायीं ओर तीर का संकेतक और ऊपर पट्ट पर लिखा था ‘शिल्प ग्राम। ‘‘यहाँ लोक संस्कृति के नाम पर आदिवासियों की नुमाइश होती है। - डी. एस. ने व्यंग्यात्मक लहजे में शिल्प ग्राम की ओर इशारा किया जिधर हल्की-फुल्की रोशनी दिखायी दे रही थी। ‘‘भाई, हमेशा ही ‘एण्टी एस्टेब्लिश मानसिकता नहीं रखनी चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि कला एवं संस्कृति विभाग ने शिल्‍प ग्राम और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों के माध्यम से लोक कलाओं को जीवित रखने का काम एक सीमा तक तो किया ही है ना। ‘‘बॉस, दुख तब होता है जब लोक कलाओं और विशेषकर आदिवासी संस्कृति को विरूपित कर शो-पीस के रूप में प्रदर्षित किया जाता है। आदिम संस्कृति के संरक्षकों के भौतिक विकास के बारे में गम्भीरता से नहीं सोचा जाता। यह सब दिखावा और छलावा है। ‘‘चलो, छोड़ो इस प्रसंग को। फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे। लो रेस्ट हाउस आ गया। पुलिस के रेस्ट हाउस पहुँचते पहुँचते पौने नौ बज गये थे। आसमान में बादल छाये हुए थे। दिन में उदयपुर में ठीक सी बारिश हुई थी। मौसम सुहावना था। मंद-मंद नम हवा के झोंकों से पेड़ों की टहनियां हिल रही थी और मेरे मन के सागर में संतोष की लहरों का तांता लगा हुआ था। लहरें बहुत सधी हुईं एक के बाद एक नियत अंतराल बनाये रखते हुए। कैसी सुखानुभूति थी यह जो नरसंहारी घटना से हुए ‘साक्षात्कार की भूमि से उत्पन्न हुई थी। दलित-दमित-शोषित मानवता की चेतना राख में दबी चिंगारियों की तरह होती है जिसे तेज हवा का इंतजार रहता है फड़कने के लिए। विद्रोह और संघर्ष की यह अनवरत प्रक्रिया है जो आदिकाल से चली आयी है और जारी रहेगी सतायी हुई मानवता की मुक्ति के लिए, बस बलिदान इसकी अनिवार्य कीमत है जो चुकानी पड़ती है। पालचित्‍तरिया की घटना इसी क्रम की एक कड़ी है। खा-पीकर डी. एस. वहाँ से चला गया। दड़वाह-पालचित्‍तरिया-खेरवाड़ा छावनी-आदिवासी शोध संस्थान, उदयपुर तक की उलट-यात्रा के दौरान और पूर्व में प्राप्त जानकारी के आधार पर अब इस घटना का एक परिदृश्‍य मेरे मस्तिष्क पटल पर अंकित हो चुका था। इस परिदृश्‍य के केन्द्र में दिखायी दे रहा था वह महान् क्रांन्तिकारी नायक-मोतीलाल तेजावत जिसका जन्म 8 जुलाई, 1887 में उदयपुर स्टेट के कोलियारा ग्राम में एक ओसवाल परिवार में हुआ था। साधारण शिक्षा प्राप्त उस व्यक्ति को हिंदी, ऊर्दू एवं गुजराती भाषा का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त था। उसने झाड़ोल ठिकाने में आठ वर्षों तक कामदार की हैसियत से कार्य किया। ठिकाने की सेवादारी के दौरान उसे आदिवासियों की दयनीय दशा का अनुभव हुआ। आदिवासियों को उनके दुखों के विरूद्ध जागृत करने के लिए उसने ‘एकी आन्दोलन की शुरूआत की। मोतीलाल ने घर-घर जाकर आदिवासियों के दुखः-दर्द को सुना। उनमें प्रचलित कुरीतियों यथा मद्यपान, गौवध, कन्या-विक्रय, जादू-टोना आदि को छोड़ने को प्रेरित किया। शिक्षा, सभ्य जीवन और अत्याचारों का विरोध आदिवासी जागृति के मूलमन्त्र थे जिनका उसने क्षेत्र में व्यापक प्रचार किया। वर्ष 1921 के आरम्भ में तेजावत ने ‘मेवाड़ पुकार के नाम से आदिवासियों की समस्याओं को लेकर 21 सूत्रीय मांगपत्र तैयार किया। इस मांगपत्र की खबर जैसे ही राज के कारिदों को मिली तो उन्होंने मोतीलाल के बारे में भ्रामक प्रचार किया और महाराणा उदयपुर को उसकी गलत तस्वीर पेश की। तब तक तेजावत मेवाड़ राज के लिए, विशेष रूप से भोमट क्षेत्र में चुनौती बनता जा रहा था। महाराणा ने उसे प्रतिनिधियों के साथ बुलाया और स्वंय मांगपत्र पर समझौता करने को बाध्य हुआ। इक्कीस मांगों में से अधिकांश मान ली गई। तीन प्रमुख मांगे अस्वीकार कर दी गई जो वनोपज, बैठ वेगार एवं सूअरों से सम्बन्धित थी। किसी भी आशंका से निडर होकर तेजावत ने महाराणा के सामने घोषणा की कि अस्वीकार की गई मांगों के सम्बन्ध में उनका संगठन राज्यादेशों की पालना नहीं करेगा। यह कहकर वह वार्तास्थल (उदयपुर का जगदीश मन्दिर) से चल दिया। किसी की हिम्मत नहीं हुई जो उस शख्स को रोकता। भोमट, खालसा और मादड़पट्टी के आदिवासियों ने तेजावत के कहे अनुसार राज्यादेशों का विरोध किया। इस समस्त क्षेत्र के आदिवासियों ने जागीरदारों को कर देना बंद कर दिया। जुलाई 1921 में महाराणा को इस आशंका से बेगार समाप्ति एवं भूमि कर में रियायत देने के आदेश प्रसारित करने पड़े कि आदिवासी आंदोलन उग्र रूप धारण न कर ले। इसके बावजूद तेजावत का आन्दोलन ठण्डा पड़ने की बजाय तेज होता गया। 31 दिसम्बर, 1921 को महाराणा ने एक आदेश जारी कर भोमट के कोटड़ा और खेरवाड़ा क्षेत्रों में पचास से अधिक आदिवासियों के एकत्रित होने पर रोक लगा दी और घोषणा की कि जो भी मोतीलाल तेजावत को गिरफ्तार करवाने में सहायता करेगा उसे 500 रूपये पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे। जनवरी 1922 में तेजावत ने गिरफ्तारी की आशंका से उदयपुर स्टेट छोड़कर अपनी आंदोलनात्मक गतिविधियां सिरोही रियासत में जाकर फैलाना आरम्भ कर दिया। उदयपुर के साथ-साथ सिरोही राज्य में भी तेजावत की गिरफ्तारी के आदेश प्रसारित होने पर वह वहाँ से निकल गया। तेजावत असानी से पकड़ में आने वाला क्रांतिकारी नहीं था। जंगली रास्तों की उसे अच्छी जानकारी थी और उसे शरण देने वालों की कमी इसलिए नहीं थी कि अब वह आदिवासियों का चिर-परिचित नायक बन चुका था। जैसा मुझे पाल चित्‍तरिया-पाल दड़वाह में सुरेश भाई ने बताया था उसके मुताबिक मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में विजयनगर रियासत के उस स्थल पर आठ से दस हजार आदिवासी एकत्रित हुए थे। मेवाड़ भील कोर के तत्कालीन कमांडेंट मेजर एच. जी. शटन की अगुवाई में ब्रिटिश एवं रियासती हथियारबंद फौजों ने उन्हें घेर लिया और बन्दूकों व मशीननगनों से अंधाधुध गोलियां दागी। आदिवासियों में भगदड़ मच गयी। वे मोर्चा भी नहीं संभाल पाये। यह घटना 7 मार्च, सन् 1922 की थी जिसमें हजार-बारह सौ आदिवासी शहीद हुए जिसकी पुष्टि राजस्थान सेवा संघ की रिपोर्ट करती है। दरअसल घटना स्थल पर बलिदान हुए आदिवासियों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी कि घायल होने वाले और बाद में इलाज के अभाव में सेप्टिक होकर मरने वालों की थी। घटना-स्थल पर जिस स्मारक का उद्घाटन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया वहाँ रोपे गये प्रस्तर-पट्ट की इबारत इस प्रकार है - ‘‘1922 में ब्रिटिश सम्राज्यवाद के विरूद्ध अपने हक की लड़ाई में जलियांवाला कांड से ज्यादा बड़ा कांड यहाँ हुआ जिसमें 1200 आदिवासी शहीद हुए। इस स्मारक का 22 मार्च, 2003 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन किया। आदिवासी अमर रहें। उदयपुर में रात्रि विश्राम के बाद ता. 14 जुलाई को सुबह उदयपुर से रवाना होने से पहले डी. एस. पालीवाल के घर नाश्‍ता करते हुए मैंने उन्हें अमरीका के प्रख्यात उपन्यासकार हावर्ड फास्ट का यह उद्धरण सुनाया- ‘‘आने दो उन्हें हमको ढ़ूंढ़ते हुए। भेजने दो हमारे खिलाफ अपनी फौजें। फौज बकरी की तरह पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकतीं, हम चढ़ सकते हैं। हर चट्टान के पीछे और हर दरख्त की शाखों में एक तीर छिपा हो। हर चोटी पर बड़े-बड़े पत्थर जमा रहें। हम कभी सामने से उनका मुकाबला नहीं करेंगे, कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करेंगे-लेकिन हम बराबर वार पर वार करते रहेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे, यहां तक कि हमारे तीरों के डर से उनकी रात की नींद हराम हो जाएगी, फिर उनकी हिम्मत नहीं होगी कि किसी तंग दर्रे में घुस भी सकें, और फिर सारा जूड़िया उनके लिए एक बड़ा सा जाल बन जाएगा। लाने दो उन्हें अपनी फौजें हमारी धरती पर-हम तो पहाड़ों पर होंगे और फिर आने दो उन्हें पहाड़ों पर-हर चट्टान जाग उठेगी। फिरने दो उन्हें हमारी तलाश में, हम कुहरे की तरह फैल कर हवा में घुल जाऐंगे और जब वे अपनी फौज किसी दर्रे के बीच से निकालने की कोशिश करेंगे तो हम उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, जैसे सांप के किये जाते हैं। ......समाप्‍त.....